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१३२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या शान्ति के लिए, न परमज्ञान के लिए और न तो निर्वाण के लिए ही आवश्यक है, अर्थात् बुद्ध स्पष्ट रूप से यह कहना चाहते हैं कि इन सभी उलझनों में पड़ना भिक्षु के लिए अपेक्षित नहीं है। ___ इसके विपरीत महावीर न तो संजय की तरह अनिश्चयात्मक उत्तर देना चाहते थे और न बुद्ध की तरह उन्हें अव्याकृत कहकर अपना पीछा ही छुड़ाना चाहते थे। प्रत्युत महावीर लोक, परलोक, आत्मा, कर्मफल और मुक्ति सम्बन्धी सभी प्रश्नों का उत्तर विधायक रूप से देते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि जैन-सप्तभङ्गी का मूलाधार महावीर का विधायक दृष्टिकोण है । सप्तभङ्गी अपने प्रत्येक भङ्ग में स्वीकारात्मक पक्ष का ही आश्रय लेती है। संजय और बुद्ध जिन प्रश्नों का उत्तर विधिमुख से नहीं देते हैं, जिन प्रश्नों का उत्तर संजय निषेध-मुख से देते हैं और बुद्ध जिन्हें अव्याकृत कहते हैं उन्हीं प्रश्नों का सप्तभङ्गी विधि-मुख से यथोचित् और युक्तिसङ्गत उत्तर देती है । इस तथ्य को प्रो० महेन्द्र कुमार जैन द्वारा दी गई सारणी से अच्छी तरह समझा जा सकता है'
प्रश्न संजय
बुद्ध महावीर १. क्या लोक मैं जानता होऊँ, इनका जानना हाँ, लोक द्रव्यदृष्टि से शाश्वत तो बताऊँ ? अनुपयोगी है, शाश्वत है। इसके
(अनिश्चय, (अव्याकरणीय, किसी भी सत् का अज्ञान) अकथनीय) सर्वथा नाश नहीं हो
सकता, न किसी असत् से नये सत् का
उत्पाद ही संभव है। २. क्या लोक मैं जानता होऊँ, इनका जानना हाँ, लोक अपने अशाश्वत तो बताऊँ अनुपयोगी है, प्रतिक्षणभावी परिण
(अनिश्चय, (अव्याकरणीय, मनों की दृष्टि से अज्ञात) अकथनीय) अशाश्वत है। कोई
भी पर्याय दो क्षण ठहरने वाला नहीं है।
१. द्रष्टव्य-जैन-दर्शन, पृ० ३८९ ।
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