________________
ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता
१०१
(अ) अद्धद्धा मिश्रक
काल-निरपेक्ष कथन भी पूर्णतः सत्य या असत्य नहीं होते हैं। अतः उन्हें भी अंशतः सत्य और अंशतः असत्य मानना होगा। (२) अपर्याप्तिक अ-सत्य अ-मृषा भाषा
वाणी-व्यापार की यह एक ऐसी भाषा है। जो प्रतिदिन व्यवहृत तो होती है किन्तु यह सत्य और असत्य की कोटियों से परे होती है। जब किसी वाणी-व्यापार में वस्तुगत विधेय के स्थान पर किसी ऐसे विधेय को प्रयुक्त किया जाता है जिनका सत्यापन कथमपि संभव नहीं है । ऐसी भाषा को जैन आचार्यों ने अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहा है। यह एक ऐसी भाषा है जिसमें उद्देश्य के सन्दर्भ में किसी विधेय का विधान या निषेध नहीं होता है। बल्कि आदेश, इच्छा आदि को अभिव्यक्त किया जाता है। पन्नवणा सूत्र में इस भाषा के १२ भेद बताये गये हैं।
यहाँ भाषा (कथन) की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता के सन्दर्भ में इनका भी संक्षेप में विचार कर लेना अपेक्षित है
(क) आमन्त्रणी भाषा
किसी व्यक्ति को उत्सव आदि में सम्मिलित होने के लिए आमन्त्रित करने में जिस भाषा का प्रयोग होता है उस भाषा को आमन्त्रणी भाषा कहते हैं। जैसे-आप हमारे गृह-प्रवेश महोत्सव में सम्मिलित होवें। यह एक ऐसी भाषा है जिसका सत्यापन संभव नहीं है। इसलिए इसे अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहते हैं।
(ख) आज्ञापनीय भाषा
किसी को आज्ञा देने के लिए प्रयुक्त की गयो भाषा का भी सत्यापन नहीं हो सकता है। इसलिए उस भाषा को भी सत्य और मृषा की कोटि से परे माना गया है। जैसे-दीपक बुझा दो, दरवाजा बन्द कर दो आदि । (ग) याचनीय भाषा
जैन आचार्यों ने याचनीय भाषा को भी सत्य और असत्य की कोटि से परे माना है। किसी से कुछ मांगने में प्रयोग की गयी भाषा का भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org