Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 19
________________ हेमचन्द्र हेमचन्द्रकी उक्त दोनों द्वात्रिशिकायें महावीर भगवानकी स्तुतिरूप हैं। दोनोंमे बत्तीस-बत्तीस श्लोक हैं जिनमें इकतीस श्लोक उपजाति और अन्तका एक श्लोक शिखरिणी छन्दमें हैं। अन्ययोगव्यवच्छेदिकामें अन्य दर्शनोंमें दूषणोंका प्रदर्शन किय गया है। इसमें आदिके तीन और अन्तके तीन श्लोकोंमें भगवानकी स्तुति; सतरह श्लोकोंमें न्याय-वैशेषिक, मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, बौद्ध और चार्वाकदर्शनोंको समीक्षा; तथा नौ श्लोकोंमें स्याद्वादको सिद्धिकी गई हैं १-स्तुतिरूप छह श्लोकोंमें भगवानके अतिशय, उनके यथार्थवाद, नयमार्ग, और निष्पक्ष शासनका वर्णन करते हुए अन्तमें जिन भगवानके द्वारा ही अज्ञानांधकारमें पड़े हुए जगतकी रक्षाकी शक्यताका प्रतिपादन किया है। २--(क) अन्य दर्शनोंके समीक्षात्मक रूप सतरह श्लोकोंमें से छह श्लोकोंमें (४-१०) न्यायवैशेषिकोंके सामान्यविशेषवाद, नित्यानित्यवाद. ईश्वरकर्तृत्व, धर्म-धर्मिका भेद, सामान्यका भिन्नपदार्थत्व, आत्मा और ज्ञानका भिन्नत्व, बुद्धि बादि आत्माके गुणोंके उच्छेदसे मुक्ति, आत्माकी सर्वव्यापकता, तथा छल, जाति और निग्रहस्थानके ज्ञानसे मुक्ति मानना-इन सिद्धांतों की समीक्षा की गई है। (ख) ११-१२ वें श्लोकमें मीमांसकोंकी, (ग) १३ वें श्लोकमें वेदान्तियोंके मायावादकी, (घ) १४ वें में एकान्त सामान्य और एकान्त विशेष रूप वाच्य-वाचक भावकी, (ङ) १५ वें में सांख्यदर्शनके सिद्धांतोंकी, तथा (च) १६-१९ में बौद्धोंके प्रमाण और प्रमितिकी अभिन्नता, ज्ञानाद्वैत, शन्यवाद और क्षणभंगवादकी, तथा ( छ ) २० वें श्लोकमें चार्वाकदर्शनकी समीक्षा की गई है। ३--शेष नौ श्लोकोंमें वस्तुमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यकी सिद्धि, सकलादेश और विकलादेशसे सप्तभंगीका प्ररूपण, स्याद्वादमें विरोध आदि दोषोंका खंडन, एकान्तवादोंका खंडन, दुर्नय, नय और प्रमाणका स्वरूप, और सर्वज्ञनिर्दिष्ट जीवोंको अनन्तताके प्ररूपणके साथ स्याद्वादको सर्वोत्कृष्टता सिद्ध की गई है। अयोगव्यवच्छेदिका द्वात्रिंशिकामें स्वपक्षकी सिद्धि की गई है। अन्ययोगव्यवच्छेदिका और अयोगव्यवच्छेदिकाके श्लोकोंका उल्लेख हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसावृत्ति, योगशास्त्रवृत्ति आदि ग्रंथोंमें मिलता है । इससे मालूम होता है इन ग्रंथोंके बननेसे पहले ही द्वात्रिंशिकाओंकी रचना हो चुकी थी। अयोगव्यवच्छेदिकामें हेमचन्द्र आचार्यने तीथिकोंके आगमको सदोष-सिद्ध करके जिनशासनकी महत्ताका प्रतिपादन किया है। हेमचन्द्राचार्यकी मान्यता है कि जैनेतर शास्त्रोंमें हिंसा आदिका विधान पाया जाता है, अतएव पूर्वापरविरोध से रहित यथार्थवादी जिन भगवानका शासन ही प्रामाणिक हो सकता है। जिन शासनके सर्वोत्कृष्ट और कल्याणरूप होने पर भी जो लोग जिन शासनकी उपेक्षा करते हैं, वह उन लोगोंके दुष्कर्मका ही परिणाम समझना चाहिये । हेमचन्द्र घोषित करते हैं कि वीतरागको छोड़कर अन्य कोई देव, और अनेकान्तको छोड़कर अन्य कोई न्यायमार्ग नहीं है इमां समक्ष प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां ब्रुवे । न वीतरागात्परमस्ति दैवतं न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थितिः ।। अन्तमें हेमचन्द्र जिनदर्शनके प्रति पक्षपात और जिनेतर दर्शनोंके प्रति द्वेषभावका निराकरण करते हुए अपने समदर्शीपनेका उद्घोष करते हुए जिनशासनकी ही महत्ता सिद्ध करते हैं-- न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु त्वामेव वीर प्रभुमाश्रिताः स्मः ।। १: अन्ययोगव्यवच्छेदिकाके कई श्लोंका उल्लेख माधवाचार्यने सर्वदर्शनसंग्रहमें किया है।

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