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पुत्ते रज्जे ठवित्ताणं, सामण्णे पजुवट्ठिया ॥ ४७ ॥ उ० अ० १८ ॥ एते रट्ठा निहित्वान, पव्वजिंसु अकिंचना ॥ ५॥ कुंभारजातक ॥ मालूम होता है एक पद जानकर छोड़ दिया गया है। (नोट) इसके अतिरिक्त बौद्धग्रंथों में और भी जैनसाहित्यका बहुतसा अनुकरण है। भाषात्मक-साम्य वैदिक
१ अर्धमागधीमें 'ऋ' के स्थानमें 'उ' होता है, जैसे-स्पृष्ट-पुट्ठ, उसी प्रकार वेद में भी, जैसे-कृत-कुठ (ऋग्वेद १, ४६, ४ )। __ २ अर्धमागधीमें कितनेक स्थानोंपर एक व्यंजनका लोप होकर पूर्वका ह्रस्वस्वर दीर्घ होता है, जैसे-पश्यति-पासइ, उसी प्रकार वेदमें भी, जैसे-दुर्लभ दूलभ (ऋ० ४, ९, ८), दुर्णाश-दूणाश ( शुक्लयजुःप्रातिशाख्य ३, ४३)।
३. अर्धमागधीमें शब्दके अन्त्य व्यंजनका लोप होता है, जैसे-तावत्-ताव, उसी प्रकार वेदमें भी, जैसे-पश्चात् पश्चा, (अथर्वसंहिता १०, ४, ११), उच्चात् उभ्या (तैत्तिरीयसंहिता २, ३, १४), नीचात=नीचा, (तै० १, २, १४)। साम्य अर्धमागधी
वैदिक ४ संयुक्त य-र-का लोप श्याम साम त्र्यचत्रिच (शत० १, ३, ३, ३३ )
प्रगल्भ पगब्भ अप्रगल्भ अपगल्भ (तै०४,५,६१) ५ संयुक्त वर्णका पूर्व आम्र अंब अमात्र अमत्र (ऋ० ३, ३६, ४ ) खर हख
रोदसीप्रा-रोदसिप्रा (ऋ०१०,८८,१०) ६ 'द' को 'ड' दण्ड-डंड दुर्दभ दूडभ ( वाजसनेयिसं० ३, ३६)
पुरोदाश-पुरोडाश (शु० ३, ४४ ) ७ 'ध' को 'ह' बाधा=बाहा प्रतिसंधाय प्रतिसंहाय ( गोपथ २, ४)
८ संयुक्त व्यंजनोंमें क्लिष्ट किलिट्ठ स्वर्गः सुवर्गः (तै० ४, २, ३) स्वरका आगम
तन्वः तनुवः ( तै० आ० ७, २२, १; ६, २, ७) ९ प्रथमाके एकवचनमें जिणो संवत्सरो अजायत ( ऋ० सं० १०, १९०,२) 'ओ'
सो चित् ( ऋ० सं० १, १९१, १०-११)