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कि इंद्रियोंके भी अगोचर हैं। वनस्पतिका 'निगोद' नामक एक विभाग है, जिसमें सूईके अग्रभाग जितने बारीक स्थानमें भी अनन्त जीव हैं। कर्मोका आवरण होनेके कारण ये जीव संसारी कहलाते हैं । भव्यजीव योग्य सामग्री और संयोग मिलनेपर मनुष्यगतिको पाकर फिर कर्मोका सर्वथा निकंदन करके मोक्षको प्राप्त होता है। मोक्ष होने पर आत्मा अपुनरावृत्ति अवस्थाको पाता है।
जैनोंकी दृष्टिमें जगत् अनादि अनंत है, इसकी रचना करनेवाला कोई नहीं है * । और अन्यमतावलंबी भी यही मानते हैं कि "नासतो जायते भावो, नाभावो जायते सतः।” अर्थात् “असत्की उत्पत्ति नहीं होती और सत्का सर्वथा अभाव नहीं होता।"
जैनधर्म ईश्वरको कर्ता हर्ता नहीं मानता । वास्तवमें 'परिक्षीणसकलकर्मा ईश्वरः' अर्थात् समस्त कर्म क्षय होने पर आत्मा ही ईश्वर अवस्थाको प्राप्त होता है । अथवा यों कहिए कि आत्माका शुद्ध स्वरूप ही परमात्मा है।
जैनधर्म जीवके द्वारा किए गए कर्मोंका फल 'किसी अन्य शक्ति द्वारा मिलता है' ऐसा नहीं मानता। जो जैसा कर्म करता है उसे कर्म द्वारा वैसा ही फल मिलता है। जैसे मकान बनाने वाला मनुष्य अपने मकान बनानेके कर्मसे अपने आप समतल भूमिसे ऊँचा उठता जाता है, कुतुबमीनार पर चढ़ने वाला व्यक्ति चढ़ता हुआ अपने आप ऊँचा चला जाता है, इसी प्रकार उत्तम क्षमा दया सत्यादि उत्तम साधनका कर्ता अपने आप स्वर्गादि उत्तम गतिको पाता है। ऐसे ही जो ज़मीन खोदनेवाला मनुष्य जितनी ज़मीन खोदता है वह उतना ही समतल भूमिसे नीचा होता चला जाता है, इसी तरह पापकर्म करने वाला जीव अपने आप हिंसा असत्य द्रोह दगा आदि अशुभकर्मके निमित्तसे अधम गतिको प्राप्त होता है । यदि मनुष्य दुग्धादि पौष्टिक पदार्थोंका सेवन करता है तो उन पदार्थोके द्वारा अपने आप शरीर सुंदर और सुदृढ़ हो जाता है, इसी विधिसे शुभ प्रकृतियोंका सृजन करने वाला अनेक शुभसंयोगोंको प्राप्त करता है। विष भक्षण करनेवाला प्राणी उस विषके प्रयोगसे अपने आप मर जाता है, धतूरा खानेवाला मूर्छित हो जाता है, कारण वस्तुका स्वभाव अपना काम करता है। जैसे पानी अपने स्वाभाविक गुणसे स्वयं नीचेका मार्ग पकड़ता है तब धुआँ या आगकी ज्वालाओंको अपने आप ऊर्ध्वगामी होते देखा जाता है । आत्मा और पुद्गल * "अनाद्यनिधने द्रव्ये, स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् ।
उन्मजन्ति निमजन्ति, जलकल्लोलवजले ॥ आ० प०॥