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रुधिर १५, पड़ी हुई अशुचि १६, समीपमें जलने वाला श्मशान १७, चंद्रग्रहण १८, सूर्यग्रहण १९, मुखिया-राजा-सेनापति-देशनायक-नगरशेठ का मरण २०, राज्यसंग्राम २१, धर्मस्थानमें मनुष्य
और तिर्यंच पंचेंद्रियका कलेवर २२ ।। आकाश-संबंधी १० अस्वाध्याय-उल्कापात २३, दिशाओंके लाल
होनेका समय २४, अकालगर्जना २५, बिजली चमकते समय २६, निर्घात २७, यूपक-शुक्लपक्षकी एकम-दोज और तीजकी संध्या २८, यथालिप्त-अमुक २ दिशाओं में थोड़े थोड़े अन्तरमें बिजलीके समान प्रकाश होते समय २९, धूमिका-धुंवर ३०, महिका-कोहरा (धुंध)
पड़ते समय ३१, रजोवृष्टि ३२ । इन ३२ अखाध्यायोंको टालकर दिन और रातके पहले और चौथे प्रहरमें कालिक सूत्रोंका स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय संबंधी नियमके भंग करनेवाले के लिए प्रायश्चित्त निशीथसूत्रके १९ वें उद्देशकमें देखें।
यह भी ज्ञात रहे कि अखाध्यायकाल को हिंदुओंके ग्रंथों में भी वर्जित किया है। अनाध्यायकालमें उनके यहां भी अमुक २ ग्रंथ न पढ़ना कहा है। जिस प्रकार प्रभात विहाग भैरवी देश श्यामकल्याण आदि रागोंका समय निश्चित है, असमयमै वे अच्छे नहीं लगते, इसी प्रकार सूत्रोंका खाध्यायकाल निर्धारित है, अर्थात् 'काले कालं समायरे।'
सूत्रोच्चारविधि-सूत्रोंका उच्चारण करते समय स्खलना न हो, ज़बान न लड़खड़ा जाय । अलग २ पदोंको मिलाकर और मिले हुए पदोंको तोड़कर न पड़े। अपनी ओरसे क्षेपक न करे । सांगोपांग परिपूर्ण पढ़े। घोषके नियमानुसार पढ़े। यथास्थान उच्चारण करे । गुरुसे वाचना लेकर पढ़े। जैसा कि अनुयोगद्वारसूत्रमें कहा है कि "सुत्तं उच्चारेयव्वं-अक्खलियं, अमिलियं, अवच्चामेलियं, पडिपुण्णं, पडिपुण्णघोसं, कंठोठ्ठविप्पमुक्कं, गुरुवायणोवगयं ।”
सूत्रव्याख्याके ६ भेद.... "संहिया य पयं चेव, पयत्थो पयविग्गहो।
चालणा य पसिद्धी य, छविहं विद्धि लक्खणं ॥" . १ संहिता-पदका अस्खलित उच्चारण, जैसे-'करेमि भंते ! सामाइयं.'
२ पद-उपरोक्त वाक्यमें 'करेमि' एक पद है, 'भंते !' दूसरा पद है, ... 'सामाइयं' तीसरा पद है।