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आचारकल्प वर्णित है। जो पदार्थादि कर्मबंधके हेतु और संयमके वाधक हैं उनके लिए 'न कप्पई' शब्दका उपयोग किया है अर्थात् 'नहीं कल्पता है, तथा जो संयमकी साधनामें सहायक, स्थान, वस्त्र, पात्र आदि हैं उनके संबंधमें 'कप्पई' कल्पनीय कहा है । अमुक अकार्य ( दोष ) के लिए १० प्रायश्चित्तमें साधक किस प्रायश्चित्तका अधिकारी है। साथ ही कल्पके छ प्रकार आदिका कथन है। __ तृतीय छेद-निशीथसूत्र में प्रायश्चित्ताधिकार है, इसमें २० उद्देशक हैं, १९ उद्देशकोंमें गुस्मासिक लघुमासिक लघुचातुर्मासिक और गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्तका वर्णन है, २० वें उद्देशकमें इनकी विधि बताई गई है । स्खलना करनेवाले साधुओं के लिए शिक्षारूप निशीथसूत्र है। दूसरे शब्दोंमें इसे धर्मनियमोंका कोष या दंडसंग्रह (पेनल कोड) कहा जाय तो युक्तियुक्त ही है। प्रायश्चित्तका अर्थ है कि भूलकर एक बार जिस अकृत्यका सेवन किया हो उसकी आलोचना करके शुद्ध होना और पुनः त्याज्य कर्मका आचरण न करना।
चतुर्थ छेद-दशाश्रुतस्कंधमें दश अध्ययन हैं, जिनमें क्रमशः असमाधिके २० स्थान, २१ सबलदोष, ३३ अशातना, आचार्यकी आठ सम्पदाएँ और उनके भेद, शिष्यके लिए चारप्रकारकी विनय प्रवृत्ति मेद सहित, चित्तसमाधिके १० स्थान, श्रावक की ११ प्रतिमाएँ तथा साधुकी १२ प्रतिमाएँ, पयूषणाकल्प, महामोहनीयकर्मबंधके ३० स्थान तथा नव निदानों (नियाणों ) का वर्णन है। ___ इनमें व्यवहार, बृहत्कल्प और दशाश्रुतस्कंधकी रचना आर्य भद्रबाहु आचार्य ने की है।
चार मूलसूत्र
प्रथम मूलसूत्र-दशवैकालिकमें १० अध्ययन और दो चूलिकाएँ है । इसकी रचना १४ पूर्वधर श्रीशय्यंभवाचार्यने अपने शिष्य (पुत्र) मनाकूप्रिय के लिए पूर्वोमेंसे उद्धृत करके की है। इसके दश अध्ययन हैं और इसे विकालमें भी पढ़ा जा सकता है अतः इसका नाम दशवैकालिक है । इसके प्रथम अध्ययनमें धर्मकी प्रशंसा और साधुकी भ्रमर-जीवनके साथ तुलना; द्वितीय अध्ययनमें चित्तस्थिरीकरणके उपाय, रथनेमि और राजीमतीका उदाहरण; तृतीय अध्ययनमें साधुके ५२ अनाचीर्ण; चतुर्थ अध्ययनमें षड्जीवनिकायका स्वरूप; पाँचवें अध्ययनके प्रथमोद्देशकमें भिक्षा( गोचरी )विधि, द्वितीय उद्देशकमें
१ इसका विशेष कथन कल्पसूत्रसे ज्ञातव्य है।