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परि । विशेष, परिवर्तन होना, चारों ओर; परि+तूसइ-परितृसइ-वह पलि । विशेष प्रसन्न होता है । परि+वट्टइ-परिवट्टई-वह बदलता है।
परियडइ-वह चारों ओर घूमता है। पडि-पति ) सामने, उलटा; पडि+भासइ-पडिभासइ-वह सामने बोलता परि-पइ है। पह+जाणइ-पइजाणइ-वह प्रतिज्ञा करता है। (प्रति) प (प्र)आगे, प्रकर्ष; पयाइ-वह आगे जाता है। प्प पयासेइ-वह विशेष प्रकाश करता है । वि] विशेष, निषेध, विरोधार्थ; वियाणेइ-वह विशेष रूपसे जानता है। . विस्सरइ-वीसरइ-वह भूलता है। सं (सम्)] भली भाँति; सं+गच्छइ-संगच्छइ-वह भली भाँति मिलता है। निर) निश्चय, आधिक्य, निषेध; निजिणेइ-वह निश्चयसे विजय पाता है। नि निरिक्खइ-वह निरीक्षण करता है। नी नीसरइ-वह बाहर निकलता है। दुर दुःखपूर्वक, दुष्टतार्थ; दुलंघेइ-कठिनाईसे उल्लंघन करता है। दुस्सदु हेइ-दूसहेइ-वह दुःख सहन करता है । दुरायार-दुष्ट आचरण ।
(नोट) निर दुर् इन उपसर्गोंके रेफका विकल्पसे लोप होता है, परन्तु रेफसे परे स्वर होनेपर लोप नहीं होता, जब रेफका लोप नहीं होता तो पश्चात्वती व्यंजनमें रेफ मिल जाता है और उस व्यंजनको द्वित्व होता है। जैसे-निर+ सहो निस्सहो, नीसहो, निसहो; निर्+अंतरं-निरंतरं; दुर्+सहो-दुस्सहो, दूसहो, दुसहो; दुर्+उत्तरं-दुरुत्तरं ।
अव्यय सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु, सर्वासु च विभक्तिषु ।
वचनेषु च सर्वेषु, यन्न व्येति तव्ययम् ॥ (१) अ अण-निषेधार्थ, अह इसके बाद, अइरा-तत्काल, अईव=अधिक, अंग-आमंत्रण, अन्तर अन्तरेण-अभावयुक्त, अंते अंतो-बीचमें, अकम्हा-अकस्मात् , अचिरं-जल्दी, अजस्स-निरन्तर, अज-आज, अणिसं सतत, अति
१ आविर् व्यक्ते, तु पृथग्भावे, पाउ पाउर् प्राकाश्ये, सद् श्रद्धायामित्यधिकं प्रत्यन्तरे।