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भिक्षाकालादि; छठे अध्ययनमें साधुके १८ कल्प; सातवें अध्ययनमें वचनशुद्धि, साधुके बोलने न बोलने योग्य भाषाका वर्णन; आठवें अध्ययनमें साधुके आचार; नववें अध्ययनके प्रथमोद्देशकमें विनयका स्वरूप, गुरुकी आशातनाका दुष्परिणाम, द्वितीय उद्देशकमें विनय तथा अविनयका फल, तृतीय उद्देशकमें किन २ गुणोंके समाचरणसे पूजनीय होता है, चतुर्थ उद्देशकमें विनय, श्रुत, तप और आचार समाधिका वर्णन है। दशवें अध्ययनमें भिक्षुके गुण वर्णित हैं अर्थात् किन २ गुणोंसे भिक्षु होता है। पहली चूलिकामें संयममें स्थिर करनेवाली १८ वातें; द्वितीय चूलिकामें साधुका आचार विचार, वासकल्प, विहार मोक्षप्राप्ति आदिका कथन है । कई इन चूलिकाओंको महाविदेह क्षेत्रसे लाई हुई मानते हैं परन्तु कई कारणोंसे इसे युक्तियुक्त नहीं माना जा सकता । ये श्रीशव्यंभवाचार्य की रचनाएँ न होने पर भी प्रामाणिक मानी गई हैं।
द्वितीय मूल-उत्तराध्ययनमें ३६ अध्ययन हैं, यह सारा सूत्र ही अत्यानंददायक ज्ञानकी निधिके समान है। इसके प्रथम अध्ययनमें विनयका विस्तारपूर्वक कथन है । द्वितीय अध्ययनमें परिषहोंके नाम और साधुको उनके सहन करने का उपदेश है। तृतीय अध्ययनमें मनुष्यत्व-धर्मश्रवण-श्रद्धा और संयममें स्फुरणा, इन चार अंगोंकी दुलेभताका वर्णन है । चतुर्थ अध्ययनमें टूटीकी बूटी नहीं है अर्थात् जीवनकी क्षणभंगुरता और प्रमाद-अप्रमादका स्वरूप समझाया गया है। पांचवें अध्ययनमें अकाम( वाल-अज्ञान )मरण सकाम( पंडित)मरण का विस्तारपूर्वक वर्णन है । छठे अध्ययनमें साध्वाचारका संक्षिप्त वर्णन है। सातवेंमें कामी पुरुषकी बकरेके जीवनके साथ तुलना, काकिणी, आम्रफल, तीन व्यापारियोंके उदाहरण हैं। आठवेंमें कपिल केवलीका चरित्र, लोभ तृष्णा आदि दुर्गुणोंके त्यागका उपदेश है। नववें अध्ययनमें नमिराजका दीक्षा के लिए उद्यत होना, इन्द्रके साथ प्रश्नोत्तर आदि । दशवेंमें वृक्षके सूखे पत्तेके समान मानव जीवनकी नश्वरता तथा समयमात्र का भी प्रमाद न करनेकी शिक्षा । ग्यारहमें शिक्षा न मिलनेके ५ और शिक्षा प्राप्त करनेके ८ कारण, विनीतके १५ और अविनीतके १४ लक्षण, बहुश्रुतकी १६ उपमाएँ । बारहवेंमें हरिकेशीवल मुनिका चरित्र, तपकी महत्ता, जातिवादका खंडन, भावयज्ञ तथा आध्यात्मिक स्नानका स्वरूप । तेरहवेंमें चित्त संभूतिका पूर्वभव, दोनोंका मिलना, चित्तमुनिका ब्रह्मदत्तको उपदेश, पूर्वकृत निदानके कारण ब्रह्मदत्तकी व्रतादिकी प्रवृत्तिमें असम