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प्रतिपदाको सबेरे ही उत्तराध्ययनसूत्रका संपूर्ण स्वाध्याय ( पाठ ) किया जाता है । तृतीय मूल - नन्दी सूत्रमें संघ स्तुति, तीर्थंकर गणधरादि स्थविरावली, परिषद्, पांचों ज्ञानोंका स्वरूप विस्तारपूर्वक वर्णित है ।
चतुर्थ मूल - अनुयोगद्वार में आवश्यक, श्रुतस्कंध के निक्षेप, उपक्रम, आनुपूर्वी, दश नाम, प्रमाण, निक्षेप, अनुगम और नयका पूर्ण विस्तार से उल्लेख है । इसमें स्वर, ८ विभक्ति, ९ रस आदि विषय विशेष उल्लेखनीय हैं । यह आर्य रक्षिताचार्य कृत है । जिसके ये दो प्रमाण हैं
प्रथम - संस्कृतका प्रयोग किसी सूत्रमें नहीं है परंतु इसमें पाया जाता है । दूसरा- उदाहरणों में 'तरंगवइक्कारे, मलयवइक्कारे' आदि भी इसकी पश्चाद्वर्तिताको सूचित करते हैं ।
बत्तीसवां आवश्यकसूत्र - इसमें सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदनक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान इन छहों आवश्यकका वर्णन है ।
परिशिष्ट परिचय- प्रथम परिशिष्टमें कल्पसूत्र सन्निहित है जो कि चतुर्थ छेद दशाश्रुतस्कंधका आठवाँ अध्ययन है । इसमें ज्ञातपुत्र महावीर भगवान्, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ऋषभदेव इन चारों तीर्थंकरों का चरित्र है इसके अतिरिक्त इसमें गणधरादि स्थविरावली और सामाचारी भी वर्णित हैं । द्वितीय परिशिष्ट में सामायिकसूत्र विधिसहित दिया गया है ।
तृतीय परिशिष्ट में श्रावकावश्यक ( प्रतिक्रमण ) सूत्र विधिसहित है । भाषापाठोंके स्थानपर कोष्टकमें मूलपाठ दिए हैं ताकि समझने में सुगमता हो ।
सूत्रों में प्रयुक्त छंद - आगमों में गाथाओंका प्रयोग अधिक है, इसके अतिरिक्त वैतालीय, उपजाति, आर्या का प्रयोग भी पाया जाता है । प्रस्तुत प्रकाशनकी विशेषता
१- पाठशुद्धिका पूरा २ लक्ष्य रक्खा गया है ।
२ - इसका संपादन शुद्ध प्रतियोंके आधारपर किया गया है ।
३- पाठान्तर नवीन पद्धतिसे दिए हैं।
४- टिप्पण भी यथास्थान प्रयुक्त किए गए हैं।
५- अंतमें परिशिष्ट भी दिए गए हैं।
६ - तुलनात्मक अध्ययन भी इससे पूर्व दिया गया है ।
७ - व्याकरण - शेष भी दे दिया गया है ।
कार्यविवरण- प्रथम अंशका कार्य पूरा होनेके लगभग ८ महीने बाद माटुंगा
५ सुत्ता० प्र०