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अनंतकालसे एक दूसरेके साथ संयुक्त रहते हुए भी आत्मा पुद्गलरूप और पुद्गल आत्मारूप नहीं हुआ, न होता है और न होगा। कारण वस्तु अपने स्वभावमें सदैव स्थिर है।
स्याद्वाद-जैन धर्मकी सबसे बड़ी विशेषता स्याद्वाद है। पदार्थमें रहे हुए विभिन्न गुणोंको सापेक्षतया स्वीकार करना ‘स्याद्वाद' है। जैसे कोई व्यक्ति अपने पुत्रकी अपेक्षासे पिता है एवं पिता की अपेक्षासे पुत्र है, और भी कई अपेक्षाओंसे उसकी कई संज्ञाएँ हैं। इसी प्रकार स्याद्वादकी दृष्टि से द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा लोक नित्य है और पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे लोक अनित्य है । अथवा यों कहिए कि 'षड्दर्शन जिन अंग भणीजे' अर्थात् स्याद्वादरूपी समुद्र में अलग २ मतरूप नदिएँ आकर अभेदरूप होकर मिलती हैं।
अहिंसा-अहिंसाका सूक्ष्म विवेचन जितना जैनधर्ममें है उतना अन्यत्र कहीं नहीं मिलता । अहिंसाकी साधनासे ही भारतवर्षको स्वतंत्रता प्राप्त हुई है, जिसे देखकर शनैः २ आजकी दुनिया उसकी ओर आकर्षित होकर प्रगतिशील हो रही है । जैनधर्म मानता है कि "सव्वे जीवा पियाउया०" "सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउ न मरिजिउं ।" Live and let live. Not Killing is Living. इसके अतिरिक्त जैनधर्म सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, संयम, तप और त्याग पर भी पूरा २ भार देता है। __ जैनधर्म सैद्धान्तिक दृष्टि से जातिवाद और छूतछातको नहीं मानता “कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ० ॥" अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सब कर्मानुसार हैं जन्मसे नहीं । हरिकेशमुनि जैसे शूद्रजातीय भी देवोंके पूजनीय थे।
स्त्रीके समानाधिकार-चतुर्विध संघमें जहां साधु और श्रावकका स्थान है वहां साध्वी और श्राविकाका भी । चंदनबाला आदि कई महासतियोंने मुक्ति प्राप्त की है।
जैनागमोंमें वर्णित गणतंत्रके आधार पर ही आजके गणतंत्रकी उत्पत्ति हुई है। _शान और क्रिया-जैनधर्म 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः' अर्थात् ज्ञान के द्वारा वस्तुका तथ्य जानकर उसी भाँति आचरण (क्रिया) द्वारा मोक्ष मानता है।
आगम कहते हैं कि 'जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा'-जो कर्मशूर होते हैं वे ही धर्मशूर होते हैं। बाह्य युद्धका निषेध-'अप्पणामेव जुज्झाहि, किं से जुज्झेण