________________
(नोट) आपने इन पृष्ठपटोंपर अंकित सम्मतियोंसे यह तो जान ही लिया होगा कि ये प्रकाशन कैसे हैं। वैसे तो सब संप्रदायोंके मुनियों और महासतियों एवं जिज्ञासुओंकी ओरसे सूत्रोंकी मांगें धड़ाधड़ आती रहती हैं, अर्थात् ' सूत्रोंका प्रचार आशासे अधिक हो रहा है। ११ अंगों से युक्त 'सुत्तागमे' महान् ग्रंथकी प्रशंसा बड़े २ महाविद्वानोंने मुक्तकंठसे की है। यह अपूर्व ग्रंथराज केंब्रिज, वाशिंगटन, येले, फिलाडेल्फिया, कैलीफोर्निया, क्लीवीलेंड, न्यूयार्क, प्रिंस्टन, चिकागो ( अमेरिका ), जर्मन, जापान, चीन, पैरिस, सिंगापुर, मुंबई, कलकत्ता, बनारस, मद्रास, आगरा, पंजाब, देहली, भांडारकर ओरंटियल इंस्टीट्यूट पूना आदिके महापुस्तकालयों एवं यूनिवर्सिटियोंमें भी शोभा प्राप्त कर चुका है । तथा वहांसे पर्याप्त संख्यामें प्रमाणपत्र और प्रशंसा पत्र आए हैं जिन्हें ग्रंथराज के देहसूत्रके अत्यधिक बढ़ जाने के कारण नहीं दिया गया। अधिक क्या कहें इसकी ज्यादह प्रशंसा करना मानों सूर्यको दीपक दिखाना है। इसी प्रकार अर्थागम और उभयागमों को भी यथासमय मुनियों महासतियों एवं जिज्ञासुओंके करकमलोंमें पहुँचाकर समिति अपना ध्येय पूरा करने का प्रयत्न करेगी। समिति यही चाहती है कि हमारे मुनिगण प्रकाण्ड विद्वान बनकर जिन-शासनका उत्थान करें एवं आगमों का सर्वत्र प्रचार हो । मंत्री Letter No. 1 True copy of the letter received from Prof. Daniel. H. H. Ingals, Cambridge.
Cambridge Mass,
_June 5, 1954. I have received the beautiful Nirnaya Sagar edition of the Suttīgame. I express my deep thanks to Muni Shri Fulchandji Maharaj for generosity. It would be merit enough to print so large a portion of the religious writings of the Jains in one convenient volume. It really deserves the thanks of all scholars.
The voluine is not only an ornament of my library but is frequently put to use.