Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 6
________________ दो शब्द आदरणीय पाटनीजी द्वारा लिखित 'सुखी होने का उपाय' नामक इस कृति की विषय-वस्तु तीन भागों में विभाजित है। प्रथम भाग में पर से भिन्न भगवान आत्मा की चर्चा है, दूसरे भाग में पर्याय से भिन्न गुणभेद से भिन्न भगवान आत्मा की चर्चा होगी और तीसरे भाग में पर, पर्याय और गुणभेद से भिन्न निज भगवान आत्मा की पहिचान एवं यथार्थ निर्णय करने की बात होगी। भेद विज्ञान मूलक इस कृति के प्रथम भाग में समस्त पर पदार्थों से हटाकर प्रमाण के विषयभूत गुण पर्यायात्मक निजद्रव्य में लाकर स्थापित करने का प्रयास है; दूसरे भाग में अपनी आत्मा में ही उत्पन्न विकारी-अविकारी पर्यायों एवं अनन्त गुणों के विकल्पों से पार त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा तक पहुँचाने का प्रयास होगा। तीसरे भाग में इस विकल्पात्मक सम्यक निर्णय की यथार्थता कैसे हो? - यह बताने का प्रयास किया जायेगा। यह तो सर्वविदित ही है कि पाटनीजी ने आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी का समागम पूरी श्रद्धा और लगन के साथ लगातार ४० वर्ष तक किया है। वे भाषा के पण्डित भले ही न हों, पर जैन तत्त्वज्ञान का मूल रहस्य उनकी पकड़ में पूरी तरह है। स्वामीजी द्वारा प्रदत्त तत्त्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने के काम में वे विगत तीस-पैंतीस वर्षों से नींव का पत्थर बनकर लगे हुए हैं; विगत २२ वर्षों से मेरा भी उनसे प्रतिदिन का घनिष्ठ सम्पर्क है। अतः उनकी अन्तर्भावना को मैं भलीभांति पहचानता हूँ। ___ अभिनन्दनपत्र भी न लेने की प्रतिज्ञाबद्ध श्री पाटनीजी ने यह कृति लेखक बनने की भावना से नहीं लिखी; अपितु अपने उपयोग की शुद्धि के लिए ही उनका यह प्रयास है; उनके इस प्रयास से समाज को सहज ही सम्यक दिशाबोधक यह कृति प्राप्त हो गई है। यह तो मात्र प्रथम भाग है, ... उनके भाव आप सब तक उनकी ही भाषा में हूबहू पहुँचें - इस भावना से उनमें कुछ भी करना उचित नहीं समझा गया। अत: विद्वज्जन भाषा पर न जावें, अपितु उनके गहरे अनुभव का पूरा-पूरा लाभ उठावें-ऐसा मेरा विनम्र अनुरोध अपने अनुभवों को लिपिबद्ध करने का अनुरोध मैं उनसे समय-समय पर करता रहा हूँ, तथापि उन्होंने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया; वे तो आचार्यों के मूल ग्रंथों,स्वामीजी के प्रवचनों और उनके आधार पर तैयार की गई विद्वानों की कृतियों के प्रकाशन और प्रचार-प्रसार में ही लगे रहे; अब जब शरीर शिथिल हो रहा है और दौड़-धूप सहज ही कम होती जा रही है; तब अपनी उपयोग की शुद्धि के लिए उनका ध्यान इस ओर गया है। हम उनके स्वस्थ एवं मंगल जीवन की कामना करते हैं कि जिससे उनकी सेवाओं और कृतियों का अधिकाधिक लाभ मुमुक्षु समाज को प्राप्त हो सके। __ - डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल (IV) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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