Book Title: Stutividya
Author(s): Samantbhadracharya, 
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 135
________________ १२ समन्तभद्र-भारती है कि परस्पर विरोधी ऋतुएं आपके माहात्म्यसे एक स्थानमें एक साथ प्रकट हो जाती हैं वह उचित ही है। इनके सिवाय कुछ और अतिशय-चमत्कार भी जिनभक्ता देवताओंके द्वारा प्रकट किये जाते हैं जो ये हैं-अर्धमागधी भाषा, दिशाओं का निर्मल होना, आकाशका निर्मल होना, चलने समय भगवान्के चरणकमलोंके नीचे सुवर्ण-कमलोंकी रचना होना, आकाशमें जय-जय ध्वनि होना, मन्द-सुगन्धितफ्वनका चलना, सुगन्धमय जलको वृष्टि होना, पृथिवीका कंटक-रहित होना, समस्त जीवोंका आनन्दमय होना, भगवान्के आगे धर्म चक्रका चलना और छत्र चमर आदि मंगल द्रव्योंका साथ रहना । श्लोकमें जो 'च' शब्द है उसको अवधारणार्थक माननेसे यह अर्थ ध्वनित होता है कि ऐसा माहात्म्य आपका ही है अतः सर्वतो महान् आप ही-आप जैसे ही-हैं अन्य नहीं ।।७३।। (मुरजबन्धः ) तावदास्व त्वमारूढो भूरिभूतिपरंपरः । केवलं स्वयमारूढो हरि ति निरम्बरः ॥७४॥ तावदिति-तावत् तदः वत्वं तस्य कृतात्वस्य रूपम् । आस्व तिष्ठ । पास उपवेशने इत्यस्य धोर्लोडन्तस्य प्रयोगः । तावदास्वेति किमुक्तं भवति तिष्ठ तावत् त्वं युष्मदो रूपम् । प्रारूढः प्रख्यातः । भूरिभूतिपरंपरः भूरयश्च ताभूतयश्च भूरिभूतयः तासां परंपरा यस्यासी भूरिभूतिपरंपरः बहुविभूतिनिवास इत्यर्थः । केवल किन्तु इत्यर्थः । स्वयमारूढः स्वेनाध्यासितः । हरिः सिंहः । भाति शोभते। निरम्बरः वस्त्ररहितः । किमुक्तं भवति- हे भट्टारक त्वं तावदास्त्र भूरिभूतिपरंपरः निरम्बर इति कृत्वा यस्त्वारूढः ख्यातः सः किन्तु त्वयारूढः हरिरपि भाति त्वं पुनः शोभसे किमत्र चित्रम् ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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