Book Title: Stutividya
Author(s): Samantbhadracharya, 
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 148
________________ rrrrrrrrrrrow स्तुतिविद्या .१०५ पापोंके नाश करनेवाले हैं। ज्ञानादिगुणोंसे वृद्ध हैं। क्षय-रहित हैं। हे भगवन् ! आपकी ज्ञमा अपार और अविनाशो है। इस लिये आप मुझ वृद्धको भी प्रसन्न कीजिये, सुशोभित कीजिये तथा पालित कीजिये। ___ भावार्थ-यहां आचार्यने भगवान् कुथुनाथसे तीन बातोंकी प्रार्थना की है कि आप मुझ वृद्धको प्रसन्न कीजिये-सुशोभित कीजिये और पालित कीजिये । उक्त तीन बातोंको पूर्ण करनेकी सामर्थ्य बतलानेके लिये उन्होंने उसके अनुकूल ही विशेषण दिये हैं। यथा हे भागवन् ! आपकी दिव्यध्वनि समुद्रकी ध्वनिके समान अत्यन्त सारगर्भित होती थी, जिसे सुनकर समस्त प्राणी आनन्द लाभ करते थे अतः आप मुझे मी अपनी दिव्यध्वनिसे प्रसन्न कीजिये । हे भगवान आप सब पदार्थों को जाननेवाले हैं-आपकी आत्मा ज्ञानगुणसे अत्यन्त सुशोभित है अतः आप मुझे भी सुशोभित कीजिये-ज्ञानगुणसे अलंकृत कीजिये। हे भगवन् ! आप वामों-दुष्टों अथवा पापोंको उखाड़कर नष्ट करनेवाले हैं-साधुपुरुषोंके रक्षक है- अतः मेरी भी रक्षा कीजिये -मुझे भी इन दुष्ट पापकर्मोंसे बचाइये ! आप मेरे अपराधोंपर दृष्टिपात न कीनिये; क्योंकि आपकी क्षमा अपार है अथवा आपमें उक्त बातोंको पूर्णकरनेकी अपरिमित सामर्थ्य है। यहां आचार्य ने अपने लिये 'ऋद्ध' विशेषण दिया है जिसका अर्थ संस्कृत टीकाकारने वृद्ध किया है, इससे मालूम होता है कि यह रचना आचार्य समन्तभद्रके वृद्धजीवन की है ॥२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204