Book Title: Stutividya
Author(s): Samantbhadracharya, 
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 157
________________ ११४ समन्तभद्र-भारता रूपी तेज अजय है - इन्हें कोई नहीं जीत सकता। आप अत्यन श्रेष्ठ हैं, आपने छद्मस्थ अवस्था में - केवलज्ञान प्राप्त होने पहले अनेक व्रतोंको धारण किया था, आप चय-रहित अनेक आश्चर्य सहित हैं — ऋद्धियों और प्रातिहायों से युक्त हैंआपके समस्त पाप नष्ट हो गये हैं, आप जिनेन्द्र हैं तथा सब स्वामी हैं । हे मुनिसुव्रत भगवन् ! हमारी भी सांसारिक ग्ला और पापपरिणतिको नष्ट कर दीजिये । यहां क्रियादिका सम्बन्ध पूर्व श्लोकके साथ है "२ ! , नमि-जिन स्तुतिः ( गतप्रत्यागतपादयमकाक्षरद्वय विरचितसन्निवेशविशेषसमुद्गतानुलोमप्रतिलोमश्लोकयुगलश्लोकः ) नमेमान नमामेन मानमाननमानमा' - मनामोनु नुमोनामनमनोमम नो मन ॥९३॥ नमेति - गतप्रत्यागतपादयमको नकारमकाराक्षरद्वयविरचितश्लो : द्वयं श्लोकयुगलमित्यर्थः । श्रन्यद्विशेवणं मुखशोभनार्थम् । - हे नमे एक विशतीर्थंकर । श्रमान अपरिमेय । नमाम प्रणमा त्वमित्यध्याहार्यमर्थ सामर्थ्याद्वा लभ्यम् । इनं स्वामिनम् । आता प्राणिनां माननं प्रबोधकं मानं विज्ञानं यस्यासौ श्राममाननमान: अनमाननमानं भव्यप्राणिप्रबोध कविज्ञानमित्यर्थः । श्रान इति न स्व प्राणने इत्यस्य धोः घञन्तस्य रूपम् । माननमिति मन ज्ञाने इत्या धोः गिना युडन्तस्य रूपम् । श्रामनामः श्रा समन्तात् 'चिन्तयामः । म अभ्यासे इत्यस्य धोः लडन्तस्य रूपम् । अनु पश्चात् नुमः वन्दा महे १ अनमामः इति पदच्छेदः । अत्र द्वितीयपादस्य तृतीयपादेन । सन्धिसम्बन्धः पश्च प्रायोऽन्यात्राऽप्रसिद्धः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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