Book Title: Stutividya
Author(s): Samantbhadracharya, 
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 176
________________ स्तुतिविद्या १३३ उनका संसार-सम्बन्धी प्रचुरभय आपकी दिव्यध्वनिके माहाम्यसे नष्ट होजाता है। आप ज्ञानादिगुणोंसे हमेशा बढ़ते ही रहते हो, अपका गुणरूपी समुद्र बड़ा सुन्दर है । आप संसारी जीवोंकी मुक्तिके कारण हो, कल्याणरूप हो । समस्तदेव आपके बंदी हैं-चारण हैं-सदा ही आपका गुणगान किया करते हैं। आप मनोवांछित वरोंको देनेवाले हो । श्रेष्ठज्ञानी हो, बड़े बड़े. चतुर मनुष्य आपका स्तवन किया करते हैं, आप सर्वोत्कृष्ट हो, संसारपरिभ्रमणको नष्ट करनेवाले हो, पूज्य हो, वन्दनीय हो और पञ्च-परावर्तनरूप संसारसे रहित हो। हे प्रभो ! भक्तिसे प्रणत होता हुआ मैं भी आपको नमस्कार करता हूँ ॥११०॥ (इष्टपादवलयप्रथमचतुर्थसप्तमवलयैकाक्षरचक्रवृत्तम्') नष्टाज्ञान मलोन शासनगुरो नम्रजनं पानिन नष्टग्लान सुमान पावन रिपूनप्यालुनन् भासन । नत्येकेन रुजोन सज्जनपते नन्दन्ननन्तावन नन्दन हानविहीनधामनयनो नःस्तात्पुनन् सज्जिन ॥११॥ नेष्टति-नष्ट विनष्ठ प्रज्ञानं यस्यासौ नष्टाज्ञान: तस्य सम्बोधन हे नष्टाज्ञान । मलेन कर्मणा उनः रहितः मलोनः तस्य सम्बोधनं हे मलोन । शासनस्य दर्शनस्य प्राज्ञाया वा गुरुः स्वामी शासनगुरुः तस्य सम्बोधनं हे शास नगुरो । ननं नमनशीलम् । जनं भव्यलोकम् । पान् रक्षन् । इन स्वामिन् । नष्टं विनष्ठ ग्लानं मूच्छादिकं यस्यासौ नष्टग्लान: तस्य सम्बोधनं हे नष्टग्लान । योभनं मानं विज्ञानं यास्यासौ सुमानः तस्य सम्बोधनं हे सुमान | पावन पवित्र । रिपूनपि अन्तः शत्र नयालुनन् पा समन्तात् खण्डयन् । भासन शोभन । नतीनां प्रणतीना एक इष्टः पादो वलयरूपो भवतीत्यर्थः । इसमें मनोनीत पाद पलक में लिखा जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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