Book Title: Stutividya
Author(s): Samantbhadracharya, 
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 185
________________ १४२ समन्तभद्र-भारती विशेषणमेतत् । रुजा रोगः न विद्यते रुजा यस्मिन् तत् अरुजम् । तिष्ठेतू अास्येत । जनः भव्यलोकः । स्वालये शोभनस्थाने । ये यदो जसन्तस्य रूपम् । भोगः सुखांगं सन् शोभनो भोगः सद्भोगः सद् भोग एव सद्भोगकः तं सद्भोगकं ददत. इति सद्भोगकदाः शोभनभोगदातारः इत्यर्थः। अतीव अत्यर्थम् । यजते पूजकाय यज देवपूजा. संगतिकरणदानेषु इत्यस्य धोः शत्रन्तस्य रूपम् । ते तदो जसन्तस्य रूपं परोक्षवाचि । मे मम | जिनाः श्रीमदहन्तः । शोभना श्रीः सुश्री: तस्यै सुश्रिये । भवन्त्वित्यध्याहार्यम् । किमुक्तं भवति–एवंगुणविशिष्टाः जिनाः ते मे भवन्तु सुश्रिये मोक्षायेत्यर्थः ॥११६॥ अर्थ-जो इस समय परम पूज्य और विनाशरहित मोक्षस्थानको पाकर परमऐश्वर्यका अनुभव कररहे है, जिनको नमस्कार करने मात्रसे पूर्ण-अनन्त सुख प्राप्त हो जाता है, जिनकी भक्तिसे यह जीव अधिक शान्तिको पाकर सम्यग्दर्शन सम्य. रज्ञान और सम्यक्चरित्ररूप मार्गके द्वारा स्वालय में-उत्तम आलय अथवा आत्मआलयमोक्ष-मन्दिरमें जाकर निवास करता है और इसके बड़ेसे बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं तथा सब रोग दूर हो जाते हैं। और जो अपने पूजकों-भक्तोंके लिये उत्तम भोग प्रदान करते हैं वे देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् मेरे-समन्तभद्र के-लिये भी मोक्षरूप लक्ष्मी प्रदान करें। अर्थात् मेरी मुक्तिश्रीकी प्राप्तिमें प्रधान सहायक बनें। इति कवि गमकि-वादि-वाग्मित्व-गुणालंकृवस्य श्रीसमन्तभद्रस्य कृतिरिय स्तुतिविद्या जिनशतालङ्कारापरनाम समाप्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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