Book Title: Stutividya
Author(s): Samantbhadracharya, 
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 169
________________ १२६ समन्तभद्र- भारती लोक्यं गोष्पदायते तथापि न हर्षो नापि विषादो यतः त्वमेव सर्वज्ञो वीतरागश्च अतः तुभ्यं नमोस्तु इति सम्बन्धः ॥ १०५ ॥ अर्थ - हे भगवन् ! ये संसारके प्राणी अपनी तुच्छ बुद्धिके अनुसार थोड़ेसे पदार्थों को सत्यरूप जान कर अपने आपको पृथिवीका ज्ञाता मान बैठते हैं परन्तु चौदह राजु प्रमाण तीन लोक आपके ज्ञानके अन्तर्गत प्रतिबिम्बित - होकर गोष्पद केगाय के खुरके - समान मालूम होते हैं । भावार्थ - यहां संसारी प्राणी तथा भगवान् महावीरके बीच व्यतिरेक बतलाया गया है - संसारी प्राणी अपने क्षयोपशमके अनुसार थोड़े से पदार्थोंको जानकर अपने आपको बहुज्ञानी समझ कर हर्ष या मद करने लग जाते हैं परन्तु भगवान् महा वीरका ज्ञान इतना विशाल है कि उसमें तीनों लोक गायके खुर के समान अत्यन्त तुच्छ मालूम होते हैं। उनका केवलज्ञान यदि समुद्र है तो उसके सामने ये तीनों लोक गोष्पद हैंअत्यन्त अल्प हैं । इतने महान ज्ञानी होनेपर भी उन्हें कुछ भी हर्ष याविषाद नहीं होता अतः वे सर्वथा पूज्य है ॥ १०५॥ ( श्लोकयमकः ) - 1 को विदो भवतोपीड्यः सुरानतनुतान्तरम् । शं सते साध्वसंसारं स्वमुद्यच्छन्नपीडितम् ॥१०६॥ कोवीति - कः किमोरूपम् । विदो ज्ञानानि । भवतः स्वत्तः । अपि । ईट् स्वामी । यः यदोरूपम् । सुरान् श्रमरान् । श्रपि शब्दोऽत्र सम्बन्धनीयः सुरानपीति । श्रतनुत विस्तारयतिस्म । अन्तः चित्ते भवं श्रान्तरं श्रात्मोत्थम् । शं सुखम्, सते शोभनाय । साधु शोभनं । श्रसं सारं सांसारिकं न भवति । सुष्ठु श्रमुत् स्वमुत् विनष्टराग इत्यर्थः । यच्छन् ददत् । श्रपीडितं अबाधितम् । समुदायार्थ :- हे वर्धमान भवतो नाम्यः ईट् यः सुरानपि विदः श्रतनुत सुखं श्रान्तरं साधु संसारं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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