Book Title: Stutividya
Author(s): Samantbhadracharya, 
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 163
________________ सान्तमा मारतो अमेय रुगुरो वर्ष कामेश यमेश उपसता नुत मार्यवरस्त्वं गुरु भी अनुतात् || अर्थ-हे भगवन् ! आपका यश अत्यन्त निर्मल है, ना अल्पज्ञानियों के ज्ञानके अगोचर है-अल्पज्ञानी आपके वास विक रूपको नहीं समझ पाते, आप आर्य पुरुषों में अत्यन्त श्री हैं, इन्द्र अहमिन्द्र आदि प्रधानजनोंके भी स्वामी हैं, व्रतियों मुनियोंके नाथ हैं और बड़े-बड़े उत्कृष्ट पंडितजन भी आप स्तुति करते हैं। हे प्रभो ! मुझे वह सर्वोत्कृष्ट मोक्षरूप सुख । प्रदान कीजिये जिसके पाप नायक हैं-अन्य वैषयिक सुखर मुझे इच्छा नहींहै ॥ . पार्श्व-जिन-स्तुतिः (मुरजबन्धः) जयतस्तव पार्श्वस्य श्रीमद्भतु : पदद्वयम् । क्षयं दुस्तरपापस्य क्षमं कर्तुं ददज्जयम् ॥१९॥ जयति-जयतः जयं कुर्वतः । तव ते । पार्श्वस्य त्रयोविंशतिती करस्व । श्रीमत् लक्ष्मीमत् । भतु महारकस्य स्वामिनः । पदद्वयंपदा सम् । पयं विनाशम् । दुस्तरपापस्य अतिगहनपापस्य । पमं समर्थन कर्तु" विधातुम् । ददज्जयं विधदद्विजयम् । समुदायार्थ:-जयत पार्वस्य भतु : पदद्ववं श्रीमत् ददत् जयं दुस्तरपापस्य चयं कर्तुं चन उचर श्लोकेन सम्बन्धः ॥३॥ - अर्थ-हे प्रभो पार्श्वनाथ ! आप कर्मरूप शत्रुओंको जीत वाले हैं,सबके स्वामी है, आपके चरणकमल अत्यन्त शोभावमा हैं, सर्वत्र विजयके देनेवाले हैं और कठिनसे कठिन पायो। Halomyutups Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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