Book Title: Stutividya
Author(s): Samantbhadracharya, 
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 166
________________ स्तुतिविद्या १२३ मत्सु मध्ये सुवन्धमान्याय । विदः बोधस्य तृट् तृष्णा वित्तृट, कामं प्रत्यय, उदामिता उदारिता निराकृता वित्तट ज्ञानतृष्णा येनासौ कामोद्वामितवित्तृट् तस्मै कामोद्वामितवित्तुषे । श्रीमते लक्ष्मीमते । वर्धमानाय महावीराय चतुर्विंशतितीर्थकराय । नमः । अयं शब्दो मिन्मंजकः पूजा-वचनः । नमिताः विद्विषो यस्यासौ नमितविद्विट् तस्मै नमित. विद्विषे अधःकृतवैरिणे । समुदायार्थः-नमोस्तु ते वर्धमानाय किं विशिटाय धीमत्सुवन्द्यमान्याय कामोद्वामितवित्तषे श्रीमते नमितविद्विषे ॥१०२।। ___ अर्थ-हे वर्धमान स्वामिन् ! आप अत्यन्त बुद्धिमानों-चार ज्ञानके धारी गणधरादिकोंके द्वारा वन्दनीय और पूज्य है । आपने ज्ञानकी तृष्णाको बिल्कुल नष्ट कर दिया है-आपको सर्वोस्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त होगया है जिससे आपकी ज्ञान-विषयक समस्त तृष्णाएं नष्ट हो चुकी हैं, आप अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग लक्ष्मीसे युक्त हैं और आपके शत्रु भी आपको नमस्कार करते हैंआपकी अलौकिक शान्ति तथा लोकोत्तर प्रभावको देखकर आपके विरोधी वैरी भी प्रापको नमस्कार करने लग जाते हैं। अतः हे प्रभो! आपको मेरा नमस्कार हो ॥१०२॥ (मुरजबन्धः) वामदेव क्षमाजेय धामोद्यमितविज्जुषे । श्रीमते वर्धमानाय नमोन मितविद्विषे ॥ १०३॥ वामदेवेति-नमोवर्धमानायेति सम्बन्धः। वामानां प्रधानानां देवः तस्य सम्बोधनं हे नामदेव । क्षमा अजेया यस्यासौ क्षमाजेयः तस्व सम्बोधनं हे क्षमाजेय | धाम्ना तेजसा उद्यमिता कृतोत्कृष्टा वित् विज्ञावं घामोद्यमितावित तां जुष्टे सेवते इति धामोयमितविज्जुट् तस्मै धामोबमितविज्थे । अथवा अजेयं धाम तेजो यस्याः सा प्रजेयधामा, उबमिता उता वित् झानं उद्यमितवित्, प्रजेवधामा चासो उपमिवविच्छ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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