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लेन-देन और जमा-पूँजी
एक मेहनती बढ़ई था। वह काफी पैसे कमाता था, किंतु उसका खान-पान सादा था। न उसे बढ़िया कपड़े चाहिए थे, न तरह-तरह का खाना । उसे फिजूल खर्च की भी आदत नहीं थी। एक दिन उसके पड़ोसी ने उससे पूछा, "मित्र ! हर हफ्ते तुम इतने ज्यादा पैसे कमाते हो, आखिर इन पैसों का करते क्या हो ?"
''कुछ रुपयों से मैं अपना लेन-देन चुकाता हूँ, कुछ को मैं जमा कर देता हूँ।"
“छोड़ो भी।" पड़ोसी ने कहा, 'मजाक मत करो । मैं अच्छी तरह जानता हूँ, न तुम्हें कोई लेन-देन चुकता करना होता है, न तुमने कुछ जमा ही कर रखा है। जिसका तुम्हारे पास ब्याज आता हो।"
"समझो !'' बढ़ई बोला, "जन्म से अब तक जो माँ-बाप ने मुझ पर खर्च किया है वह मेरा लेन-देन है। मुझे भरना पड़ता है। जो रुपए मैं अपने बच्चों को उनका भविष्य बनाने के लिए खर्च करता हूँ वही मेरी जमापूँजी है। आगे चलकर वह मुझे ब्याज के रूप में तब वापस मिलेगी जब मैं बूढा हो जाऊँगा। जैसे मैं अपने पालन-पोषण की एवज में इस वृद्धावस्था में माँ-बाप का खयाल रखता है, मेरे बच्चे भी देखा-देखी यही करेंगे; क्योंकि तब मैं कमाने लायक नहीं रहूँगा।"
उतनी ही ज्यादा मिलती है। भलाई जितनी ज्यादा की जाती है।
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