Book Title: Story Story
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: K P Sanghvi Group

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Page 130
________________ ईश्वर की खोज में लोग कहाँ नहीं भटकते? एक बार परम ज्ञानी रघुनाथ परचुरे शास्त्री हिमालय की छांव में बनी एक कुटिया में महायोगी आचार्य सत्यव्रत से मिले। उस महायोगी ने उनका परिचय पूछा तो उन्होंने कहा - "आचार्य जी, मेरा नाम हैं महामहोपाध्याय महापंडित रघुनाथ परचुरे शास्त्री विद्यावाचस्पति विद्यावारिधि ।' महायोगी हँस पड़े और कहा, "वत्स, ज्ञान मनुष्य को निर्भार बना देता है परन्तु लगता है उसने तुम्हें लद्दू बना दिया है।'' उन्होंने उनकी उपाधियों और पुस्तकों के भार की ओर संकेत किया था परन्तु वे उसे न समझते हए बोले, "आचार्य जी, मैं प्रभू की खोज में निकला हूँ। परमात्मा को पाने के लिए क्या करूँ ?' महायोगी ने कहा, "तुम जो भार ढो रहे हो उसे सर्वप्रथम उतार फेंको। फिर कभी उसे हाथ न लगाना। क्या तुम प्रेम से परिचित हो? क्या तुम्हारे चरण प्रेम के पथ पर चलते हैं। प्रेम को पाओ। हृदय को टटोलो। वह दिव्य मंदिर है। उसमें प्रभु का निवास है। उसका दर्शन करो। इसके बाद आना। फिर मैं तुम्हें परमात्मा तक ले जाने का आश्वासन दूंगा।" रघुनाथ शास्त्री इन बातों से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपने ज्ञान की गठरी वहीं छोड़ दी और लौट गए। कई वर्ष बीत गए। महायोगी उनकी खोज में निकले। एक दिन एक गाँव में उनसे भेंट हुई। वे एक कुष्ठ रोगी की सेवा कर रहे थे। महायोगी ने उनसे पूछा, "आप आए नहीं। क्या तुम्हें परमात्मा से नहीं मिलना ?" उन्हें उत्तर मिला, “बिल्कुल नहीं, जिस क्षण मैंने प्रेम पाया उसी क्षण से मैं सभी प्राणियों में उसे ही निहार रहा हूँ - सच है प्रेम ही ईश्वर है।" Jain Education Internal For Piva a seen www.jainelibrary.org ON

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