Book Title: Sruta Sarita
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

View full book text
Previous | Next

Page 235
________________ ŚRUTA-SARITĀ कर्मविहीन बनने का मार्ग है । तदनुसार सर्व जीव समान हैं— मतलब कि किसी को दुःख पसंद नहीं, किसी को मृत्यु पसंद नहीं, सबको सुख अच्छा लगता है, जीना अच्छा लगता है, इसलिए ऐसा कुछ भी न करो जिससे दूसरों को दुःख पहुँचे । यह सामायिक और उसका सर्वप्रथम उपदेश भगवान् महावीर ने ही दिया है। ऐसा स्पष्टीकरण सूत्रकृतांग में है । ऐसी सामायिक के लिए सर्वस्व का त्याग करने पर ही हम दूसरों के दुःख के निमित्त नहीं बनेंगे, अर्थात् घर-संसार से विरक्त होकर भिक्षार्थी जीवन यापन करो, ऐसा कहा गया है। घर-संसार बसाया हो तो अनेक प्रकार के कर्म करने पड़ते हैं जो अन्य को दुःखदायक है । इसलिए अगर दूसरों के दुःख का निमित्त न बनना हो तो संसार से विरक्त हो जाना ही सच्चा मार्ग है । भिक्षाजीवी बनने की भी यह मर्यादा है कि जो कुछ अपने निमित्त से बनाया गया हो उसका स्वीकार कदापि नहीं करना, कारण कि इसमें वह खुद भले ही हिंसा न करता हो परन्तु परोक्षरूप से अन्य द्वारा वह हिंसा कराता है । परिणामस्वरूप आहार आदि आवश्यकताओं पर मर्यादा लानी पडती है और तपस्वी बनना पड़ता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म में तपस्या का महत्त्व स्थापित हुआ । 226 वैदिकों में भिक्षाजीवियों के लिए ऐसी कोई मर्यादा नहीं है । बौद्धों में भी नहीं है और अन्य श्रमण संप्रदाय में भी नहीं है । इसी लिए जैन साहित्य में अनशन आदि तपस्या को विशेष महत्त्व दिया गया है । तपस्या तो पहले भी होती थी । परन्तु वह दूसरे प्रकार की थी अर्थात् उस तपस्या में दूसरे जीवों के दुःख का विचार नहीं था; जैसे कि पंचाग्नि तपस्या । इसमें अपने शरीर को कष्ट मिलता है, इसमें संदेह नहीं, परंतु अन्य कीट-पतंगों आदि को भी कष्ट मिलता है इस पर जरा भी ध्यान उसमें नहीं दिया गया । अग्नि आदि में जीव है इसका विचार भी जैन साहित्य के पूर्व हुआ ही नहीं है । इसीलिए 'आचारांग' में सर्वप्रथम षड्जीव निकाय के स्वरूप को बताया गया जिससे जिसे अहिंसक बनना हो, परदुःखदायक न बनना हो उसे यह तो जानना ही चाहिए कि जीव कहाँ और कैसे हैं । इसे जाने बगैर अन्य जीवों के कष्टों का ख्याल ही नहीं आएगा । उसे जानने के बाद ही मनुष्य अहिंसक बन सकता है । इस प्रकार तपस्या का रूप ही बदल गया, जिसका प्रारम्भ जैन साहित्य में ही उपलब्ध हो सकता है । पुनः, इस तपस्या का उद्देश्य किसी शक्ति को प्राप्त कर दूसरों की भलाई - बुराई करना यह नहीं है, परन्तु एकमात्र आत्मविशुद्धि करना ही उसका ध्येय है । संगृहीत कर्मों का क्षय करने में ही इसे उपयोग में लिया जाता है, जिससे शीघ्र ही कर्म विहीन बना जा सके । धार्मिक सदाचार की एक विशेषता यह भी है कि धार्मिक अनुष्ठान व्यक्तिगत वस्तु है, सामूहिक नहीं । जो भी यज्ञ होते थे वे पुरोहित के आश्रय या सहायता बिना सम्पन्न नहीं होते थे । परंतु जैन धर्म में कोई भी धार्मिक अनुष्ठान हो वह व्यक्तिगत ही होगा, सामूहिक नहीं; भले ही हम जीव समूह में रहते हों । एक जगह इकट्ठा होकर धार्मिक अनुष्ठान करते हों परन्तु वह अनुष्ठान तो व्यक्तिगत ही होना चाहिए । ऐसी प्रारम्भिक मान्यता जैन धर्म की थी । जीव खुद ही अपना मार्गदर्शक है और मार्ग का पथिक भी वह खुद ही है । दूसरा प्रेरक हो ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310