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ŚRUTA - SARITA
में दिखाया जाता है । इस प्रकार सद्गुण की प्रतिष्ठा और असद्गुणों का निराकरण — इस ध्येय को स्वीकारते हुए मध्य काल से आज तक जैन आचार्यों ने भारतीय साहित्य में असंख्य कथा साहित्य प्रदान किया है । इस समग्र साहित्य के विवरण का यहाँ स्थान नहीं, मात्र उसका सार क्या है यही जानना हमारे लिए बहुत है ।
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जैन आचार का आधार अगर सामायिक है, तो जैन विचार अथवा दर्शन का आधार नयवाद से निष्पन्न अनेकांतवाद है । जीवों के प्रति समभाव अगर आचार में सामायिक हो तो विभिन्न विचारों के प्रति आदर की भावना हो ऐसा नयवाद अनिवार्य है । अर्थात् विचार में समभाव को जैन दर्शन का आधार स्तम्भ मानें तो उचित ही कहा जाएगा। अतएव जो प्राचीनतम नहीं ऐसे आगम में जिनका प्रवेश कालक्षम सें हुआ ऐसे द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयों का प्रवेश यह वैचारिक समभाव की महत्ता को समझाने की दृष्टि से ही हुआ होगा ऐसा ही मानना उचित है । ऐसा क्यों माना जाय इसकी थोड़ी चर्चा जरूरी है, अतः यहाँ इसकी चर्चा की जाय तो उचित ही होगा । कारण, भारतीय दर्शनों में विवाद नहीं परन्तु संवाद लाने का जो महान प्रयत्न जैन दार्शनिकों ने किया है वह अभूतपूर्व है इसमें संदेह नहीं ।
जैन दर्शन या दार्शनिक साहित्य का वास्तविक निर्माण कब हुआ ? तो उसका उत्तर यह है कि आचार्य उमास्वाति के 'तत्त्वार्थसूत्र' से । इसके पूर्व अन्य भारतीय दर्शनों के विचारों की व्यवस्था हो चुकी थी । उसका समर्थन भी हो रहा था और वह आज तक चल भी रहा है । उचित समर्थन के साथ जबतक दो विरोधी मत उपस्थित न हो, तब तक नयवाद को अवकाश ही नहीं है । तत्त्वार्थसूत्रगत जैन तत्त्वों की व्यवस्था का समर्थन करना जरूरी था और उसके समर्थन में से ही नयवाद का उदय हुआ जिसके परिणामस्वरूप जैनों का अनेकांतवाद दार्शनिक क्षेत्र में प्रचलित हुआ । आचार्य सिद्धसेन ने भारतीय विविध दार्शनिक मंतव्यों का विभाजन 'सन्मतितर्क' में विविध नयों करके अनेकांतवाद का मार्ग सुगम बना दिया । अतएव आचार्य मल्लवादी ने उसके विस्ताररूप में 'नयचक्र' की रचना करके यह दिखाने का प्रयत्न किया कि भारतीय दर्शनों में एक-अनेक आदि, अथवा सत्कार्य आदि या पुरुष नियतिवाद आदि या ध्रुव-अध्रुव आदि, या वाच्य - अवाच्य आदि, जो जो विविध मंतव्य हैं, वे एक ही वस्तु को विविध दृष्टि से देखने के मार्ग हैं । वे संपूर्ण सत्य नहीं परन्तु आंशिक आपेक्षिक सत्य हैं । उन सभी परस्पर के विरोधी वादों में अपनी दृष्टि को ही सच मानने से और विरोधियों की दृष्टि को मिथ्या मानने से विरोध दिखाई देगा । परन्तु उन सभी दृष्टियों की वादों को स्वीकार करें तभी वस्तु के संपूर्ण सत्य दर्शन के प्रति प्रगति हो सकती है । ऐसा सिद्ध करने के लिए उन्होंने उन सभी वादों की स्थापना और अन्य द्वारा उत्थापना बतलाई । सभी वादों ने अपने आपको प्रबल और दूसरों को निर्बल दिखलाने का प्रयत्न किया है और इसीलिए उन सभी वादीप्रतिवादिओं को अपनी ही नहीं परन्तु अन्य की दृष्टि का भी स्वीकार करना अनिवार्य है ऐसा सिद्ध करने का प्रयत्न नयचक्र ने किया है और इस प्रकार नयवादों से निष्पन्न अनेकांतवाद वस्तु का समग्र भाव से यथार्थ दर्शन कराने में समर्थ है ऐसा सिद्ध किया है ।
मल्लवादी द्वारा स्थापित इस जैन दार्शनिक निष्ठा के आधार पर समग्र जैन दार्शनिक
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