Book Title: Sruta Sarita
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 299
________________ SRUTA-SARITĀ व्यवहारनय के एक भेदरूप से प्रथम आरे में अज्ञानवाद का उत्थान है । इस अज्ञानवाद का यह भी अर्थ है कि पृथ्वी आदि सभी वस्तुएं अज्ञानप्रतिबद्ध हैं । जो अज्ञान विरोधी ज्ञान है वह भी अवबोधरूप होने संशयादि के समान ही है अर्थात् उसका भी अज्ञान से वैशिष्ट्य सिद्ध नहीं है । 290 इस मत के पुरस्कर्ता के वचन को उद्धृत गया है कि "को ह्येतद् वेद ? किं वा एतेन ज्ञातेन ?" यह वचन प्रसिद्ध नासदीय सूक्त के आधार पर है । जिस में कहा गया है- "को अद्धा वेद क इह प्रवोचन् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि: ।... यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥६-७||" टीकाकार सिंहगणि ने इसी मत के समर्थन में वाक्यपदीय की कारिका उद्धृत की है जिस के अनुसार भर्तृहरि का कहना है कि अनुमान से किसी भी वस्तुका अंतिम निर्णय हो नहीं सकता है। जैन ग्रन्थों में दर्शनों को अज्ञानवाद, क्रियावाद, अक्रियावाद और विनयवादों में जो विभक्त किया गया है उसमें से यह प्रथम वाद है यह टीकाकार ने स्पष्ट किया है । तथा आगम के कौन से वाक्य से यह मत संबद्ध है यह दिखाने के लिए आचार्य मल्लवादी ने प्रमाणरूप से भगवती का निम्न वाक्य उद्धृत किया है- "आता भंते णाणे अण्णाणे३ गोतमा, णाणे नियमा आता, आता पुण सिया णाणे, सिया अण्णाणे" भगवती १२. ३. ४६७ ॥ इस नय का तात्पर्य यह है कि जब वस्तुतत्त्व पुरुष के द्वारा जान ही नहीं जा सकता, तब अपौरुषेय शास्त्र का आश्रय तत्त्वज्ञान के लिए नहीं किन्तु क्रिया के लिए करना चाहिए । इस प्रकार इस अज्ञानवाद को वैदिक कर्मकाण्डी मीमांसक मत के रूप में फलित किया गया है । मीमांसक सर्वशास्त्र का या वेद का तात्पर्य क्रियोपदेश में मानता है । सारांश यह है कि शास्त्र का प्रयोजन यह बताने का है कि यदि आप की कामना अमुक अर्थ प्राप्त करने की है तो उसका साधन अमुक क्रिया है । अतएव शास्त्र क्रिया का उपदेश करता है । जिस के अनुष्ठान से आप की फलेच्छा पूर्ण हो सकती है । यह मीमांसक मत विधिवाद के नाम प्रसिद्ध भी है अतएव आचार्य ने द्रव्यार्थिक नय के एक भेद व्यवहार नय के उपभेदरूप से विधिभंगरूप प्रथम अर में मीमांसक के इस मत को स्थान दिया है । इस अरमें विज्ञानवाद - अनुमान का नैरर्थक्य आदि कई प्रारंभिक विषयों की भी चर्चा की गई है, किन्तु उन सबके विषय में ब्योरेवार लिखने का यह स्थान नहीं है । (२) द्वितीय अर के उत्थान में मीमांसक के उक्त विधिवाद या अपौरुषेय शास्त्रद्वारा क्रियोपदेश के समर्थन में अज्ञानवाद का जो आश्रय लिया गया है उसमें त्रुटि यह दिखाई गई है कि यदि लोकतत्त्व पुरुषों के द्वारा अज्ञेय ही है तो अज्ञानवाद के द्वारा सामान्य-विशेषादि एकान्तवादों का जो खण्डन किया गया वह उन तत्त्वों को जानकर या बिना जाने ? जान कर कहने पर स्ववचन विरोध है और बिना जाने तो खण्डन हो कैसे सकता है ? तत्त्व को जानना यह यदि निष्फल हो तो शास्त्रों में प्रतिपादित वस्तुतत्त्व का प्रतिषेध अज्ञानवादी ने जो किया वह भी क्यों ? शास्त्र क्रिया का उपदेश करता है यह मान लिया जाय तब भी जो संसेव्य विषय है उसके स्वरूप का ज्ञान तो आवश्यक ही है; अन्यथा इष्टार्थ में प्रवृत्ति ही कैसे होगी ? जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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