Book Title: Sruta Sarita
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
View full book text
________________
292
ŚRUTA-SARITĀ
अवट्ठिए भवं, अणेगभूतभव्वभविए भवं ! सोमिला, एके वि अहं दुवे वि अहं..." इत्यादि भगवती १८. १०.६४७ ।
(३) द्वितीय अरमें अद्वैतदृष्टि से विभिन्न चर्चा हुई है। अद्वैत को किसी ने पुरुषष कहा तो किसी ने नियति आदि । किन्तु मूल तत्त्व एक ही है उसके नाम में या स्वरूप में विवाद चाहे भले ही हो किन्तु वह तत्त्व अद्वैत है यह सभी वादियों का मन्तव्य है । इस अद्वैततत्त्व का खास कर पुरुषाद्वैत के निरासद्वारा निराकरण करके सांख्य ने पुरुष और प्रकृति के द्वैत को तृतीय अर में स्थापित किया है ।
किन्तु अद्वैतकारणवाद में जो दोष थे वैसे ही दोषों का अवतरण एकरूप प्रकृति यदि नाना कार्यों का संपादन करती है तो उसमें भी क्यों न हो यह प्रश्न सांख्यों के समक्ष भी उपस्थित होता है । और पुरुषाद्वैतवाद की तरह सांख्यों का प्रधान कारणवाद भी खण्डित हो जाता है। इस प्रसंग में सांख्यों के द्वारा संमत सत्कार्यवाद में असत्कार्य की आपत्ति दी गई है और सत्त्व-रजस्-तमस् के तथा सुख-दुःख-मोह के ऐकय की भी आपत्ति दी गई है । इस प्रकार सांख्यमत का निरास करके प्रकृतिवाद के स्थान में ईश्वरवाद स्थापित किया है। प्रकृति के विकार होते हैं यह ठीक है किन्तु उन विकारों को करनेवाला कोई न हो तो विकारों की घटना बन नहीं सकती । अत एव सर्व कार्यों में कारणरूप ईश्वर को मानना आवश्यक है ।।
इस ईश्वरवाद का समर्थन श्वेताश्वतरोपनिषद् की ‘एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति' इत्यादि (६. १२) कारिका के द्वारा किया गया है । और "दुविहा पण्णवणा पण्णत्ता-जीवपण्णवणा, अजीवपण्णवणा च (प्रज्ञापना १.१) तथा किमिदं भंते ! लोएति पवुच्चति ? गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव" (स्थानांग) इत्यादि आगम वाक्यों से संबंध जोडा गया है ।
(४) सर्व प्रकार के कार्यों में समर्थ ईश्वर की आवश्यकता जब स्थापित हुई तब आक्षेप यह हुआ की ईश्वर की आवश्यकता मान्य है । किन्तु समग्र संसार के प्रााणिओं का ईश्वर अन्य कोई पृथगात्मा नहीं, किन्तु उन प्राणिओं के कर्म ही ईश्वर हैं । कर्म के कारण ही जीव प्रवृत्ति करता है और तदनुरूप फल भोगता है । कर्म ईश्वर के अधीन नहीं । ईश्वर कर्म के अधीन है । अतएव सामर्थ्य कर्म का ही मानना चाहिए, ईश्वर का नहीं । इस प्रकार कर्मवाद के द्वारा ईश्वरवाद का निराकरण करके कर्म का प्राधान्य चौथे अर में स्थापित किया गया । यह विधिनियम का प्रथम विकल्प है ।
___ दार्शनिकों में नैयायिक-वैशेषिकों का ईश्वर कारणवाद है । उसका निरास अन्य सभी कर्मवादी दर्शन करते हैं । अत एव यहाँ ईश्वरवाद के विरुद्ध कर्मवाद का उत्थान आचार्य ने स्थापित किया है । यह कर्म भी पुरुष-कर्म समझना चाहिए । यह स्पष्टीकरण किया है कि पुरुष के लिए कर्म आदिकर है अर्थात् कर्म से पुरुष की नाना अवस्था होती हैं और कर्म के लिए पुरुष आदिकर है । जो आदिकर है वही कर्ता है । यहाँ कर्म और आत्मा का भेद नहीं समझना चाहिए । आत्मा ही कर्म है और कर्म ही आत्मा है । इस दृष्टि से कर्म-कारणता का एकान्त और पुरुष या पुरुषकार का एकान्त ये दोनों ठीक नहीं-आचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310