Book Title: Sruta Sarita
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 302
________________ आचार्य मल्लवादी का नयचक्र ૨૯૩ है । क्यों कि पुरुष नहीं तो कर्मप्रवृत्ति नहीं, और कर्म नहीं तो—पुरुषप्रवृत्ति नहीं । अत एव इन दोनों का कर्तृत्व परस्पर सापेक्ष है । एक परिणामक है तो दूसराा परिणामी है, अत एव दोनों में ऐक्य है । इसी दलील से आचार्य ने सर्वैक्य सिद्ध किया है । आत्मा, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश आदि सभी द्रव्यों का ऐक्य भावरूप से सिद्ध किया है और अन्त में युक्तिबल से सर्वसर्वात्मकता का प्रतिपादन किया है और उसके समर्थन में—'जे एकणाम से बहुनामे' (आचारांग १. ३. ४.) इस आगमवाक्य को उद्धृत किया है । इस अरके प्रारंभ में ईश्वर का निरास किया गया और कर्म की स्थापना की गई । यह कर्म ही भाव है, अन्य कुछ नहींयह अंतिम निष्कर्ष है ।। (५) चौथे अर में विधिनियमभंग में कर्म अर्थात् भाव अर्थात् क्रिया को जब स्थापित किया तब प्रश्न होना स्वाभाविक है कि भवन या भाव किसका ? द्रव्यशून्य केवल भवन हो नहीं सकता । किसी द्रव्य का भवन या भाव होता है । अत एव द्रव्य और भाव इन दोनों को अर्थरूप स्वीकार करना आवश्यक है; अन्यथा 'द्रव्यं भवति' इस वाक्य में पुनरुक्ति दोष होगा । इस नय का तात्पर्य यह है कि द्रव्य और क्रिया का तादात्म्य है। क्रिया बिना द्रव्य नहीं और द्रव्य बिना क्रिया नहीं । इस मत को नैगमान्तर्गत किया गया है । नैगमनय द्रव्यार्थिक नय है । (६) इस अर में द्रव्य और क्रिया के तादात्म्य का निरास वैशेषिक दृष्टि से करके द्रव्य और क्रिया के भेद को सिद्ध किया गया है । इतना ही नहीं किन्तु गुण, सत्तासामान्य, समवाय आदि वैशेषिक संमत पदार्थों का निरूपण भी भेद का प्राधान्य मान कर किया गया है । आचार्य ने इस दृष्टि को भी नैगमान्तर्गत करके द्रव्यार्थिक नय ही माना है । प्रथम अर से लेकर इस छ8 अर तक द्रव्यार्थिक नयों की विचारणा है । अब आगे के नय पर्यायार्थिक दृष्टि से हैं । - (७) वैशेषिक प्रक्रिया का खण्डन ऋजुसूत्र नय का आश्रय लेकर किया गया है । उसमें वैशेषिक संमत सत्तासंबंध और समवाय का विस्तार से निरसन है और अन्त में अपोहवाद की स्थापना है । यह अपोहवाद बौद्धों का है । (८) अपोहवाद में दोष दिखा कर वैयाकरण भर्तृहरि का शब्दाद्वैत स्थापित किया गया है । जैन परिभाषा के अनुसार यह चार निक्षेपों में नामनिक्षेप है । जिस के अनुसार वस्तु नाममय है, तदतिरिक्त उसका कुछ भी स्वरूप नहीं । इस शब्दाद्वैत के विरुद्ध ज्ञान पक्ष को रखा है । और कहा गया है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति ज्ञान के बिना असंभव है । शब्द तो ज्ञान का साधन मात्र है । अतएव शब्द नहीं किन्तु ज्ञान प्रधान है । यहाँ भर्तृहरि और उनके गुरु वसुरात का भी खण्डन है । ज्ञानवाद के विरुद्ध स्थापना निक्षेप का निर्विषयक ज्ञान होता नहीं—इस युक्ति से उत्थान है । शाब्द बोध जो होगा उसका विषय क्या माना जाय ? जाति या अपोह ? प्रस्तुत में स्थापना निक्षेप के द्वारा अपोहवाद का खण्डन करके जाति की स्थापना की गई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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