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आचार्य मल्लवादी का नयचक्र
प्रकार यदि वैद्य को औषधि के रस - वीर्य विपाकादि का ज्ञान न हो तो वह अमुक रोग में अमुक औषधि कार्यकर होगी यह नहीं कह सकता वैसे ही अमुक याग करने से स्वर्ग मिलेगा यह भी बिना जाने कैसे कहा जा सकता है ? अत एव कार्यकारण के अभीन्द्रीय सम्बन्ध को कोई जानने वाला हो तब ही वह स्वर्गादि के साधनों का उपदेश कर सकता है, अन्यथा नहीं । इस दृष्टि से देखा जाय तो सांख्यादि शास्त्र या मीमांसक शास्त्र में कोई भेद नहीं किया जा सकता । लोकतत्त्व का अन्वेषण करने पर ही सांख्य या मीमांसक शास्त्र की प्रवृत्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं । सांख्य शास्त्र की प्रवृत्ति के लिए जिस प्रकार लोकतत्त्व का अन्वेषण आवश्यक है उसी प्रकार क्रिया का उपदेश देने के लिए भी लोकतत्त्व का अन्वेषण आवश्यक है । अत एव मीमांसक के द्वारा अज्ञानवाद का आश्रय ले कर क्रिया का उपदेश करना अनुचित है । 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम:' इस वैदिक विधिवाक्य को क्रियोपदेशकरूप से मीमांसकों के द्वारा माना जाता है । किन्तु अज्ञानवाद के आश्रय करने पर किसी भी प्रकार से यह वाक्य विधिवाक्य रूप से सिद्ध नहीं हो सकता इसकी विस्तृत चर्चा की गई है । और उस प्रसंग में सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद के एकान्त में भी दोष दिये गये हैं । इस प्रकार पूर्व अरमें प्रतिपादित अज्ञानवाद और क्रियोपदेश का निराकरण करके पुरुषाद्वैत की वस्तुतत्त्वरूप से और सब कार्यों के कारणरूप से स्थापना द्वितीय अरमें की गई है । इस पुरुष को ही आत्मा, कारण, कार्य और सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है । सांख्यों के द्वारा प्रवृत्ति को जो सर्वात्मक कहा गया था उसके स्थान में पुरुष को ही सर्वात्मक सिद्ध किया गया है ।
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इस प्रकार एकान्त पुरुषकारणवाद की जो स्थापना की गई है उसका आधार 'पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यं' इत्यादि शुक्ल यजुर्वेद के मन्त्र ( ३१.२) को बताया गया है । और अन्त में कह दिया गया है कि वह पुरुष ही तत्त्व है, काल है, प्रवृत्ति है, स्वभाव है, नियति है । इतना ही नहीं किन्तु देवता और अर्हन् भी वही है । आचार्य का अज्ञानवाद के बाद पुरुषवाद रखने का तात्पर्य यह जान पड़ता है कि अज्ञानविरोधी ज्ञान है और ज्ञान ही चेतन आत्मा है, अतएव वही पुरुष है । अतएव यहाँ अज्ञानवाद के बाद पुरुषवाद रखा गया है—ऐसी संभावना की जा सकती है ।
इस प्रकार द्वितीय अर में विधिविधिनय का प्रथम विकल्प पुरुषवाद जब स्थापित हुआ तब विधिविधिनय का दूसरा विकल्प पुरुषवाद के विरुद्ध खडा हुआ और वह है नियतिवाद । नियतिवाद के उत्थान के लिए आवश्यक है कि पुरुषवाद के एकान्त में दोष दिखाया जाय । दोष यह है कि पुरुषज्ञ और सर्वतन्त्र - स्वतन्त्र हो तो वह अपना अनिष्ट तो कभी कर ही नहीं सकता है, किन्तु देखा जाता है कि मनुष्य चाहता कुछ और होता है कुछ और । अत एव सर्व कार्यों का कारण पुरुष नहीं किन्तु नियति है ऐसा मानना चाहिये ।
इसी प्रकार से उत्तरोत्तर क्रमशः खण्डन करके कालवाद, स्वभाववाद और भाववाद का उत्थान विधिविधिनय के विकल्परूप से आचार्य ने द्वितीय अर के अन्तर्गत किया है ।
भाववाद का तात्पर्य अभेदवाद से द्रव्यवाद से है । इस वाद का उत्थान भगवती के निम्न वाक्य से माना गया है— किं भयवं ! एके भवं, दुवे भवं अक्खए भवं, अव्वए भवं,
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