Book Title: Sruta Sarita
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

View full book text
Previous | Next

Page 297
________________ 288 १. विधिः । २. विधि-विधिः (विधेर्विधिः) । ३. विध्युभयम् (विधेर्विधिश्च नियमश्च) । ४. विधिनियमः (विधेर्नियम:)। ५. विधिनियमौ (विधिश्च नियमश्च) । ६. विधिनियमविधिः (विधिनियमयोर्विधिः ) | ७. उभयोभयम् (विधिनियमयोर्विधिनियमौ ) । ८. उभयनियमः (विधिनियमयोर्नियमः) । ९. नियमः । १०. नियमविधिः (नियमस्य विधिः) । ११. नियमोभयम् (नियमस्य विधिनियमौ ) । १२. नियमनियमः (नियमस्य नियमः ) १७ । चक्र के आरे एक तुम्ब या नाभि में संलग्न होते हैं उसी प्रकार ये सभी नय स्याद्वाद या अनेकान्तरूप तुम्ब या नाभि में संलग्न हैं । यदि ये आरे तुम्ब में प्रतिष्ठित न हों तो विखर जायेंगे उसी प्रकार ये सभी नय यदि स्याद्वाद में स्थान नहीं पाते तो उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती । अर्थात् अभिप्रायभेदों को, नयभेदों को या दर्शनभेदों को मिलानेवाला स्याद्वादतुम्ब नयचक्र में महत्त्व का स्थान पाता है" । ŚRUTA-SARITĀ दो आरों के बीच चक्र में अन्तर होता है । उसके स्थान में आचार्य मल्लवादी ने पूर्व नय का खण्डन भाग रखा है । अर्थात् जब तक पूर्व नय में कुछ दोष न हो तब तक उत्तर नय का उत्थान ही नहीं हो सकता है । पूर्व नय के दोषों का दिग्दर्शन कराना यह दो नयरूप आरों के बीच का अन्तर है । जिस प्रकार अन्तर के बाद ही नया आरा आता है उसी प्रकार पूर्व नय के दोषदर्शन के बाद ही नया नय अपना मत स्थापित करता है९ । दूसरा नय प्रथम नय का निरास करेगा और अपनी स्थापना करेगा, तीसरा दूसरे का निरास और अपनी स्थापना करेगा । इस प्रकार क्रमश: होते होते ग्यारवें नय का निरास कर के अपनी स्थापना बारहवाँ नय करता है । यह निरास और स्थापना यहीं समाप्त नहीं होतीं । क्यों कि नयों के चक्र की रचना आचार्य ने की है अत एव बारहवें नय के बाद प्रथम नय का स्थान आता है, अतएव वह भी बारहवें नय की स्थापना को खण्डित करके अपनी स्थापना करता है । इस प्रकार ये बारहों नय पूर्व पूर्व की अपेक्षा प्रबल और उत्तर उत्तर की अपेक्षा निर्बल हैं। कोई भी ऐसा नहीं जिसके पूर्व में कोई न हो और उत्तर में भी कोई न हो । अतएव नयों के द्वारा संपूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं होता इस तथ्य को नयचक्र की रचना करके आ. मल्लवादी ने मार्मिक ढंग से प्रस्थापित किया है । और इस प्रकार यह स्पष्ट कर दिया है कि स्याद्वाद ही अखंड सत्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310