Book Title: Sruta Sarita
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 273
________________ 264 ŚRUTA-SARITĀ डा. याकोबी को भी 'पानी' अर्थ करने में असंगति तो दिखती ही थी । अतएव उन्होंने कोष्टक में (Cold) जोड़ दिया, क्योंकि यह तो संभव हो ही नहीं सकता है कि कोई भी सब प्रकार के 'जल' का त्याग कर सके । जैन निर्गन्थों ने केवल ठंड़े जल का ही त्याग किया था, अतएव याकोबी को भी जोड़ना पड़ा । किन्तु वहाँ 'वारि' शब्द का अर्थ 'पानी' है भी नहीं, यह तो उनके भी ध्यान में नहीं आया । वे केवल बुद्धघोष का ही अनुसरण करके रह गये । वस्तुतः यहाँ 'वारि' शब्द का अर्थ 'वारणयोग्य' अर्थात् निषिद्ध पाप ही है । इस बात का समर्थन जैन आगम सूत्रकृतांग से हो जाता है । जिन शब्दों का प्रयोग पालि में हैं उन्हीं शब्दों का प्रयोग हेर फेर से सूत्रकृतांग में भी देखा जाता है । आश्चर्य इस बात का अवश्य है कि जो प्रयोग पालि में लिया गया, वह उस काल में जैनों में विशिष्ट होगा; किन्तु प्राचीन आगमों में केवल एक ही बार यह देखा जाता है और वह भी भगवान् महावीर जी की स्तुति के प्रसंग में । संभव है कि आगे चलकर जब भगवान् महावीर के पाँच महाव्रत की प्रसिद्धि विशेष हुई तब यह प्रयोग गौण हो गया, उसने अपना महत्त्व खो दिया; अतएव केवल एक ही बार यह प्रयोग जैनागम में देखा जाता है । सूत्रकृतांग में महावीर की स्तुति में कहा गया है से वारिया इत्थि सराइभन्तं उपहाणवं दुक्खखयट्ठयाए । लोगं विदित्ता आरं परंच सव्वं पभू वारियसव्ववारी ॥ ६. २ ७ (P. T. S.) पालिपिटक में भगवान् महावीर निगंठ नातपुत्त के विषय में कहा गया है 'सव्ववारिवारितो' और यहाँ महावीर के वर्णन में कहा गया है 'पभू वारियसव्ववारी' * -दोनों का तात्पर्यार्थ ही नहीं; शब्द भी एक हैं । अब इस सूत्रकृतांग की टीकाओं में इसका जो अर्थ किया गया है उसे देखें, जिससे स्पष्ट हो जायगा कि यहाँ 'वारि' शब्द का अर्थ 'पानी' है ही नहीं । _"सव्वं पभू वारिय प्रभवतीति प्रभुः । वशयित्वा इत्यर्थः । अथवा सव्वं पाणादिवादानि दव्वतो, प्रभुः ज्ञेयं प्रति, प्रधानत्वाच्च वारितवान् शिष्यान् हिंसा-अनृत-स्तेय-परिग्रहेभ्य इति, मैथुनरात्रिभक्त त पूर्वोक्ते । सर्वस्मादकत्यादात्मानं शिष्यांश्च वारितवान् इति सर्ववारी सर्वंवारणशील इत्यर्थः ।" चूर्णि । ___ "सर्वमेतत् प्रभुः भगवान् सर्ववारं बहुशो निवारितवान् । एतदुक्तं भवति प्राणातिपातनिषेधादिकं स्वतोऽनुष्ठाय परांश्च स्थापितवान्, नहि स्वतोऽस्थितः परांश्च स्थापयितुमलमित्यर्थः ।" शीलाङ्ककृत टीका । दोनों टीकाओं में भी समाधानकारक रीति से शब्दार्थ नहीं किया गया किन्तु, तात्पर्यार्थ स्पष्ट ही हैं । शीलाङ्क का तो पाठ ही 'वार' है, 'वारि' नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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