Book Title: Sruta Sarita
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

View full book text
Previous | Next

Page 288
________________ बोटिक मत का विवरण ऐसा करने पर पूर्वोक्त दोषजाल में फँस जाओगे और समिति के घात को भी प्राप्त करोगे । अतएव ऐसा न हो, यही अच्छा होगा (३०८७) । जो पात्र का प्रयोग नहीं करता, वह एषणा समिति का यथार्थ रूप से पालन नहीं कर सकता है । जो वस्त्र - रहित है, वह निक्षेप, आदान और व्युत्सर्ग समिति का पालन नहीं कर सकेगा; और पात्र - रहित भी इन तीनों समितियों का भी यथार्थ पालन नहीं कर सकता (३०८८) । ૨૭૯ आचार्य कृष्ण ने शिवभूति को इतना समझाया, फिर भी मिथ्यात्व के उदय के कारण व्याकुलता से जिनमत की श्रद्धा न करके वह वस्त्र का त्याग कर निकल गया (३०८९) । शिवभूति की बहिन ने भी वस्त्र का त्याग अपने भाई के प्रति अनुराग के कारण कर दिया और निकल पड़ी । एक गणिका ने वस्त्र दिया तो उसे भी छोड़ दिया; फिर भी गणिका ने उसे छाती ढकने का वस्त्र दिया, उसे भी छोड़ने लगी तो शिवभूति ने कहा कि उसे रहने दो, तो उसे उसने धारण कर रखा (३०९०, ३०९१) । शिवभूति ने कोडिन और कट्टवार- इन दो को शिष्य बनाया और उसके बाद परम्परा से अन्य बोटिक भी उत्पन्न हुए (३०९२) । इस समग्र चर्चा से सार यह निकलता है कि बोटिक मत के अनुसार श्रमण वस्त्र नहीं रख सकते, पात्र नहीं रख सकते, किन्तु श्रमणी वस्त्र रख सकती है । इसके साथ यह भी स्पष्ट होता है कि केवली के कवलाहार और स्त्री-मुक्ति के निषेध की कोई चर्चा इसमें नहीं है । अतएव जिस समय बोटिक सम्प्रदाय का प्रारम्भ हुआ, तब केवली - कवलाहार और स्त्री-मुक्ति के विषय में बोटिक मत का विरोध नहीं था । यह विरोध बाद में हुआ होगा जो आज का दिगम्बर सम्प्रदाय करता है । अतएव केवली - कवलाहार और स्त्री-मुक्ति का विरोध करने वाला दिगम्बर सम्प्रदाय बोटिक सम्प्रदाय के बाद कभी हुआ होगा यही मानना पड़ता है । टिप्पण : १. विशेषावश्यक भाष्य ला. द. विद्यामन्दिर द्वारा प्रकाशित यशोविजय ग्रन्थमाला से प्रकाशित में देखें गा० २५५० से । २. बोटिक का नाम न देकर 'अन्ने' शब्द से उल्लेख है । उसके लिये टीकाकार मलयगिरि बोटिक का उल्लेख करते हैं- गा० १०१६ का उत्थान । ३. घुटुण का अर्थ है वह कपड़ा जो घुटने तक आता है जिससे आधी टाँग ढक जाती है अर्थात् कटिबन्ध (परना) श्रीमद् आचाराङ्ग सूत्र के ८वें अध्ययन में जिनकल्पी के पाञ्च विकल्प हैं-तीन वस्त्र एक पात्र, दो वस्त्र एक पात्र, एक वस्त्र एक पात्र, कटिबन्ध और पूर्ण अचेल । ये सभी जिनकल्पी होते हैं और वनों में एकाकी रह कर सावधिक तपोऽनुष्ठान करते हैं । अवधि पूर्ण होने पर पुनः स्थविर - कल्प में प्रविष्ट हो जाते हैं । (उद्देश ४-७) ४. तिहि ठाणेहिं वत्थं धारेज्जा, तं जहा - हिरिवत्तियं, दुगुंछावत्तियं परीसहवत्तियं । श्री ठाणाङ्गसूत्र ३|३|४|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310