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बोटिक मत का विवरण
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अतः वीतराग और वीतद्वेष के लिये जो-जो वस्त्रादि संयम के साधन हैं, वे परिग्रह नहीं हैं और जो-जो संयम का साधन नहीं बनता अपितु संयम का घात करने वाला होता है, वह परिग्रह है (३०५७) ।
शिवभूति-यह बतावें कि वस्त्रादि संयम का उपकारक किस प्रकार से है ?
कृष्ण-शीतार्त के लिये वस्त्र उपकारक है; क्योंकि वस्त्र होने पर शीत के कारण आर्तध्यान होगा नहीं अन्यथा वे अग्नि से शीतनिवारण करेंगे या तृण-जन्य अग्नि जला कर जीवों की हिंसा करेंगे । (ऐसा करने पर अहिंसा व्रत के भङ्ग की सम्भावना है) अतः वस्त्रादि संयम का उपकारक मानना जरूरी है; क्योंकि वस्त्र होने से अग्नि और तृण के जीवों की रक्षा हो जाती है (३०५८) ।
मुनियों के लिये चारों काल में स्वाध्याय-ध्यान का साधन भी वस्त्र बनते हैं, क्योंकि वस्त्र होने से रात्रि में शीत से पीडा नहीं होती; और रात में गिरने वाले सचित्त पृथ्वी (महि), धूमिका (महिका), वर्षा, ओस, रज आदि के जीवों की रक्षा का साधन वस्त्र बनता है । इस प्रकार संयम की साधना में वस्त्र उपकारक होने से परिग्रह नहीं है (३०५९) ।
इसके अलावा वस्त्र का अन्य उपयोग भी है-जैसे कि मृत को ढाँकना और बहार ले जाना, रोगी के प्राणों की रक्षा करना आदि-आदि ।
इसी प्रकार मुंहपत्ती आदि भी जिस प्रकार संयमोपकारक है—इसका समर्थन कर लेना चाहिये (३०६०) ।
शिवभूति-वस्त्र के विषय में आपका तर्क जाना, किन्तु पात्र की क्या आवश्यकता है ? क्या उसके विना मुनिधर्म का पालन नहीं हो सकता ?
कृष्ण-जीवों से संसक्त ऐसे सत्तू, गोरस, पानक जैसी पीने की वस्तुगत जीवों की रक्षा पात्र से ही हो सकती है। परिगलन से होनेवाले प्राणघात का तथा पश्चात्कर्म का निवारण पात्र से हो सकता है । रोगी और बाल-शिष्यों के लिये पात्र में भिक्षा ला कर उनका उपकार किया जा सकता है । पात्र में भिक्षा ला कर साथी साधुओं को देने से दानधर्म की प्राप्ति भी होती है । इस तरह पात्र भी संयमधर्म का साधन बनता है । इतना ही नहीं, अपितु साधुओं में परस्पर समता का भी साधनपात्र इसलिये बनता है कि पात्र में ला कर एकसाथ भोजन कर सकते हैं (३०६१, ३०६२) ।
शिवभूति-मुनियों के लिये अपरिग्रह का शास्त्र में विधान है । अतएव वस्त्र पात्र आदि रखने पर उस आज्ञा का भङ्ग होता है । अतः वस्त्रादि का परिग्रह नहीं रखना चाहिये ।
कृष्ण-यह सत्य है कि सूत्र में अपरिग्रह का विधान है; किन्तु परिग्रह का लक्षण है मूर्छा; और मूर्छा का निषेध तो सभी पदार्थों के विषय में किया है, केवल वस्त्र-पात्र के विषय में नहीं । शरीर, आहार, शिष्य पिच्छादि के विषय में भी उक्त सूत्र का विधान लागू होता ही है । हम भी मानते हैं कि वस्त्र-पात्र में मूर्छा नहीं रखनी चाहिये; किन्तु संयमोपकारी होने से
उनमें मूर्छा न करके उनका ग्रहण करना चाहिये, जैसे शिष्य का ग्रहण किया जाता है (३०६३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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