________________
जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा ।
के अनुकूल हो तो कोई आश्चर्य नहीं । पाटलीपुत्र का संस्करण भगवान् के निर्वाण के बाद करीब देढ़ सौ वर्ष बाद हुआ । विक्रम पाँचवीं शताब्दी में वलभी में जो संस्करण हुआ वही आज हमारे सामने है किन्तु उसमें जो संकलन हुआ वह प्राचीन वस्तुओं का ही हुआ है । सिर्फ नन्दीसूत्र तत्कालीन रचना है और कुछ ऐसी घटनाओं का जिक्र मिलाया गया है जो वीरनिर्वाण के बाद छः सौ से भी अधिक वर्ष बाद घटीं हों । ऐसे कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश ईसवी सन् के पूर्व का है इसमें सन्देह नहीं ।
आगम में तत्कालीन सभी विद्याओं का समावेश हुआ है । दर्शन से सम्बद्ध आगम ये हैं :- सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, नन्दी और अनुयोग ।
૨૩૧
सूत्रकृताङ्ग में सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में मतान्तरों का निषेध किया है । किसी ईश्वर या ब्रह्मादि ने इस विश्व को नहीं बनाया, इस बात का स्पष्टीकरण किया गया है । आत्मा शरीर से भिन्न है और वह एक स्वतंत्र द्रव्य है इस बात को भारपूर्वक प्रतिपादित करके भूतवादिओं का खण्डन किया गया है । अद्वैतवाद का निषेध करके नानात्मवाद का प्रतिपादन किया है । क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद का निराकरण करके शुद्ध क्रियावाद की स्थापना की गई है । स्थानाङ्ग तथा समवायाङ्ग में ज्ञान, प्रमाण, नय, निक्षेप इन विषयों का संक्षेप में संग्रह यत्रतत्र हुआ है । किन्तु नन्दीसूत्र में तो जैनदृष्टि से ज्ञान का विस्तृत निरूपण हुआ है । अनुयोगद्वारसूत्र में शाब्दार्थ करने की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन है तथा प्रमाण, निक्षेप और नय का निरूपण भी प्रसङ्ग से उसमें हुआ है । प्रज्ञापना में आत्मा के भेद, उनके ज्ञान, ज्ञान के साधन, ज्ञान के विषय और उनकी नाना अवस्थाओं का विस्तृत निरूपण है । जीवाभिगम में भी जीव के विषय में अनेक ज्ञातव्य बातों का संग्रह है । राजप्रश्नीय में प्रदेशी नामक नास्तिक राजा के प्रश्न करने पर पार्श्व सन्तानीय श्रमण केशी ने जीव का अस्तित्व सिद्ध किया है । भगवती में ज्ञान-विज्ञान की अनेक बातों का संग्रह हुआ है और अनेक अन्य तीर्थिक मतों का निरास किया गया है ।
आगमयुग इन दार्शनिक विषयों का निरूपण राजप्रश्नीय को छोड़ दें तो युक्तिप्रयुक्ति पूर्वक नहीं किया गया है ऐसा स्पष्ट है । प्रत्येक विषय का निरूपण जैसे कोई द्रष्टा देखी हुई बात बता रहा हो इस ढङ्ग से हुआ है । किसी व्यक्ति ने शङ्का की हो और उसकी शङ्का का समाधान युक्तियों से हुआ हो यह प्रायः नहीं देखा जाता । वस्तु का निरूपण उसके लक्षण द्वारा नहीं किन्तु भेद-प्रभेद के प्रदर्शन पूर्वक किया गया है । आज्ञाप्रधान या श्रद्धाप्रधान उपदेशशैली यह आगमयुग की विशेषता है ।
उक्त आगमों को दिगम्बर आम्नाय नहीं मानता । बारहवें अङ्ग के अंशभूत पूर्व के आधार से आचार्यों द्वारा ग्रथित षट्खण्डागम, कषायपाहुड और महाबन्ध ये दिगम्बरों के आगम हैं । इनका विषय जीव और कर्म तथा कर्म के कारण जीव की जो नाना अवस्थाएँ होती है यही मुख्य रूप से है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org