Book Title: Sruta Sarita
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 256
________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन ૨૪૭ तो सभी उपयुक्त दृष्टियों के स्वीकार से ही हो सकता है । किन्तु सभी दार्शनिक अपना दृष्टिराग छोड़ नहीं सकते । अतएव वे मिथ्या हैं और इन्हीं की बात को लेकर चलने वाला अनेकान्तवाद मिथ्या न होकर सम्यग् हो जाता है । क्योंकि अनेकान्तवाद सर्वदर्शनों का जो तथ्यांश है, जो अंश युक्तिसिद्ध है उसे स्वीकार करता है और तत्त्व के पूर्ण दर्शन में उस अंशको भी यथास्थान संनिविष्ट करता है । सिद्धसेन का तो यहाँ तक कहना है कि किसी एक दृष्टि की मुख्यता यदि मानी जाय तो सर्वदर्शनों का प्रयोजन जो मोक्ष है वह नहीं घट सकेगा । अतएव दार्शनिकों को अपनी प्रयोजन की सिद्धि के लिए भी अनेकान्तवाद का आश्रयण करना चाहिए और दृष्टि मोह से दूर रहना चाहिए । महामूल्यवान् मुक्तामणियों को भी जब तक किसी एक सूत्र में बाँधा न जाय जब तक गले का हार नहीं बन सकता है । उनमें समन्वय की कभी है । अतएव उनका खास उपयोग नहीं । किन्तु वे ही मणियाँ जब सूत्रबद्ध हो जाती हैं, उनमें समन्वय हो जाता है तब उनका पार्थक्य होते हुए भी एक उपयुक्त चीज बन जाती है । इसी दृष्टान्त के बल से सिद्धसेन ने सभी दार्शनिकों को अपनी-अपनी दृष्टि में समन्वय की भावना रखने का आदेश दिया है । और कहा है कि यदि ऐसा समन्वय हो तभी दर्शन सम्यग् दर्शन कहा जा सकता है अन्यथा नहीं । कार्यकारण के भेदाभेद को लेकर दार्शनिकों में नाना विवाद चलते थे । कार्य और कारण का एकान्त भेद ही है, ऐसा न्याय-वैशेषिक मत है । सांख्य का है कि कार्य कारणरूप ही है । अद्वैतवादियों काम मत है कि संसार में दृश्यमान कार्यकारणभाव मिथ्या है, किन्तु एक द्रव्यअद्वैत ब्रह्म ही सत् है । इन सभी वादियों को सिद्धसेन ने एक ही बात कही है कि यदि वे परस्पर समन्वय न स्थापित कर सकें तो उनका वाद मिथ्या ही होगा । वस्तुतः अभेदगामी दृष्टि से विचार करने पर कार्य-कारण में अभेद है, और भेदगामी दृष्टि से देखने पर भेद है, अतएव एकान्त को परित्याग करके कार्य-करण में भेदाभेद मानना चाहिए । भगवान् महावीर ने द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव से किसी वस्तु पर विचार करना सिखाया था, यह कहा जा चुका है | इसी को मूलाधार बना कर किसी भी वस्तु में स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से सत् और परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से असत् इत्यादि सप्तभंगो की योजना रूप स्याद्वाद प्रतिपादन भी सिद्धसेन ने विशदरूप से किया है । सदसत् की तरह एकानेक, नित्यानित्य, भेदाभेद इत्यादि दार्शनिकवादों के विषय में भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि को मूलाधार बनाकर स्याद्वाद दृष्टि का प्रयोग करने का सिद्धसेन ने सूचन किया है । ___ बौद्धों ने वस्तु को विशेषरूप ही माना, अद्वैतवादियों ने सामान्यरूप ही माना और वैशेषिकों ने सामान्य और विशेष को स्वतंत्र और आधारभूत वस्तु से अत्यन्त भिन्न ही माना । दार्शनिकों के इस विवाद को भी सिद्धसेन ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक का झगडा ही कहा और वस्तु-तत्त्व को सामान्य विशेषात्मक सिद्ध करके समन्वय किया । बौद्ध ने वस्तु को गुण रूप ही माना, गुणभिन्न कोई द्रव्य माना ही नहीं । नैयायिकों ने द्रव्य और गुण का भेद ही माना । तब सिद्धसेन ने कहा कि एक ही वस्तु सम्बन्ध के भेद से नाना रूप धारण करती है अर्थात् जब वह चक्षुरिन्द्रिय का विषय होती है तब रूप कही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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