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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
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प्रभाचन्द्र
किन्तु इस युग के प्रमाणशास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड ही है इसमें तो सन्देह नहीं । इसके कर्ता प्रतिभासम्पन्न दार्शनिक प्रभाचन्द्र हैं । प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र की रचना लघीयस्त्रय की टीकारूप से की है उसमें भी मुख्यरूप से प्रमाणशास्त्र की चर्चा है । परीक्षामुखग्रन्थ जिसकी टीका प्रमेय कमलमार्तण्ड है, लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय आदि अकलंक की कृतियों का व्यवस्थित दोहन करके लिखा गया है । उसमें अकलङ्कोक्त विप्रकीर्ण प्रमाणशास्त्र सम्बद्ध विषयों को क्रमबद्ध किया गया है । अतएव इसकी टीका में भी व्यवस्था का होना स्वाभाविक है । न्यायकुसुमचन्द्र में यद्यपि प्रमाणशास्त्र सम्बद्ध सभी विषयों की सम्पूर्ण और विस्तृत चर्चा का यत्र तत्र समावेश प्रभाचन्द्र ने किया है, फिर भी प्रमाणशास्त्र की दृष्टि से क्रमबद्ध विषय-परिज्ञान प्रमेयकमलमार्तण्ड से ही हो सकता है, न्यायकुमुदचन्द्र से नहीं । अनेकान्तवाद का भी विवेचन पद-पद पर इन दोनों ग्रन्थों में हुआ है ।
शाकटायन के स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिप्रकरण के आधार से अभयदेव ने स्त्रीमोक्ष और केवलीकवलाहार सिद्ध करके श्वेताम्बरपक्ष को पुष्ट किया और प्रभाचन्द्र ने शाकटायन की प्रत्येक दलील का खण्डन करके केवलिकवलाहार और स्त्रीमोक्ष का निषेध करके दिगम्बर पक्ष को पुष्ट किया । इस युग के अन्य श्वेताम्बर-दिगम्बर पक्ष को पुष्ट किया । इस युग के अन्य श्वेताम्बरदिगम्बराचार्यों ने भी इन विषयों की चर्चा अन्य ग्रन्थों में की है ।
प्रभाचन्द्र मुंज के बाद होने वाले धाराधीश भोज और जयसिंह का समकालीन है क्योंकि अपने ग्रन्थों की प्रशस्तियों में वह इन दोनों राजाओं का उल्लेख करता है । प. महेन्द्रकुमार जी ने प्रभाचन्द्र का समय वि. १०३७ से ११२२ अनुमानित किया है । वादिराज
वादिराज और प्रभाचन्द्र समकालीन विद्वान हैं सम्भव है वादिराज कुछ बडे हों । वादिराज ने अकलंक के न्यायविनिश्चय का विवरण किया है। किसी भी वाद की चर्चा में कंजूसी करना वादिराज का काम नहीं । अनेक ग्रन्थों के उद्धहरण देकर वादिराज ने अपने ग्रन्थ को पुष्ट किया है । न्यायविनिश्चय मूल ग्रन्थ भी प्रमाणशास्त्र का ग्रन्थ है । अतएव न्यायविनिश्चय विवरण भी प्रमाणशास्त्र का ही ग्रन्थ है। उसमें अनेकान्तवाद की पुष्टि भी पर्याप्त मात्रा में की गई है । प्रज्ञाकरकृत प्रमाणवार्तिकालङ्कार का उपयोग और खण्डन-दोनों इसमें मौजूद हैं ।। जिनेश्वर, चन्द्रप्रभ और अनन्तवीर्य
___ कुमारिल ने मीमांसाश्लोकवार्तिक लिखा, धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक, अकलङ्क ने राजवार्तिक और विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक लिखा । किन्तु श्वेताम्बराचार्यों में से किसी ने वार्तिक की रचना न की थी । यद्यपि हरिभद्र ने गद्य और पद्य दोनों में लिखा था । अभयदेव ने तो सन्मति की इतनी बड़ी टीका लिखी कि वह वादमहार्णव के नाम से ख्यात हुई । किन्तु वार्तिक नामक कृति का अभाव ही था । इसीसे कोई नासमझ यह आक्षेप करते होंगे कि श्वेताम्बरों के पास अपना कोई वार्तिक नहीं । इसी आक्षेप के उत्तर में जिनेश्वर ने वि. १०९५
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