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जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा ।
जैन दर्शन के साहित्यिक विकास को चार युगों में विभक्त किया जा सकता है । (१) आगमयुग - भगवान महावीर के निर्वाण से लेकर करीब एक हजार वर्ष का अर्थात् वि. पाँचवीं शताब्दी तक का,
(२) अनेकान्तव्यवस्थायुग — वि. पाँचवीं शताब्दी से आठवीं तक का, (३) प्रमाणव्यवस्थायुग — वि. आठवीं से सत्रहवीं तक का और
(४) नवीन न्याय युग — विक्रम सत्रहवीं से आधुनिक समय पर्यन्त ।
(१) आगमयुग :
भगवान महावीर के उपदेशों का संग्रह, गणधरों ने अङ्गों की रचना प्राकृत भाषा में करके, जिनमें किया वे आगम कहलाये । उन्हींके आधार से अन्य स्थविरों ने शिष्यों के हितार्थ और भी साहित्य विषयविभाग करके उसी शैली में ग्रथित किया, वह उपाङ्ग, प्रकीर्णक छेद और मूल के नाम से प्रसिद्ध है । इसके अलावा अनुयोगद्वार और नन्दी की रचना की गई । आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासक दशा अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरणदशा, विपाक — ये ११ अङ्ग उपलब्ध हैं और बाहरवाँ दृष्टिवाद विच्छिन्न है । औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा — ये बारह उपाङ्ग है । आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन तथा पिण्डनिर्युक्ति ये चार मूलसूत्र है । निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कन्ध, पञ्चकल्प और महानिशीथ ये छ: छेदसूत्र हैं । चतुः शरण, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, संस्तारक, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान और वीरस्तव ये दश प्रकीर्णक हैं ।
आगमों का अन्तिम संस्करण वीरनिर्वाण के ९८० वर्ष बाद ( मतान्तर से ९९३ वर्ष के बाद) वलभी में देवधि के समय में हुआ । कालक्रम से आगमों में परिवर्तन हुआ है किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि आगम सर्वांशतः देवधि की ही रचना है और उसका समय भी वही है जो देवधिका है । आगमों में आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध अवश्य ही पाटलीपुत्र के संस्करण का फल है । भगवती के कई प्रश्नोत्तर और प्रसङ्गों की संकलना भी उसी संस्करण
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