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ŚRUTA-SARITĀ
के बाद प्रसिद्ध टीकाकार शान्त्याचार्य हुए । उन्होंने उत्तराध्ययन की बृहत् टीका लिखी है । इसके बाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव हुए जिन्होंने नव अङ्गों पर संस्कृत में टीकाएँ रचीं। उनका जन्म १०७२ और स्वर्गवास विक्रम ११३५ में हुआ है । इन दोनों टीकाकारों ने पूर्व टीकाओं का पूरा उपयोग तो किया ही है पर साथ ही अपनी ओर से नई दार्शनिक चर्चा भी की है।
यहाँ पर ऐसे ही टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र का नाम उल्लेख योग्य है । वे बाहरवीं शताब्दी के विद्वान थे । किन्तु आगमों की संस्कृत टीका करने वालों में सर्वश्रेष्ठ स्थान मलयगिरि का ही है । प्रांजल भाषा में दार्शनिक चर्चा से प्रचुर टीकाएँ यदि देखना हो तो मलयगिरि की टीकाएँ देखना चाहिए । उनकी टीका पढ़ने में शुद्ध दार्शनिक ग्रन्थ के पढ़ने का आनन्द आता है । जैन शास्त्र के कर्म आचार, भूगोल-खगोल आदि सभी विषयों में उनकी कलम धाराप्रवाह से चलती है और विषय को इतना स्पष्ट करके रख देती हैं कि फिर उस विषय में दूसरा कुछ देखने की अपेक्षा नहीं रहती । जैसे वाचस्पति मिश्र ने जो भी दर्शन लिया तन्मय होकर उसे लिखा, उसी प्रकार मलयगिरि ने भी किया है । वे आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे । अतएव उन्हें बाहरवीं शताब्दी का विद्वान् समझना चाहिए ।
संस्कृत-प्राकृत टीकाओं का परिमाण इतना बड़ा था और विषयों की चर्चा इतनी गहनगहनतर हो गई थी कि बाद में यह आवश्यक समझा गया कि आगमों की शब्दार्थ बताने वाली संक्षिप्त टीकाएँ की जायँ । समय की गति ने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं को बोलचाल की भाषा से हटाकर मात्र साहित्यिक भाषा बना दिया था । तब तत्कालीन अपभ्रंश अर्थात् प्राचीन गुजराती भाषा में बालावबोंधोत्न की रचना हुई । इन्हें 'टबा' कहते हैं । ऐसे बालावबोधों की रचना करने वाले कई हुए हैं, किन्तु १८वीं सदी में हुए लोंकागच्छ के आ. धमसिंह मुनि विशेष रूप से उल्लेख योग्य हैं। क्योंकि इनकी दृष्टि प्राचीन टीकाओं के अर्थ को छोड़कर कहीं-कहीं स्वसंप्रदाय-संमत अर्थ करने की रही है । इनका संप्रदाय मूर्तिपूजा के विरोध में उत्थित हुआ था । दिगम्बर आगम
__ उपर्युक्त आगम और उसकी टीकाएँ श्वेताम्बर सम्प्रदाय को ही मान्य हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय अंगादि प्राचीन आगमों को लुप्त ही मानता है, किन्तु उनके आधार से और खासकर दृष्टिवाद के आधार से आचार्यों द्वारा ग्रथित कुछ ग्रंथों को आगम रूप से वह स्वीकार करता है । ऐसे आगम ग्रन्थों में षट्खंडागम, कषायपाहुड और महाबन्ध हैं । इन तीनों का विषय जीव और कर्म से विशेष सम्बन्ध रखता है । दार्शनिक खंडन मंडन मूल में नहीं, किन्तु बाद में होनेवाली उनकी बड़ी बड़ी टीकाओं में विशेषतया पाया जाता है ।
षट्खंडागम की रचना पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों द्वारा और कषायपाहुड़ मूल की रचना आचार्य गुणधर द्वारा विक्रम की दूसरी शताब्दी के बाद हुई है और उनपर बृहत्काय टीका धवलाजयधवला की रचना वीरसेनाचार्य ने विक्रम की नवमी शताब्दी में की है ।
महाबन्ध या महाधवल की रचना भूतबलि आचार्य ने की है ।
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