Book Title: Sramana 2004 01 Author(s): Shivprasad Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 5
________________ सम्पादकीय श्रमण जनवरी - जून २००४ संयुक्तांक सम्माननीय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। पूर्व की भांति इस अंक में भी जैन दर्शन, साहित्य, आचार, इतिहास एवं कला से सम्बद्ध आलेखों को स्थान दिया गया है। प्रस्तुत अंक के हिन्दी खण्ड में जैन दर्शन से सम्बद्ध ६, जैन साहित्य से सम्बद्ध ४, जैन आचार से सम्बद्ध २ और जैन इतिहास एवं कला पक्ष से सम्बद्ध ६ आलेख हैं। अंग्रेजी खण्ड के आलेख भी जैन दर्शन, इतिहास एवं आचार से सम्बद्ध हैं। हमारा प्रयास यही रहता है कि श्रमण का प्रत्येक अंक पिछले अंकों की तुलना में हर दृष्टि से बेहतर हो और उसमें प्रकाशित हो रहे सभी आलेख शुद्ध रूप में मुद्रित हों। इस अंक के साथ हम अपने सम्माननीय पाठकों को जैन कथा साहित्य में विशिष्ट स्थान रखने वाली प्राकृत भाषा में रचित कृति सुरसुंदरीचरियं का प्रथम परिच्छेद भी भेंट कर रहे हैं जो मुनिश्री विश्रुतयशविजयजी म०सा० द्वारा की गयी संस्कृत छाया, गुजराती अर्थ और हिन्दी अनुवाद से युक्त है। यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हमें पूज्य आचार्य विजय राजयशसूरिजी म०सा० के सौजन्य से प्राप्त हुआ है जिसके लिये हम उनके आभारी हैं। सुरसुंदरीचरियं के आगे के परिच्छेदों की संस्कृत छाया, गुजराती अर्थ और हिन्दी अनुवाद भी हमें जैसे-जैसे मुनिश्री से प्राप्त होते जायेंगे, उसी क्रम से हम धारावाहिक रूप में श्रमण में प्रकाशित करते रहेंगे। इसी अंक में हम अपने पाठकों के समक्ष ज्ञानदीप (चूड़ामणिसार) नामक लघुकृति भी प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसका हिन्दी अनुवाद आचार्य विश्वनाथ पाठक ने किया है। सुधी पाठकों से निवेदन है कि वे अपने अमूल्य विचारों/आलोचनाओं से हमें अवगत कराने की कृपा करें ताकि आगामी अंकों में उसे सुधारा जा सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only सम्पादक www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 298