Book Title: Sramana 2003 01 Author(s): Shivprasad Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 5
________________ जैन-साहित्य और संस्कृति में वाराणसी मण्डल डॉ० कमलेशकुमार जैन पणमह चउवीसजिणे तित्थयरे तत्थ भरहखेत्तम्मि। भव्वाणं भवरुक्खं छिदंते णाणपरसूहि।। जैनधर्म अत्यन्त प्राचीन है। इसकी जड़ें प्रागैतिहासिक काल से लेकर अद्यावधि जनजीवन में समाहित हैं। उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी-काल में जैनधर्म के प्रवर्तक जिन महापुरुषों ने अपने जन्म से इस भारतभूमि को अलङ्कत किया है, उनकी संख्या चौबीस है। ये सभी महापुरुष अपने-अपने समय में तीर्थ के प्रवर्तक होने के कारण तीर्थङ्कर कहलाते हैं और वे जीवमात्र को कल्याणकारी उपदेश देते हुए अन्त में अपने सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर मुक्ति को प्राप्त करते हैं। अपने इस अन्तिम भव में वे दिव्य औदारिक शरीर के धारक होते हैं, अत: इन सभी का शारीरिक सौन्दर्य अपूर्व होता है। अवगाहना और रङ्ग में भी कहीं-कहीं समानता पायी जाती है; किन्तु इन के दाहिने पैर के अङ्गुठे में एक विशेष चिह्न होता है, जिसके कारण प्रत्येक तीर्थङ्कर की पृथक्-पृथक् पहचान होती है। ____ इन तीर्थङ्करों में ऋषभदेव प्रथम हैं, जिनका उल्लेख श्रीमद्भागवतमहापुराण में विस्तार से किया गया है। हिन्दू पुराणों में जिन चौबीस अवतारों की चर्चा की गयी है उनमें आठवें अवतार' के रूप में उक्त भगवान् ऋषभदेव को स्वीकार किया गया है। श्रीमद्भागवतमहापुराण में उनकी कठिन तपस्या का भी उल्लेख है। इन्हीं के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। वर्तमान-काल में तीर्थङ्कर ऋषभदेव से लेकर तीर्थङ्कर महावीरपर्यन्त जैनधर्म के प्रवर्तक जो चौबीस तीर्थङ्कर हुए हैं उनके नाम हैं- ऋषभनाथ, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी। प्रत्येक तीर्थङ्कर की पहचान के लिए उनके चिह्न क्रमश: इस प्रकार हैं- बैल, गज, अश्व, बन्दर, चकवा, कमल, नन्द्यावर्त, अर्द्धचन्द्र, मगर, स्वस्तिक, *. रीडर एवं अध्यक्ष, जैनबौद्धदर्शन विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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