Book Title: Sramana 1993 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 9
________________ डॉ. सागरमल जैन दूसरों को धर्म का उपदेश देते हैं, (अपने ) लाभ के लिए, न कि ( उनके ) अर्थ के लिए। स्थविरवादी भिक्षुओं का विरोध लोकसेवा के उस रूप से है जिसका सेवा-रूपी शरीर तो है लेकिन जिसकी नैतिक चेतनारूपी आत्मा मर चुकी है। वह लोकसेवा सेवा नहीं, सेवा का प्रदर्शन है, दिखावा है, ढोंग है, छलना है, आत्मप्रवंचना है। डॉ. भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार एकांतता की साधना की प्रारम्भिक बौद्धधर्म में प्रमुखता अवश्य थी, परन्तु सार्थक तथ्य यह है कि उसे लोकसेवा के या जनकल्याण के विपरीत वहाँ कभी नहीं माना गया। बल्कि यह तो उसके लिए एक तैयारी थी। दूसरी ओर यदि हम महायानी साहित्य का गहराई से अध्ययन करें तो हमें बोधिचर्यावतार, शिक्षासमुच्चय, लंकावतारसूत्र जैसे ग्रन्थों में भी कहीं ऐसी सेवाभावना का समर्थन नहीं मिलता जो नैतिक जीवन के व्यक्तिगत मूल्यों के विरोध में खड़ी हो। लोकमंगल का जो आदर्श महायान परम्परा ने प्रस्तुत किया है, वह भी ऐसे किसी लोकहित का समर्थन नहीं करता, जिसके लिए वैयक्तिक नैतिकता को समाप्त कर दिया जाये। इस प्रकार सैद्धांतिक दृष्टि से लोकहित और आत्महित की अवधारणा में हीनयान और महायान में कोई मौलिक विरोध नहीं रह जाता। यद्यपि व्यावहारिक रूप में यह तथ्य सही है कि जहाँ एक ओर हीनयान ने एकांगी साधना और व्यक्तिनिष्ठ आचार-परम्परा का विकास किया और साधना को अधिकांश रूपेण आन्तरिक एवं वैयक्तिक बना दिया, वहीं दूसरी ओर महायान ने उसी की प्रतिक्रिया में साधना के वैयक्तिक पक्ष की उपेक्षा कर उसे सामाजिक और बहिर्मुखी बना दिया। इस तरह लोकसेवा और लोकानुकम्पा को अधिक महत्त्व दिया। यहां हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि हीनयान और महायान ने जिस सीमा तक अपने में इस ऐकान्तिकता को प्रश्रय दिया है, वे उसी सीमा तक बुद्ध की मध्यममार्गीय देशना से पीछे भी हटे हैं। स्वहित और लोकहित के सम्बन्ध में गीता का मन्तव्य गीता में सदैव ही स्वहित के ऊपर लोकहित की प्रतिष्ठा हुई है। गीताकार की दृष्टि में जो अपने लिए ही पकाता है और खाता है वह पाप ही खाता है। स्वहित के लिए जीने वाला व्यक्ति गीता की दृष्टि में अधार्मिक और नीच है। गीताकार के अनुसार जो व्यक्ति प्राप्त लोगों को देने वाले देवों को दिए बिना, उनका ऋण चुकाये बिना खाता है वह चोर है। सामाजिक दायित्वों का निर्वाह न करना गीता की दृष्टि में भारी अपराध है। ___गीता के अनुसार लोकहित करना मनुष्य का कर्तव्य है। र्वप्राणियों के हित सम्पादन में लगा हुआ पुरुष ही परमात्मा को प्रापत करता है। वह ब्रह्म-निर्वाण का अधिकारी होता है। जिसे कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है अर्थात जो जीवन मुक्त हो गया है, जिसे संसार के प्राणियों से कोई मतलब नहीं, उसे भी लोक-हितार्थ कर्म करते रहना चाहिए।१० श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि लोकसंग्रह (लोकहित) के लिए तुझे कर्तव्य करना उचित है। गीता में भगवान् के अवतार धारण करने का उद्देश्य साधुजनों की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की संस्थापना है।१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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