Book Title: Sramana 1993 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 54
________________ शीलदूतम् तेनेदानीं न विषयरसो बाधते कुत्रचिन्माम्। पश्याम्येनामपि वनसमां चित्रशालां खलूच्चै यमिध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृद् वः । । ८६. तत्वों का यथार्थ बोध हो जाने के कारण मेरे मन में राग (वासना या आसक्ति) नहीं रह गया है। इसी से मुझे संसार के विषय-भोग आकर्षित नहीं करते हैं। तुम्हारा मित्र मयूर जिस में रहता है उस चित्रशाला को भी मैं बन के समान देखता हूँ। यत्तारूण्ये सति वपुरहो । विभ्रमं भूरिधत्ते पुष्टं मुग्धे! सरसमधुराहारयोगेण शश्वत। अन्यादृक् स्यात् तदपि च गते यौवने देहभाजां सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम् ।।७।। अहो ! प्राणियों का जो शरीर युवावस्था रहने पर सदा विविध आहारों के संयोग से पुष्ट होने के कारण प्रचुर विभ्रम (विलास, हाव-भाव) को धारण करता है वह भी युवावस्था चली जाने पर अन्य प्रकार का हो जाता है। सूर्य के अभाव में निश्चय ही कमल अपनी पूर्ण शोभा को नहीं धारण करता है। मत्वाऽनित्यं जगदिति मनो मे विलग्न जिनोक्ते धर्मे शर्माभिलपति परं शाश्वतं शुद्धचिते ! मुग्धे ! स्निग्धां रघयसि मुधा मामुदीक्ष्य स्वकीयां खद्योतालीविलसितनिभां विधुदुन्मेषदृष्टिम् ।।८।। ८८. हे शुद्ध-चित्ते ! जगत् को अनित्य मान कर जिनोक्त धर्म में लगा मेरा मन श्रेष्ठ एवं शाश्वत् आनन्द की इच्छा करता है। मुझे देखकर तुम व्यर्थ ही अपनी विद्युत् की कौध के समान दृष्टि को जुगनू की पंक्ति के समान चमकने वाली क्यों बना रही हो। नारी यस्मिन्नमृतसदृशी मे बभूवाद्य यावद् रागग्रस्ते मनसि मदनव्यालविध्वस्तसंज्ञे। ध्वस्ते रागे गुरुभिरभवत् क्ष्वेडवत् साऽप्यनिष्टा या तत्र स्याद् युवतिविषये सृष्टिरायेव धातुः ।।४।। ८६. कामरूपी सर्प के ब्ररा नष्ट संज्ञा ( बोध, ज्ञान) वाले मेरे जिस प्रेमी मन में आज तक नारी अमृत के समान थी, अब गुरु के द्वारा प्रेमशून्य कर दिये जाने पर उसी मन में वह स्त्री भी विष के समान लगती है जो संभवतः विधाता की प्रथम रचना के समान सुन्दर है। अज्ञानं मे सपदि गलितं मोहमूच्र्छाऽप्यनेशज्जातं चित्तं सुतनु ! मम तन्निर्विकारं आणेन। स्वसा मृत्योरिव हि जरसा ग्रस्यमानां तनुं स्वां मन्ये जातां तुहिनमथितां पधिनी वाऽन्यरूपाम् ।।601 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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