Book Title: Sramana 1993 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमरा aaaaaaaa जुलाई-सितम्बर १६६३ वर्ष ४४ अंक ७-६ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादक प्रो० सागरमल जैन सम्पादक डा० अशोक कुमार सिंह सह-सम्पादक डा० शिव प्रसाद वर्ष ४५ ___ जुलाई-सितम्बर, १९९३ अंक ७-९ प्रस्तुत अङ्क में १. महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक दृष्टि : भगवद्गीता और जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में -डा० सागरमल जैन १ २. वृत्ति : बोध और विरोध ~महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ११ ३ शीलदूतम् हिन्दी अनुवाद सहित - वार्षिक शुल्क एक प्रति चालीस रुपये दस रुपये यह आवश्यक नहीं कि लेखक के विचारों से सम्पादक अथवा संस्थान सहमत हों। - . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक दृष्टि : भगवद्गीता और जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में डॉ. सागरमल जैन बौद्धिधर्म की महायान शाखा का विकास किन परिस्थितियों में और किन प्रभावों के परिणाम-स्वरूप हुआ तथा उसका जैन और औपनिषदिक एवं भगवदगीता के चिन्तन एवं जीवन मूल्यों से क्या सम्बन्ध रहा है, यही इस निबन्ध का विवेच्य विषय है। यह सत्य है कि बौद्धधर्म श्रमण परम्परा का धर्म है, किन्तु इसी सन्दर्भ में हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि बुद्ध ने जिस मध्यम मार्ग का प्रतिपादन किया वह निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का प्रवृत्तिमार्गी वैदिक परम्परा के साथ समन्वय का प्राथमिक प्रयास था। श्रमणधारा और वैदिक धारा मूलतः दो भिन्न जीवन दृष्टियों पर खड़ी हुई थीं। सामान्यतया श्रमण परम्परा से निवृत्तिमार्गी धर्मों का ग्रहण होता है। निवृत्तिमार्गी धर्म मूलतः निर्वाणलक्षी ज्ञानमार्गी एवं तपस्याप्रधान थे, उनका मूलभूत लक्ष्य तपस्या और ज्ञान के माध्यम से जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाना था। उनकी दृष्टि में सांसारिक अस्तित्व दुःखमय था और उससे छुटकारा पाना ही जीवन का आदर्श था। इसके विपरीत वैदिक परम्परा जीवन को और सांसारिक अस्तित्व को आशा भरी दृष्टि से देखती थीं। वर्तमान जीवन को सुखी एवं सम्पन्न बनाना ही उसका एक मात्र लक्ष्य था। यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि जहाँ वैदिक परम्परा में भौतिक सुख-समृद्धि की उपलब्धि ही जीवन का लक्ष्य बनी, वहाँ श्रमणधारा के प्रारम्भिक रूपों में जीवन के निषेध का स्वर ही अधिक उभरा। वस्तुतः वैदिक धाग और श्रमणधारा मानव जीवन के दो आधार -- देह और चेतना अथवा भोग और त्याग की दो भिन्तः जीवन दृष्टियों पर खड़ी हुई थीं। प्रारम्भिक वैदिक धर्म का लक्ष्य भोग और प्रारम्भिक श्रमण धर्मों का लक्ष्य त्याग रहा, दूसरे शब्दों में वैदिक धर्म प्रवृत्ति प्रधान और श्रमणधर्म निवात्त प्रधान बना। किन्तु मानव अस्तित्व इस प्रकार का है कि वह न केवल भोग पर और न केवल त्याग पर खड़ा रह सकता है, उसके अपने जीवन के लिए भोग और त्याग, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, वासना की सन्तुष्टि एवं विवेक का विकास सभी आवश्यक हैं। देहिक और सामाजिक मूल्यों के साथ ही उसके लिए नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य भी आवश्यक हैं। अतः परिणाम यह हुआ कि भोग एवं त्याग के एकान्तिक आधारों पर खड़ी हुई धर्म-परम्पराएँ उसे अपने जीवन का सम्यक समाधान नहीं दे सकीं। अतः भोग और त्याग तथा प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के मध्य एक समन्वय अथवा सम्यक् सन्तुलन बनाने का प्रयत्न हुआ। इस समन्वय की धारा को हम सर्वप्रथम ईशावास्योपनिषद् में देखते हैं जहाँ "तेन त्यक्तेन For Private & Pepsonal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक दृष्टि भुंजिथा" में त्याग और भोग का समन्वय किया गया है। वैदिक धारा में विकसित औपनिषदिक ' चिन्तन इस समन्वय का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। यही समन्वय की धारा आगे चलकर गीता में अधिक पुष्पित एवं पल्लवित हो जाती है। गीता की जीवन दृष्टि ईशावास्योपनिषद् की जीवन दृष्टि का ही एक विकसित रूप है। जिस प्रकार वैदिक धारा में उपनिषद् एवं गीता समन्वय की दृष्टि को लेकर आगे आते हैं उसी प्रकार श्रमण परम्परा में बौद्धधर्म समन्वय का सूत्र लेकर आगे आता है। यद्यपि प्रारम्भिक बौद्धधर्म ने प्रवृत्ति एवं निवृत्ति तथा व्यक्ति और समाज के मध्य एक समन्वय का प्रयत्न तो किया था, किन्तु उसे विकसित किया महायान परम्परा ने। वैदिक परम्परा में यदि गीता प्रवृत्ति और निवृत्ति के मध्य एक उचित समन्वय का प्रयास है तो श्रमण परम्परा में महायान सम्प्रदाय प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के मध्य एक सांग-संतुलन को प्रस्तुत करता है। इसी दृष्टि से हम कह सकते हैं कि भगवद्गीता और महायान परम्परा एक दूसरे के अधिक निकट हैं। दोनों में यदि कोई अन्तर है तो वह अन्तर उनके उद्गम स्थल या उनकी मूल धारा का है। अपने उद्गम के दो भिन्न केन्द्रों पर होने के कारण ही उनमें भिन्नता रही हुई है। वे अपनी मूलधारा से टूटना नहीं चाहते हैं अन्यथा दोनों की समन्वयात्मक जीवन-दृष्टि लगभग समान हैं। अनेक तथ्यों के सन्दर्भो में हम उनकी इस समन्वयात्मक जीवन-दृष्टि को देख सकते गृहस्थ धर्म बनाम संन्यास प्रारम्भिक वैदिक धर्म में संन्यास का तत्त्व अनुपस्थित था, गृहस्थ जीवन को ही एक मात्र जीवन का कर्मक्षेत्र माना जाता था। प्रारम्भिक वैदिक ऋषि पत्नियों से युक्त थे, जबकि श्रमण परम्परा प्रारम्भ से ही संन्यास को प्राथमिकता देती थी तथा पारिवारिक जीवन को बन्धन मानती थी। वैदिक धर्म में यद्यपि आगे चलकर निवृत्तिमार्गी श्रमणधर्म के प्रभाव के कारण वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों का प्रवेश हुआ, किन्तु फिर भी उसमें गृही जीवन को ही जीवन का उच्चतम आदर्श तथा सभी आश्रमों का आधार समझा गया और "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति" कहकर गृही जीवन के दायित्वों को निर्वाह करने हेतु बल दिया गया। जबकि प्रारम्भिक श्रमण परम्पराओं में गृहस्थ जीवन की निन्दा की गयी और संन्यास को ही निर्वाण या मुक्ति का एक मात्र उपाय माना गया। प्रारम्भिक जैन एवं बौद्धधर्म गृहस्थ जीवन की निन्दा करते हैं। जैन आगम दशवैकालिकसूत्र (चूलिका १/११-१३ ) में कहा गया है कि गृहस्थ जीवन क्लेश युक्त है, संन्यास क्लेश युक्त, गृहस्थ जीवन पापकारी है, संन्यास निष्पाप है। इसी प्रकार सुत्तनिपात (२७/२) में भी संन्यास जीवन की प्रशंसा तथा गृहस्थ की निन्दा करते हुए कहा गया है कि गृहस्थ जीवन कण्टकों से पूर्ण वासनाओं का घर है जबकि प्रव्रज्या खुले आसमान के समान For Private.& PeQonal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. सागरमल जैन निर्मल है। जैन एवं बौद्ध दोनों ही धर्मों के प्राचीन ग्रन्थों में हमें ऐसा कोई उल्लेख देखने को नहीं मिला जिसमें गृहस्थ जीवन से सीधे मुक्ति की प्राप्ति सम्भव मानी गयी हो। जैन आगम उपासकदशांग में दश गृहस्थ उपासकों का जीवन वृत्तान्त वर्णित है, किन्तु उनको केवल स्वर्गवासी बताया गया है मोक्षगामी नहीं। इसी प्रकार पिटक साहित्य में बुद्ध स्पष्ट रूप से इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि गृहस्थ को छोड़े बिना निर्वाण सम्भव नहीं, किन्तु इसके विपरीत हम यह देखते हैं कि महायान परम्परा और जैनों की श्वेताम्बर परम्परा तथा भगवद्गीता स्पष्ट रूप से इस बात को स्वीकार कर लेते हैं कि निर्वाण या मुक्ति के लिए गृही जीवन का त्याग अनिवार्य नहीं है। महायान साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ साधक गृहस्थ जीवन से सीधा ही मुक्ति लाभ प्राप्त करता है। इसी प्रकार गीता मुक्ति के लिए संन्यास को आवश्यक नहीं मानती। उसके अनुसार गृहस्थ भी मुक्ति का अधिकारी है। महायान, श्वेताम्बर जैन परम्परा और भगवद्गीता में किसके प्रभाव से यह अवधारणा विकसित हुई यह बता पाना तो कठित है लेकिन इतना स्पष्ट है कि भारतीय चिन्तन में ईसा की प्रथम शताब्दी में प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच अथवा संन्यास एवं गही जीवन के बीच जो समन्वयात्मक प्रवृत्ति विकसित हुई, वह इसका ही परिणाम है। इन तीनों ही परम्पराओं में यह स्वीकार कर लिया गया है कि निर्वाण के लिए संन्यास अनिवार्य तत्त्व नहीं है। मुक्ति का अनिवार्य तत्त्व है-- अनासक्त, निष्काम, वीततृष्ण और वीतराग जीवन दृष्टि का विकास। फिर भी इतना अवश्य मानना होगा कि यह श्रमण परम्परा पर वैदिक धारा का प्रभाव ही था जिसके कारण उसमें गृहस्थ जीवन को भी कुछ सीमाओं के साथ अपना महत्त्व एवं स्थान प्राप्त हुआ। फिर भी जहाँ महायान और जैन परम्परा में भिक्षु संघ की श्रेष्ठता मान्य रही, वहाँ गीता में "कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते" कहकर गृही जीवन की श्रेष्ठता को मान्य किया गया। व्यक्तिकता बनाम सामाजिकता यह स्पष्ट है कि प्रारम्भिक श्रमण परम्पराएँ निवृत्तिमार्गी होने के कारण व्यक्तिनिष्ठ थीं। व्यक्ति की मुक्ति और व्यक्ति का आध्यात्मिक कल्याण ही उनका आदर्श था। प्रारम्भिक बौद्धधर्म एवं जैनधर्म भी हमें व्यक्तिनिष्ठ ही परिलक्षित होते हैं। जबकि प्रारम्भिक वैदिक धर्म में पारिवारिक जीवन की स्वीकृति के साथ ही सामाजिक चेतना का विकास देखा जाता है। वेदों में "संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानतां" अथवा "समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सहचित्त्मेषाम्" के रूप में सामाजिक चेतना का स्पष्ट उद्घोष है। यद्यपि प्रारम्भिक श्रमण परम्पराएँ घर-परिवार और सामाजिक जीवन से विमुख ही रही हैं फिर भी प्रारम्भिक बौद्धधर्म और जैनधर्म में श्रमण संघों के अस्तित्व के साथ एक दूसरे प्रकार की सामाजिक चेतना का विकास अवश्य हुआ है। इन्होंने क्रमशः "चरत्थ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" अथवा "सपेच्चलोयं ----- खेयन्ने हि पवइए" के रूप में लोकमंगल और लोक-कल्याण की बात कही है। फिर भी इनके लिए लोकमंगल और लोक-कल्याण का अर्थ इतना ही था कि संसार के प्राणियों को जन्म मरण के दुःख से मुक्त किया जाए। समाज का Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक दृष्टि भौतिक कल्याण और समाज के दीन-दुःखियों को वास्तविक सेवा का व्यवहार्य पक्ष उनमें स्पष्ट रूप से परिलक्षित नहीं होता है। भिक्षु-जीवन में संघीय चेतना का विकास तो हुआ था, फिर भी वह समाज के सामान्य सदस्यों के भौतिक कल्याण के साथ जुड़ नहीं पाया। जैनधर्म का भिक्षु संघ तो आज तक भी समाज के वास्तविक भौतिक कल्याण तथा रोगी और दुःखियों की सेवा को अपनी जीवन चर्या का आवश्यक अंग नहीं मानता है। मात्र सेवा का उपदेश देता है, करता नहीं है। श्रमण परम्पराओं ने सामाजिक जीवन में सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयत्न किया और उन तथ्यों का निराकरण भी किया जो सामाजिक जीवन को दूषित करते थे। फिर भी वे अपनी निवृत्तिमार्गी दृष्टि के कारण विधायक सामाजिकता का सृजन नहीं कर सके। निवृत्तिमागी परम्परा में सामाजिक-चेतना का सर्वाधिक विकास यदि कहीं हुआ है तो वह महायान परम्परा में। महायान परम्परा में सामाजिक चेतना का जो विकास है उसे बोधिचर्यावतार में बहुत स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। समाज की आंगिकता का सिद्धान्त, जो आज बहुत चर्चा के विषय हैं, उसका स्पष्ट उल्लेख भी उसमें प्राप्त है। बौद्धधर्म की महायान शाखा ने तो लोकमंगल के आदर्श को ही अपनी नैतिकता का प्राण माना। वहाँ तो साधक लोकमंगल के आदर्श की साधना में परममूल्य निर्वाण की भी उपेक्षा कर देता है, उसे अपने वैयक्तिक निर्वाण में कोई रुचि नहीं रहती है। महायानी साधक कहता है -- दूसरे प्राणियों को दुःख से छुड़ाने में जो आनन्द मिलता है, वही बहुत काफी है। अपने लिए मोक्ष प्राप्त करना नीरस है, उससे हमें क्या लेना देना।' साधना के साथ सेवा की भावना का कितना सुन्दर समन्वय है। लोकसेवा, लोक-कल्याण-कामना के इस महान् आदर्श को देखकर हमें बरबस ही श्री भरतसिंहजी उपाध्याय के स्वर में कहना पड़ता है, कितनी उदात्त भावना है। विश्व-चेतना के साथ अपने को आत्मसात् करने की कितनी विह्वलता है। परार्थ में आत्मार्थ को मिला देने का कितना अपार्थिव उद्योग है। आचार्य शान्तिदेव भी केवल परोपकार या लोक-कल्याण का सन्देश नहीं देते, वरन उस लोक-कल्याण के सम्पादन में भी पूर्ण निष्कामभाव पर बल देते हैं। निष्कामभाव से लोक-कल्याण कैसे किया जाये, इसके लिए शान्तिदेव ने जो विचार प्रस्तुत किये हैं, वे उनके मौलिक चिन्तन का परिणाम हैं। गीता के अनुसार व्यक्ति ईश्वरीय प्रेरणा को मानकर निष्कामभाव से कर्म करता रहे अथवा स्वयं को और सभी साथी प्राणियों को उसी पर ब्रह्म का ही अंश मानकर सभी में आत्मभाव जागत कर बिना आकांक्षा के कर्म करता रहे। लेकिन निरीश्वरवादी और अनात्मवादी बौद्ध दर्शन में तो यह सम्भव नहीं था। यह तो आचार्य की बौद्धिक प्रतिभा ही है, जिसने मनोवैज्ञानिक आधारों पर निष्कामभाव से लोकहित की अवधारणा को सम्भव बनाया। समाज के सावयवता के जिस सिद्धान्त के आधार पर ब्रेडले प्रभृति पाश्चात्य विचारक लोकहित और स्वहित में समन्वय साधते हैं और उन विचारों की मौलिकता का दावा करते हैं, वे विचार आचार्य शान्तिदेव के ग्रन्थों में बड़े स्पष्ट रूप से प्रकट हुए हैं और उनके आधार पर उन्होंने निःस्वार्थ कर्मयोग की अवधारणा को भी सफल बनाया है। वे कहते हैं कि, जिस प्रकार निरात्मक (अपनेपन के भाव रहित) निज शरीर में Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. सागरमल जैन अभ्यासवश अपनेपन का बोध होता है, वैसे ही दूसरे प्राणियों के शरीरों में अभ्यास से ममत्वभाव अवश्य ही उत्पन्न होगा, क्योंकि जैसे हाथ आदि अंग अपने शरीर के अवयव होने के कारण प्रिय होते हैं, वैसे ही सभी प्राणी उसी जगत् के, जिसका मैं अवयव हूं, अवयव होने के कारण प्रिय होंगे, उनमें भी आत्मभाव होगा और यदि सब में प्रियता एवं आत्मभाव उत्पन्न हो गया तो फिर दूसरों के दुःख दूर किये बिना नहीं रहा जा सकेगा, क्योंकि जिसका जो दुःख हो वह उससे अपने को बचाने का प्रयत्न तो करता है। यदि दूसरे प्राणियों को दुःख होता है, तो हमको उससे क्या? ऐसा मानों तो हाथ को पैर का दःख नहीं होता, फिर क्यों हाथ से पैर का कंटक निकालकर दुःख से उसकी रक्षा करते हो । जैसे हाथ पैर का दुःख दूर किये बिना नहीं रह सकता, वैसे ही समाज का कोई भी प्रज्ञायुक्त सदस्य दूसरे प्राणी का दुःख दूर किये बिना नहीं रह सकता। इस प्रकार आचार्य समाज की सावयवता को सिद्ध कर उसके आधार पर लोकमंगल का सन्देश देते हुए आगे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि इस लोकमंगल की साधना में निष्कामता होनी चाहिए। वे लिखते हैं -- "जिस प्रकार अपने आपको भोजन कराकर फल की आशा नहीं होती है, उसी प्रकार परार्थ करके भी फल की आशा, गर्व याविषय नहीं होता है।"2 क्योंकि परार्थ द्वारा हमें अपने ही समाजरूपी शरीर की या उसक अवयवों की सन्तुष्टि करते हैं इसलिए एकमात्र परोपकार के लिए ही परोपकार करके, न गर्व करना और न विस्मय और न विपाकफल की इच्छा ही।" महायान में बोधिसत्त्व और गीता में स्थितप्रज्ञ के जो आदर्श हैं वे व्यक्ति के स्थान पर समाज को महत्त्व देते हैं। उन्होंने वैयक्तिक कल्याण या स्वहित के स्थान पर सामाजिक कल्याण को महत्त्व दिया है और इस प्रकार व्यक्ति के ऊपर समाज को प्रतिष्ठित किया है। महायान के बोधसत्त्व का. लक्ष्य मात्र वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना नहीं। वह तो लोकमंगल के लिए अपने बन्धन और दुःख की भी कोई परवाह नहीं करता है। वह कहता "बहुनामेकदुःखेन यदि दुःख विगच्छति, उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनो। मुच्यमानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रमोद्यसागराः, तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षणारसिकेन किम् ।।" यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो करुणापूर्वक उनके दुःख दूर करना ही अच्छा है। प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है वही क्या कम है, फिर नीरस मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है। वैयक्तिक मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के लिए अपने संकल्प को स्पष्ट करते हुए भागवत, जिसमें गीता के चिन्तन का ही विकास देखा जाता है, के सप्तम स्कन्ध में प्रहलाद ने भी स्पष्ट रूप से कहा था कि -- "प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक दृष्टि मौनं घरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः ।। नेतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्षुरेकः।" हे प्रभु ! अपनी मुक्ति की कामना करने वाले देव और मुनि तो अब तक काफी हो चुके हैं, जो जंगल में जाकर मौन साधना किया करते थे। किन्तु उनमें परार्थ-निष्ठा नहीं थी। मैं तो अकेला इन सब दुःखीजनों को छोड़कर मुक्त होना भी नहीं चाहता। स्वहित बनाम लोकहित का प्रश्न जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया -- प्रारम्भिक श्रमणधर्म एकान्त साधना और वैयक्तिक मुक्ति पर ही बल देते थे। यद्यपि हमें ध्यान यह रखना होगा कि उनकी यह एकान्त साधना और वैयक्तिक मुक्ति की अवधारणा जन कल्याण के विपरीत नहीं थी फिर भी उसमें लोकहित का एक विधायक पक्ष उपलब्ध नहीं होता है। सम्भवतः भगवान् बुद्ध प्रथम श्रमण थे, जिन्होंने लोकमंगल की चेतना को विकसित किया है। पालि अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध का कथन है कि भिक्षुओं, जैसे पानी का तालाब गन्दा हो, चंचल हो और कीचड़-युक्त हो, वहाँ किनारे पर खड़े आंख वाले आदमी को न सीधी दिखाई दे, न शंख, न कंकड़, न पत्थर, न चलती हुई या स्थिर मछलियां दिखाई दें। यह ऐसा क्यों? भिक्षुओं, पानी के गंदला होने के कारण। इसी प्रकार भिक्षुओं, इसकी सम्भावना नहीं है कि वह भिक्षु मैले (राग-द्वेषादि से युक्त) चित्त से आत्महित जान सकेगा, परहित जान सकेगा, उभयहित जान सकेगा और सामान्य मनुष्य धर्म से बढ़कर विशिष्ट आर्य-ज्ञान-दर्शन को जान सकेगा। इसकी सम्भावना है कि भिक्षु निर्मल चित्त से आत्महित को जान सकेगा, परहित की जान सकेगा, उसयहित को जान सकेगा, सामान्य मनुष्य धर्म से बढ़कर विशिष्ट आर्य-दर्शन को जान सकेगा। बुद्ध के इस कथन का सार यही है कि जीवन में जब तक राग-द्वेष और मोह की वृत्तियाँ सक्रिय हैं, तब तक आत्महित और लोकहित की यथार्थदृष्टि उत्पन्न नहीं होती है। राग और द्वेष का प्रहाण होने पर ही सच्ची दृष्टि का उदय होता है और जब यह यथार्थदृष्टि उत्पन्न हो जाती है तब स्वार्थ, परार्थ और उभयार्थ में कोई विरोध ही नहीं रहता। हीनयान या स्थविरवाद में जो स्वहितवाद अर्थात् आत्मकल्याण के दृष्टिकोण का प्राधयन्य है, उसका मूल कारण तत्कालीन परिस्थितियां मानी जा सकती है, फिर भी हीनयान का उस लोकमंगल की साधना से मूलतः कोई विरोध नहीं है, जो वैयक्तिक नैतिक विकास में बाधक न हो। जिस अवस्था तक वैयक्तिक नैतिक विकास और लोकमंगल की साधना में अविरोध है, उस अवस्था तक लोकमंगल उसे भी स्वीकार है। मात्र वह लोकमंगल के लिए आन्तरिक और नैतिक विशुद्धि को अधिक महत्त्व देता है। आन्तरिक पवित्रता एवं नैतिक विशुद्धि से शून्य होकर फलाकांक्षा से युक्त लोकसेवा के आदर्श को वह स्वीकार नहीं करता। उसकी समग्र आलोचनाएँ ऐसे ही लोकहित के प्रति हैं। भिक्षु पारापरिय ने, बुद्ध के परवर्ती भिक्षुओं में लोकसेवा का जो थोथा आदर्श जोर पकड़ गया था, उसकी समालोचना में निम्न विचार प्रस्तुत किये हैं : लोगों की सेवा काय से करते हैं, धर्म से नहीं। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. सागरमल जैन दूसरों को धर्म का उपदेश देते हैं, (अपने ) लाभ के लिए, न कि ( उनके ) अर्थ के लिए। स्थविरवादी भिक्षुओं का विरोध लोकसेवा के उस रूप से है जिसका सेवा-रूपी शरीर तो है लेकिन जिसकी नैतिक चेतनारूपी आत्मा मर चुकी है। वह लोकसेवा सेवा नहीं, सेवा का प्रदर्शन है, दिखावा है, ढोंग है, छलना है, आत्मप्रवंचना है। डॉ. भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार एकांतता की साधना की प्रारम्भिक बौद्धधर्म में प्रमुखता अवश्य थी, परन्तु सार्थक तथ्य यह है कि उसे लोकसेवा के या जनकल्याण के विपरीत वहाँ कभी नहीं माना गया। बल्कि यह तो उसके लिए एक तैयारी थी। दूसरी ओर यदि हम महायानी साहित्य का गहराई से अध्ययन करें तो हमें बोधिचर्यावतार, शिक्षासमुच्चय, लंकावतारसूत्र जैसे ग्रन्थों में भी कहीं ऐसी सेवाभावना का समर्थन नहीं मिलता जो नैतिक जीवन के व्यक्तिगत मूल्यों के विरोध में खड़ी हो। लोकमंगल का जो आदर्श महायान परम्परा ने प्रस्तुत किया है, वह भी ऐसे किसी लोकहित का समर्थन नहीं करता, जिसके लिए वैयक्तिक नैतिकता को समाप्त कर दिया जाये। इस प्रकार सैद्धांतिक दृष्टि से लोकहित और आत्महित की अवधारणा में हीनयान और महायान में कोई मौलिक विरोध नहीं रह जाता। यद्यपि व्यावहारिक रूप में यह तथ्य सही है कि जहाँ एक ओर हीनयान ने एकांगी साधना और व्यक्तिनिष्ठ आचार-परम्परा का विकास किया और साधना को अधिकांश रूपेण आन्तरिक एवं वैयक्तिक बना दिया, वहीं दूसरी ओर महायान ने उसी की प्रतिक्रिया में साधना के वैयक्तिक पक्ष की उपेक्षा कर उसे सामाजिक और बहिर्मुखी बना दिया। इस तरह लोकसेवा और लोकानुकम्पा को अधिक महत्त्व दिया। यहां हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि हीनयान और महायान ने जिस सीमा तक अपने में इस ऐकान्तिकता को प्रश्रय दिया है, वे उसी सीमा तक बुद्ध की मध्यममार्गीय देशना से पीछे भी हटे हैं। स्वहित और लोकहित के सम्बन्ध में गीता का मन्तव्य गीता में सदैव ही स्वहित के ऊपर लोकहित की प्रतिष्ठा हुई है। गीताकार की दृष्टि में जो अपने लिए ही पकाता है और खाता है वह पाप ही खाता है। स्वहित के लिए जीने वाला व्यक्ति गीता की दृष्टि में अधार्मिक और नीच है। गीताकार के अनुसार जो व्यक्ति प्राप्त लोगों को देने वाले देवों को दिए बिना, उनका ऋण चुकाये बिना खाता है वह चोर है। सामाजिक दायित्वों का निर्वाह न करना गीता की दृष्टि में भारी अपराध है। ___गीता के अनुसार लोकहित करना मनुष्य का कर्तव्य है। र्वप्राणियों के हित सम्पादन में लगा हुआ पुरुष ही परमात्मा को प्रापत करता है। वह ब्रह्म-निर्वाण का अधिकारी होता है। जिसे कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है अर्थात जो जीवन मुक्त हो गया है, जिसे संसार के प्राणियों से कोई मतलब नहीं, उसे भी लोक-हितार्थ कर्म करते रहना चाहिए।१० श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि लोकसंग्रह (लोकहित) के लिए तुझे कर्तव्य करना उचित है। गीता में भगवान् के अवतार धारण करने का उद्देश्य साधुजनों की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की संस्थापना है।१२ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक दृष्टि ऐसी लोकमंगल की सर्वोच्य भावना का प्रतिबिम्ब हमें आचार्य शान्तिदेव के शिक्षासमुच्चय नामक ग्रन्थ में मिलता है। हिन्दी में अनूदित उनकी निम्न पंक्तियां मननीय हैं : इस दुःखमय नरलोक में, जिनते दलित, बन्धग्रसित पीड़ित विपत्ति विलीन हैं, जिनते बहुधन्धी विवेक विहीन हैं। जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदीन हैं, वे मुक्त हो निजबन्ध से, स्वच्छन्द हो सब द्वन्द्र से, छूटे दलन के फन्द से, हो ऐसा जग में, दुःख से विलखे न कोई, वेदनार्थ हिले न कोई, पाप कर्म करे न कोई, असन्मार्ग धरे न कोई, हो सभी सुखशील, पुण्याचार धर्मव्रती, सबका हो परम कल्याण, सबका हो परम कल्याण।१३ भोगवाद बनाम बैराग्यवाद भोगवाद और वैराग्यवाद भारतीय चिन्तन की आधारभूत धारणायें हैं। वैराग्यवाद निवर्तक धर्मों का मूल है तो भोगवाद प्रवर्तक धर्मों का। वैराग्यवाद शरीर और आत्मा तथा वासना और विवेक के द्वैत पर आधारित धारणा है। वह यह मानता है कि यह शरीर बन्धन का कारण है और समस्त अधर्मों का मूल है, अतः शरीर और इन्द्रयों की मांगों को ठुकराना ही श्रेयस्कर है। इसके विपरीत भोगवाद यह मानता है कि शरीर की मांगों की पूर्ति करना उचित एवं नैतिक है। भारतीय परम्परा में जैनधर्म विशुद्ध रूप से वैराग्यवादी परम्परा का समर्थक रहा है और इसी दृष्टि से उसने किसी सीमा तक देह दण्डन और आत्म-पीड़न के तथ्यों की अपनी साधना पद्धति का अंग भी माना । जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया |मण परम्परा के भगवान् बुद्ध प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने इन दोनों के मध्य एक संतुलन बनाते हुए मध्यम मार्ग का उपदेश देता है। बुद्ध कठोर मार्ग (देह दण्डन) और शिथिल मार्ग (भागवाद) दोनों को ही अस्वीकार करते हैं। बुद्ध के अनुसार यथार्थ नैतिक जीवन का मार्ग मध्यम मार्ग है। उदान में भी बुद्ध अपने इसी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं -- "ब्रह्मचर्य (संन्यास) के साथ व्रतों का पालन करना ही सार है -- यह एक अन्त है। काम-भागों के सेवन में कोई दोष नहीं यह दूसरा अन्त है। इन दोनों प्रकार के अन्तों के सेवन से संस्कारों की वृद्धि होती है और मिथ्या धारणा बढ़ती है।" इस प्रकार बुद्ध अपने मध्यममार्गीय दृष्टिकोण के आधार पर वैराग्यवाद और भोगवाद में यथार्थ समन्वय स्थापित करते हैं। भगवान बुद्ध ने जिस मध्यम मार्ग के विकास का उपदेश दिया था उसी का विकास महायान परम्परा में हुआ यद्यपि यह सत्य है कि मध्यम मार्ग का उपदेश देते हुए भी बुद्ध ने भोग की अपेक्षा वैराग्य पर कुछ अधिक बल दिया था जबकि महायान साधाना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. सागरमल जैन किसी सीमा तक भोगवाद की ओर अधिक झुक गयी। महायान बौद्ध आचार्य अनंका वज़ कहते हैं कि चित्त क्षुब्ध होने से कभी भी मुक्ति नहीं होती अतः इस प्रकार बरतना चाहिये कि जिससे मानसिक क्षोभ उत्पन्न न हो। वासनाओं के दमन की प्रक्रिया चित्त शान्ति की प्रक्रिया नहीं है। यही कारण है कि आगे चलकर महायान में दैहिक इच्छाओं के दमन को अनुचित माना गया, यद्यपि यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि भोगमार्ग की ओर महायान का यह झुकाव उसे वाममार्ग की दिशा में प्रवृत्त कर देता है। दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति और आत्म-पीड़न की आलोचना के सम्बन्ध में महायान का दृष्टिकोण गीता के अत्यन्त निकट है। गीता का अनासक्ति योग भी भोगवाद और वैराग्यवाद की समस्या का यथार्थ समाधान प्रस्तुत करता है। यद्यपि गीता में अनेक स्थानों पर वैराग्य भाव का उपदेश है, किन्तु यह स्पष्ट है कि गीता वैराग्य के नाम पर देह-दण्डन की प्रक्रिया की समर्थक नहीं है। निष्कर्ष __ यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो स्पष्ट रूप से यह पाते हैं कि महायान सम्प्रदाय ने प्रवर्तक धर्म की अनेक अवधारणाओं को श्रमण परम्परा के अनुरूप रुपान्तरित किया है, वह उसकी अपनी मौलिक विशेषता है। गृहस्थजीवन से सीधे निर्वाण की सम्भावना को स्वीकार उसने सन्यास और गही जीवन के मध्य एक सार्थक सन्तुलन बनाया है जिसमें संन्यास का महत्त्व भी यथावत् सुरक्षित रह सका है। इसके साथ ही श्रमण संस्था को समाज-सेवा और लोकमंगल का भागीदार बनाकर श्रमण परम्परा पर होने वाले स्वार्थवादिता के आक्षेप का परिहार कर दिया है और भिक्षु संघ को समाज जीवन का एक उपयोगी अंग बना दिया है। वैदिक धर्म या गीता की अवतारवाद की अवधारणा को परिमार्जित कर श्रमण परम्परा के अनुरुप बोधिसत्त्वों की अवधारणा प्रस्तुत की। यहां हम स्पष्ट रूप से यह देखते हैं कि अवतार के समान बोधिसत्त्व भी लोकमंगल के लिए अपने जीवन को उत्सर्ग कर देता है -- प्राणियों का कल्याण ही उसके जीवन का आदर्श है। बोधिसत्त्व और अवतार की अवधारणा में तात्विक अन्तर होते हुए लोकमंगल के सम्पादन में दोनों समान रूप से प्रवृत्त होते हैं। जैनों के तीर्थंकर और हीनयान के बुद्ध के आदर्श ऐसे आदर्श हैं, जो निर्वाण के उपरान्त अपने भक्तों की पीड़ा के निवारण में सक्रिय रूप से साझीदार नहीं बन सकते हैं। अतः भक्त हृदय और मानव को सन्तोष देने के लिए जहाँ जैनों ने शासन देव और देवियों ( यक्ष-यक्षियों) की अवधारणा प्रस्तुत की, तो महायान सम्प्रदाय ने तारा आदि देवी-देवताओं की अपनी साधना में स्थान प्रदान किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि महायान सम्प्रदाय वैदिक परम्परा में विकसित गीता की अनेक अवधारणाओं से वैचारिक साम्य रखता है। प्रवृत्तिमार्गी धर्म के अनेक तत्त्व महायान परम्परा में इस प्रकार आत्मसात हो गये कि आगे चलकर उसे भारत में हिन्दू धर्म के सामने अपनी अलग पहचान बनाये रखना कठिन हो गया और उसे हिन्दू धर्म ने आत्मसात् कर लिया है। जबकि जैनधर्म निवृत्त्यात्मक पक्ष पर बराबर बल देता रहा और इस प्रकार उसने अपना अस्तित्व बनाये रखा। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बोधिचर्यावतार, 8/99 2. वही, 8/116 3. वही, 8/109 4. अंगुत्तरनिकाय, 1/5 5. थेरगाथा, 941-942 6. बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ. 609 7. गीता, 3 / 13 8. वही, 3 / 12 9. वही, 5 / 25, 12/4 10. वही, 3/18 11. वही, 3 / 20 12. वही, 4/8 13. शिक्षासमुच्चय, सन्दर्भ-ग्रन्थ अनुदित धर्मदूत, मई 1941 महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक दृष्टि प्रो. सागरमल जैन का विश्वधर्म सम्मेलन के लिए शिकागो प्रस्थान पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी के निदेशक डॉ. सागरमल जैन ने स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस, बम्बई की ओर से 'पार्लियामेन्ट आफ वर्ल्ड रिलीजन्स' में भाग लेने हेतु दिनांक २५ अगस्त, १९६३ को शिकागो हेतु प्रस्थान किया । आप शिकागो में आयोजित 'विश्वधर्म संसद में विश्व धर्मों की बन्धुता पर जैनधर्म का दृष्टिकोण प्रस्तुत करेंगे। साथ ही 'विश्व समस्याओं के समाधान में जैनों के अवदान' विषय पर भी एक व्याख्यान देंगे। इसके अतिरिक्त आप न्यूयार्क, वाशिंगटन, सेन फ्रांसिस्को, लास - ऐन्जिल्स आदि नगरों की यात्राएँ कर वहाँ भी जैनधर्म और दर्शन के विविध विषयों पर अपने व्याख्यान देंगे। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्ति : बोध और निरोध - महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर चित्त जीवन की सूक्ष्म संहिता है। यह शरीर की अन्तर-रचना है। इसका निर्माण परमाणुओं के जरिये हुआ है, इसलिए चित्त वास्तव में परमाणुओं की ढेरी है। जितने परमाणु, उतने ही चित्त के अभिव्यक्त रूप। परमाणुओं का क्या, सुई की नोंक में अनगिनत परमाणु समा सकते हैं। इस हिसाब से चित्त के परमाणु अनन्त हैं। रेगिस्तान के रेत-टीलों की तरह यह सटा-बिखरा पड़ा है। रेगिस्तान का हर कण टीले की तलहटी पर भी स्वतन्त्र है और उसके शिखर पर भी। चित्त के सारे परमाणु एक-जैसे ही हों, यह कोई अनिवार्य नहीं है। चित्त के हजार जाल हैं। समान और समानान्तर-दोनों सम्भावनाओं को यह अपने गर्भ-गृह में समेटे रख सकता है। देख नहीं रहे हो, जीवन कितने विरोधाभासों से भरा है और उन सारे विरोधाभासों का सम्मेलन स्वयं हमारा चित्त है -- हमारे हिस्से के सब ख्वाब बँटते जाते हैं। वो दिन भी कट गये, ये दिन भी कटते जाते हैं।। चित्त द्वारा की जाने वाली हर पहल नये निर्माण का संकल्प है, किन्तु उसका प्रत्येक निर्माण स्वयं उसी के लिए चुनौती है। आखिर जीवन के चौराहे पर एक ही मार्ग से यात्रा की जा सकती है, पर मनुष्य के लिए सबसे बड़ी जीवन्त समस्या यही है कि वह चौराहे के चारों मार्गों को माप लेना चाहता है। नतीजा यह होता है कि उसका हर निर्णय सन्देह के गलियारों में अभिशाप्त हो कर भटकता रहता है। मैं धर्म को जीवन की चिकित्सा और जीवन का स्वास्थ्य स्वीकार करता हूँ। जीवन की जीवन्तता मात्र शरीर की नीरोगता में नहीं, वरन् चित्त की स्वस्थता में है। जीवन कोरा शरीर नहीं है। वह शरीर और चित्त दोनों का मिलाप है। उसके पार भी है। चैतन्य-गंगोत्री ही तो वह आधार है, जहाँ से जीवन के सारे घटकों को ऊर्जा की ताजा धार मिलती है। धर्म का अर्थ किसी के सामने केवल मत्था टेकना नहीं है, वरन् जीवन की धारा को बँटने बिखरने से रोकना है। धर्म योग है और पतंजलि की भाषा में चित्त निरोध योग की पहल है -- योगश्चित्तवत्ति निरोधः । मैं धर्म की परिभाषा सिर्फ निरोध तक ही नहीं जोडूंगा, क्योंकि धर्म योग है और योग निरोध से बेहतर है। योग हमें जोड़ता है, एक धारा से, जीवन की धारा से। योग न केवल चित्त की वृत्तियों से हमें निवृत्त करता है वरन् चैतन्य-जगत् की ओर प्रवृत्त भी करता है। __ चैतन्य-प्रेम ही तो अहिंसा की अस्मिता है। चैतन्य का आह्वान हो सकता है। चैतन्य से प्रेम हो सकता है। प्रेम तो हमेशा अच्छा ही होता है। खतरा तो तब पैदा होता है जब प्रेम शरीर Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारस. वाय आरनिराध का, शरीर के साथ होता है। यह चैतन्य-प्रेम नहीं है। यह तो भोग-प्रेम है और हर भोग-प्रेम में जीवन पर मन एवं वृत्तियों का प्रभुत्व है। चैतन्य-जगत् से प्यार करने वाले के लिए न करुणा है और न वात्सल्य । उसके लिए तो सिर्फ प्रेम और मैत्री ही है। करुणा हम तब करेंगे जब अपने से ज्यादा किसी को करुणाशील मानेंगे। वात्सल्य की बारिश हमारे द्वारा तब होगी जब दूसरों को अपने स्नेह का पात्र मानेंगे। क्या कभी सोचा कि महावीर जैसे बुद्ध पुरुष भी अपने शिष्यों को नमस्कार करते थे? महावीर की "णमोतित्थस्स" शब्दावली की मूल अस्मिता यही है। नमस्कार छोटे कद, बड़े कद, छोटी उम्र, बड़ी उम्र से जुड़ा नहीं होता। नमस्कार का सम्बन्ध तो चैतन्य- अस्मिता से है। जीवित को नमस्कार किया जाता है और मृत को दफनाया जाता है। जिसे हम क्षुद्र समझते हैं, चैतन्य-पुरुष की दृष्टि में उनमें भी वे ही विराट सम्भावनाएँ हैं, जो स्वयं उनमें गुलाब के फूल की पंखुड़ियों की तरह खिली हैं। उन सम्भावनाओं को मेरा भी प्रणाम है। और मैं यह कहना चाहूँगा कि वे विराट सम्भावनाएँ हम सबसे जुड़ी हैं। जब तक आत्मसात् न हो जाएँ, तब तक सिर्फ वाणी- विलास लगती है। अभिव्यक्ति बलवती तो तब होती है, जब वह अनुभूति के साँचे से ढल कर गुजरती है। अभ्यास से सब कुछ सहज होता है, अगर बाहर में राहों को तलाशती आंखें जरा भीतर मुड़ जाएँ, तो जीवन के देवदार वृक्षों पर बड़ी आसानी से चढ़ सकोगे और स्वयं की सम्भावनाओं को साकार भी कर सकोगे। जीवन के बाहरी दायरों में आनन्द को ढूँढ़ती निगाहों को थोड़ा समझाओ। आकर्षण और विकर्षण से कुछ ऊपर उठो और साधो स्वयं को प्रयत्नपूर्वक-- "अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः" चित्त की वृत्तियों का निरोध अभ्यास और वैराग्य से सम्पन्न होता है। यदि जीवन के अन्तर-विश्व का ग्लोब बडी बारीकी से पढ़ना है तो चित्त-वृत्तियों के कोहरे के धुंधलेपन को पहले साफ करना होगा। हम देखना तो चाहते हैं हिमालय के उन बर्फीले पर्वतों को, उनपर ये जो कोहरा छाया है, वातावरण में जो ओस घिरी है, तो वे कहाँ से दिखायी देंगे। अनुमान से अगर हल्की-सी झलक भी पा लो, तो बात अलग है। पते की बात तो कोहरे के हटने पर ही निर्भर है, इसलिए सबसे पहले हम समझें कोहरे को, कोहरे के कारणों को, चित्त को, चित्त की वृत्तियों को। चित्त के टीले भी हिमालय की तरह लम्बे-चौड़े और बिखरे-बसे हैं। चित्त के धरातल पर उसके अपने समाज हैं, विद्यालय है, खेत खलिहान हैं, पहाड़ी रास्ते हैं। उसका अपना आकाश है और अपना रसातल है। वहाँ वसन्त के रंग भी हैं और पतझड़ के पत्र-झरे वृक्ष-कंकाल भी। चित्त की अपनी संभावनाएँ होती हैं। आखिर सबका लेखा-जोखा दो टूक शब्दों में तो नहीं किया जा सकता। जहाँ वर्णन और विश्लेषण करते हुए आदमी थक जाता है, वहाँ सीमा पर अनन्त शब्द उभरने लगता है, इसलिए यही कहना बेहतर होगा कि चित्त की वृत्तियाँ अनन्त हैं यानी इतनी हैं जिन्हें न गिना जा सकता है और न मापा जा सकता है। पर हां, अगर ध्यान दो तो चीन्हा अवश्य जाता है। For Private & Penal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर हिमालय में बैठे हैं हम, पर कुदरत के रंग कितने तब्दील होते जा रहे हैं। कुदरत के सौ रूप दिन-भर में दिखायी देते हैं। चित्त के भी ऐसे ही खेल होते हैं। महावीर ने चित्त-वृत्तियों को समझने के लिए एक माकूल उदाहरण दरसाया है। वे कहते हैं कि छह राहगीर किसी पहाड़ी रास्ते से गुजर रहे थे। उन्हें भूख लगी। उन्होंने दूर से एक वृक्ष देखा, जो फलों से लदा हुआ था। उसमें से एक राहगीर ने सोचा कि इस पेड़ को जड़ से उखाड़ दिया जाए ताकि फल तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने की जरूरत ही नहीं रहे। भर-पेट फल खाऊंगा और आगे चलते समय अपना झोला भी भर लूंगा। दूसरे राहगीर के मन में तना काटने का विकल्प बना। तीसरे ने शाखा काटने की सोची। चौथे ने डाली और पाँचवें ने फल तोड़ने का विचार किया, परन्तु साथ चल रहे छठे राहगीर ने सोचा, पेड़ हरा-भरा है और फलों से लदा है। फल पेड़ की सम्पत्ति हैं। उसे भी जीने का अधिकार है। मुझे भूख लगी है, जरूर पेड़ के नीचे कुछ न कुछ फल पेड़ से गिरे/पड़े मिल जाएंगे। मैं उन्हें खाऊंगा और परितृप्त होकर आगे की यात्रा करूँगा। महावीर की यह कथा प्रतीकात्मक है। वे इन छह राहगीरों के माध्यम से मनुष्य की छह चित्तवृत्तियाँ समझाने की कोशिश करते हैं। उनके अनुसार जो आदमी किसी को जड़ से उखाड़ने की सोचता है, वह कलुषित है। उसकी अन्तरवृत्तियां काली-कलूटी हैं। तना काटने की सोचने वाला इन्सान जड़ वाले की अपेक्षा कुछ कम कलुषित है। यों समझिये, वह नीले रंग का है। शाखा तोड़ने की सोचने वाला नीले से कुछ ठीक है। समझने के लिए उसका रंग आकाशी या कबूतरी है। डाली के विकल्प वाला इन तीनों की अपेक्षा कुछ तेजस्वी है। उसका रंग ढलते सूरज की तरह है। फल के विकल्पों वाला होठों के मुस्कराते गुलाबी रंग जैसा है। वहीं छठा राहगीर जो वृत्तियों से स्वस्थ है, किसी को सुख देते हुए स्वयं को सुखी महसूस करता है, सत्वयोगी है। किसी के फलों को छीनना, अतिक्रमण है। अस्तित्व की पूर्ति के लिए वृक्ष स्वयं फल देता है। ऐसे वृत्ति-स्वस्थ लोगों के चित्त के आकाश में पूर्णिमा-सा चाँद खिला रहता है। जिसका अन्तःकरण साफ-सुथरा और स्वच्छ है, वह उतना ही अमल-धवल है, जितना यह हिमालय। वृत्ति का यह आरोहण और अवरोहण महावीर की भाषा में लेश्या है। वृत्ति के ये छह प्रतीक वास्तव में लेश्या के छह सोपान हैं। योग जिसे षट्चक्र कहते हैं, अर्हत उसे षट्लेश्या कहते हैं। छह लेश्याओं को षट् शरीर भी कह सकते हैं। आभाचक्र (ऑरो) की उज्ज्वलता और कलुषता इसी लेश्या-शुद्धि पर निर्भर है। वृत्ति उज्ज्वल भी क्यों न हो आखिर है तो वृत्ति ही। जिसे चिन्तकों ने निवृत्ति कहा है, वह कोई सामान्य वृत्ति से परे होना नहीं है। निवृत्ति सही अर्थों में तभी जीवन की क्रान्तिकारी चेतना बन पाती है, जब व्यक्ति अमल-धवल शुक्ल-वृत्ति से भी चार कदम आगे बढ़ जाता है। आत्म-बोध और आत्म-सर्वज्ञता वृत्ति से मुक्त होने पर ही पल्लवित होते हैं। कुछ वृत्तियाँ शुभ होती हैं और कुछ अशुभ। अशुभ से शुभ भली हैं, किन्तु शुद्धता तो अशुभ और शुभ दोनों के पार हैं। पाँवों की जंजीरें लोहे की हों, बर्दाश्त के बाहर हैं। सोने की For Private & grsonal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्ति : बोध और निरोध जंजीर सुहायेंगी जरूर, किन्तु बाँध कर तो वे भी रखेंगी। सोने और लोहे का भेद तो मात्र मूल्यांकन का दृष्टिभेद है। आकाश में उड़ान तो तभी हो पायेगी, जब पंछी पिंजरे के सींखचों से मुक्त होगा। वृत्तियाँ क्लिष्ट भी हो सकती हैं और अक्लिष्ट भी। अक्लिष्ट वृत्तियों की रोशनी क्लिष्ट वृत्तियों के अन्धकार को जीवन के जंग-मैदान से खदेड़ने के लिये है। दूर करें अक्लेश से क्लेश को, शुभ से अशुभ को, सत् से असत् को। मृत्योर्माऽमृतंगमय -- हे प्रभो ! ले चलो हमें मर्त्य से अमर्त्य की ओर, अमृत की ओर। हम अपनी वृत्तियों का बोध प्रत्यक्ष प्रमाणों से भी कर सकते हैं, अनुमानों से भी कर सकते हैं और सद्गुरु के अमृत वचनों से भी। राग क्लिष्ट है और वैराग्य अक्लिष्ट, किन्तु वीतरागता राग और विराग दोनों का अतिक्रमण है। संसार में स्वयं की संलग्नता एवं गतिविधियों के कारण हम मानसिक तनाव को प्रत्यक्षतः झेलते हैं, किन्तु समाधि को दुःख से अतीत होने का आधार मान सकते हैं। यदि व्यक्ति अज्ञान में दिशाएँ भूल चुका है तो सद्गुरु ही उसके जीवन का सही मार्ग-दर्शन कर सकता है। जहाँ सद्गुरु का बाण किसी व्यक्ति के हृदय को बींधता है, तो भीतर की सारी रोम-राजि पुलकित हो पड़ती है। रोशनी की बौछारें बरसने लगती हैं। जीवन का चोला चन्दन की केशरिया फुहारों से भीग जाता है। गूंगा हूआ बावरा, बहरा हुआ कान। पांवा ते पंगुल भया, सद्गुरु मार्या बाण।। सदगुरु तो बाण लिये खड़ा है। उसका तो प्रयास यही है कि उसका ज्ञान का बाण किसी के हृदय को बींधे। वह बाण छोड़ता तो कइयों पर है, पर बींधते तो सौ में दो ही हैं। तुम बाण को देखते ही या तो स्वयं को पत्थर-हृदय बना लेते हो या दुबक कर लक्ष्य से स्वयं को खिसका लेते हो। उल्लू अपनी आंखों को खुला भी रखना चाहता है और स्वयं को रोशनी में ले जाना भी नहीं चाहता है। यदि वह रोशनी देखकर बिदक जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। महाज्योति को आत्मसात भी करना चाहते हो और वहाँ जाते हुए कटे अंग की तरह भय के मारे कांप भी रहे हो। मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुड़ाई रे। सद्गुरु तो समाधान की बात कह रहा है और तुम उसे उलझन समझ रहे हो। मैं कहता तू जागत रहियो तू रहता है सोई रे। सद्गुरु तो आत्म-जागृति के गीत सुना रहा है और तुम हो ऐसे, जो गीत को लोरी मान रहे हो। खाट के पलने में लला की तरह बेसुध सो रहे हो। जरा जागो, मित्र ! जरा संभलो। जब तक स्वयं कुछ न हो जाओ, तब तक वही होने दो जो सद्गुरु चाहता है। वत्ति का एक और स्थल रूप है. जिसे विपर्यय कहा जाता है। विपर्यय अज्ञान है। जो जैसा है, उसके बिल्कुल विपरीत मान लेना विपर्यय है। जैसे सीप में चाँदी का अहसास होता है। साँप रस्सी की भांति दिखायी देता है। यह मिथ्या ज्ञान है, अविद्या है, माया है। रस्सी को सर्प मानोगे तो यह अज्ञान उतना खतरनाक नहीं होगा, जितना साँप को रस्सी मानकर पकड़ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर लेना। विपर्यय क्लिष्ट वृत्ति है। यदि प्रत्यक्ष प्रमाण के आसार उपलब्ध हो जाएं तो बोधि के द्वार उद्घाटित हो सकते हैं। चित्त की एक सबसे भयंकर और खतरे से घिरी वत्ति है --विकल्प। विकल्प शब्द का अनुयायी होता है। वास्तव में जिसका विषय ही नहीं है वही विकल्प है। शब्द के आधार पर पदार्थ की कल्पना करने वाली जो चित्त-वृत्ति है, वह विकल्प वृत्ति है। विकल्प ही स्वप्न बनते हैं। जिसका न कोई तीर है, न तुक्का, कोई ओर है, न छोर, उसे दिमाग में चलते रहने देते हो तो यह मनुष्य के लिए अशान्ति और बेचैनी भरा कोलाहल बन जाता है। आदमी सिर्फ रात में ही सपने नहीं देखता. दिन में भी स्वप्न-भरी पहाडी पगडंडियों पर विचरता है। दिन में स्वप्न विकल्प बन जाते हैं और रात में वही विकल्प स्वप्न के पंख पहन लेते हैं। स्वप्न तो दिन में भी देख रहे हो, पर आंखें रोजमर्रा की जिन्दगी में इस तरह लगी हैं कि वे स्वप्न नहीं देख पातीं। वे स्वप्न दबे हुए स्वप्न है। रात को जब खाट पर आराम से सोते हो तब वे फुर्सत के क्षणों में स्वप्न की साकारता ले लेते हैं। यही कारण है कि वृत्तियों में प्रमुख वृत्ति विकल्प ही मानी जाती है। जो निर्विकल्प हो गया वह सिर्फ विकल्पों से ही मुक्त नहीं हुआ, अपितु वृत्ति-यात्रा से ही शून्य हो गया, क्योंकि आखिर चाहे प्रमाण-वृत्ति हो या विपर्यय सब विकल्प ही है। विपर्यय-वृत्ति में विद्यमान वस्तु के स्वरूप का विपरीत ज्ञान होता है और विकल्प-वृत्ति में वस्तु का तो कहीं कोई अता-पता ही नहीं होता। सिर्फ शाब्दिक कल्पना के ताने-बाने गंथे जाते हैं। कैसा मधुर व्यंग्य है कि नग्नता के लिए भी चर्खे पर सई काती जा रही है। विकल्प केवल संसार के ही नहीं होते, संन्यास के भी होते हैं। कई बार लोग मुझे कहते हैं कि हमें ध्यान में आज अमुक तीर्थ या तीर्थ की मूर्ति के दर्शन हुए। यह ध्यान की प्राथमिक उपलब्धि है पर आखिरी उपलब्धि नहीं। यह अक्लिष्ट विकल्प की अभिव्यक्ति है। ध्यान में कोई भगवान या देवी-देवता की मूर्ति दिखाई देती हो तो यह वही देख रहे हो, जिसे पहले देख चुके हो। ध्यान से यदि कुछ प्रकट होता है तो वह मूर्ति के रूप में नहीं, अपितु भगवत्ता के रूप में आत्मसात् होता है। ध्यान की मंजिल के करीब पहुँचत-पहुँचते तो साधक गुरु, ग्रंथ और मूर्ति तीनों के पार चला जाता है। जब चेतना स्वयं ही परमात्म स्वरूप बन रही हो, तो वह मंदिर-मस्जिद की आँख-मिचौली नहीं खेलेगा। उस देहरी पर जो होगा, वास्तविक होगा। जैसा होगा, जीवन होगा। फिर हवा के कारण पेड़ के पत्ते नहीं झूमेंगे, वरन् अपनी जीवन्तता के कारण झमेंगे। अपने बनाये या किराये पर लिये हुए उधार खाते के विकल्पों से ऊपर उठे। जितना देखा और जितना जाना, उसका सागर-मंथन करें और फिर सार को गहि रहें और थोथे को फेंक दें। चित्त की एक और कही जा सकने योग्य वृत्ति है, और वह है मूर्छा। पतंजलि जिसे निद्रा कहते हैं, वह मुर्छा बेहोशी है। बेहोशी में किया गया पुण्य भी पाप का कारण बन सकता है और होशपूर्वक किया गया पाप भी पुण्य की भूमिका का निर्माण कर सकता है। प्रश्न न तो Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्ति : बोध और निरोध पाप का है, न पुण्य का । महत्त्व सिर्फ होश और जागरूकता का है। जहाँ जागरूकता है, वहाँ चैतन्य की पहल है। यह जागरूकता ही "यतना" है, यही विवेक है और यही सम्बोधि है । जागृति धर्म है और निद्रा अधर्म । धार्मिक जगे, क्योंकि उसका जगना ही श्रेयस्कर है। भगवान् अधार्मिकों को सदा सुलाये रखे, क्योंकि इसी में विश्व का कल्याण है । जिस दिन अधार्मिक जगा, उस दिन खुदा की नींद भी हराम हो जाएगी और यह कहते हुए खुद विधाता को धरती पर आना होगा यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। इसलिए आत्म- जागरण ही धर्म का प्रास्ताविक है और यही ध्यान-योग का उपसंहार भी । जहाँ सम्राट भरत और नरेश जनक जैसी अनासक्ति तथा अन्तर्जागरूकता है, वहाँ गृहस्थ - जीवन में भी संन्यास के शिखर चरण-चेरे बन जाते हैं। चित्त की एक और वृत्ति है स्मृति । यही तो वह वृत्ति है, जिसके चलते जीवन का अध्यात्म पेंडुलम की तरह अधर में लटका रहता है। जीवन वर्तमान है, पर जो लोग जीवन को स्मृति के कटघरे में ही खड़ा रखते हैं, वे या तो अतीत के अन्धे कूप में गिरे रह कर काले पानी में गल - सड़ जाते हैं और या फिर भविष्य के अन्तरिक्ष में कल्पनाओं के धक्के के कारण अनरुके चक्कर लगाते हैं। शाश्वतता तो न केवल अतीत और भविष्य से अपना अलग अस्तित्व रखती है, अपितु वर्तमान की चुगलखोरी से भी मुक्त है। अतीत, वर्तमान या भविष्य जैसे शब्द शाश्वतता के शब्द-कोश में नहीं आते। उसके साथ न कभी "था" का प्रयोग होता है और न कभी "गा" का। उसके लिए तो सिर्फ "है" का प्रयोग होता है। अतीत में भी और भविष्य में भी । 1 चित्त की वृत्तियाँ चंचल हैं, लक्ष्मी की तरह नहीं, अपितु लक्ष्मी से भी ज्यादा चंचल हैं। मौसम की तरह नहीं, अपितु मौसम से भी बढ़ कर । तुम देख रहे हो सागर की तरंगें और से देख रहा हूँ हवा की लहरें, पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि चित्त का अश्व हवा से ना ज्यादा खूंदी करता है । अभ्यास- वैराग्याभ्यां तन्निरोधः । किन्तु अभ्यास और वैराग्य से चिल की वृत्तियों का निरोध संभव है । चित्त की स्थिरता के लिए प्रयत्न करना अभ्यास है तथा देखे और सुने हुए विषयों का उपभोक्ता होने के बजाय द्रष्टा हो जाना, उन्हें पाने की आशा और स्मृति से रहित हो जाना वैराग्य है। जहाँ वैराग्य है और अभ्यास भी है, वहाँ योग के अन्तर -द्वार स्वतः उघड़ने लगते हैं । आइये, वहाँ तक चलें, क्योंकि वहाँ हमारी प्रतीक्षा है । श्री जितयशा श्री फाउंडेशन, 9-सी, एस्प्लनेड रो ईस्ट, कलकत्ता - 700069. १६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ शोधपीठ ग्रन्थमाला सं. 69 सम्पादक प्रो. सागरमल जैन चरित्रसुन्दरगणि विरचित शीलदूतम् (हिन्दी अनुवाद सहित) भूमिका पं. विश्वनाथ पाठक अनुवादक साध्वी प्रमोद कुमारी जी पं. विश्वनाथ पाठक अनुवाद-सहयोग पं. ब्रह्मानन्द चतुर्वेदी डॉ. अशोक कुमार सिंह डॉ. दीनानाथ शर्मा पूज्य सोहनलाल स्मारक, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी-५. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक -- शीलदूतम् ( हिन्दी अनुवाद सहित) अनुवादक -- साध्वी प्रमोद कुमारी जी पं. विश्वनाथ पाठक प्रकाशक -- पूज्य सोहनलाल स्मारक पार्श्वनाथ शोधपीठ (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा मान्यता प्राप्त) आई.टी.आई. के समीप, करौंदी पोस्ट -- बी. एच.यू., वाराणसी-5 (उ.प्र.) पिनकोड -- 221 005. फोन नं. -- 311462 संस्करण प्रथम -- 1993 मूल्य -- बीस रुपये मात्र Sheeldutam Prmod Kumari Ji Pt. Vishvanath Pathak Pujya Sohanlal Smarak Parshvanatha Sodhapitha, Varanasi-5. मुद्रक -- पूज्य सोहनलाल स्मारक पार्श्वनाथ शोधपीठ वाराणसी-5. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में जैनाचार्यों का अवदान महत्त्वपूर्ण है। संस्कृत साहित्य की प्रत्येक विधा पर उन्होंने कलम चलायी है। दूतकाव्यों के क्षेत्र में भी उन्होंने अनेक रचनाएं प्रस्तुत की हैं। इनमें जैन मेघदूत, शीलदूत आदि प्रसिद्ध हैं । जहाँ जैन मेघदूत में राजुल और नेमि का संवाद वर्णित है वहीं शीलदूत में स्थूलिभद्र और कोशा वेश्या का संवाद है। जैनाचार्यों की विशेषता यह है कि उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में श्रृंगार की अपेक्षा वैराग्य को अधिक प्रमुखता दी है । शीलदूत भी एक शान्तरसपरक रचना है, जिसमें कोशा के प्रणय निवेदन की निष्पत्ति वैराग्य में रूपान्तरित होती है। शीलदूत चारित्रसुन्दर गणि की रचना है । यद्यपि यह ग्रन्थ मूलरूप में शाह हरकचन्द भूराभाई के द्वारा सन् 1912 में बनारस से प्रकाशित हुआ था । उसके पश्चात् इसका कोई संस्करण नही निकला। इस मूल ग्रन्थ का सम्पादन पं. हरगोबिन्ददास जी एवं पं. बेचरदास जी द्वारा हुआ था। इसके पश्चात् इसका कोई अन्य संस्करण निकला हो तो यह हमें ज्ञात नहीं । साध्वी श्री प्रमोद कुमारी जी जब अपने शोधकार्य के सन्दर्भ में वाराणसी आईं थीं तब उन्होंने संस्कृत के अध्ययन में अपनी रुचि प्रकट की । हमने उनसे शीलदूत के अध्ययन एवं अनुवाद के लिए निवेदन किया तदनुसार वे पं. ब्रह्मानन्द चतुर्वेदी के सहयोग से इस ग्रन्थ का अनुवाद करने लगीं । यद्यपि पं. ब्रह्मानन्द चतुर्वेदी जी के सहयोग से उन्होंने इस कार्य को पूर्ण किया, किन्तु अभी इसके संशोधन एवं सम्पादन की महती आवश्यकता थी। इस हेतु मैंने अपने सहयोगी डॉ. अशोक कुमार सिंह और डॉ. दीनानाथ शर्मा से अनुरोध किया तदनुसार उन्होंने अनुवाद को प्रकाशन योग्य बनाने के लिए उसका संशोधन किया। जब यह प्रयास चल ही रहा था, तब संस्कृत और प्राकृत के परम्परागत विद्वान पं. विश्वनाथ जी पाठक संस्थान से जुड़े मैंने इस ग्रन्थ को प्रकाशन योग्य बनाने का दायित्व उन्हें सौंपा। पं. जी ने पर्याप्त परिश्रम करके न केवल पूर्व अनुवाद का संशोधन किया अपितु आवश्यकतानुसार नया अनुवाद भी किया। इस प्रकार ग्रन्थ को प्रकाशन की दृष्टि से पूर्ण किया गया। इस प्रकार इस ग्रन्थ में साध्वीजी के अतिरिक्त अन्य विद्वानों का भी अवदान कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। प्रकाशन की इस बेला में हम साध्वीजी सहित उन सभी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। इस ग्रन्थ की कम्पोजिंग श्री बृजेश कुमार श्रीवास्तव ने किया और प्रूफ-संशोधन का कार्य पं. विश्वनाथ जी पाठक और डॉ. अशोक कुमार सिंह ने किया, अतः हम पुनः इन तीनों के प्रति अपना आभार ज्ञापित करते हैं । - भूपेन्द्रनाथ जैन मन्त्री Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. भूमिका 2. शीलदूत शीलदूत विषय-सूची १ ११ १२ -४२ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलदूतम् भूमिका मेघदूत महाकवि कालिदास की अप्रतिम रचना है। मन्दाक्रान्ता छन्द में उपनिबद्ध उस काव्य में विरही यक्ष के द्वारा अपनी प्रियतमा के पास प्रणय-सन्देश भेजने की रस-पेशल कल्पना की गई है। उसके भणिति-वैदग्ध्य, भाव, गाम्भीर्य और वस्तुविन्यास ने उत्तरवर्ती कवियों को इतना अधिक प्रभावाभिभूत कर दिया कि उसी के ढंग पर काव्य रचना की एक परम्परा ही चल पड़ी और संस्कृत साहित्य में इस प्रकार के काव्यों की संख्या सौ से ऊपर पहुँच गई। मेघदूत की मन्दाक्रान्ता-शैली, दूतकल्पना, सन्देश-प्रेषण और अभिधान (शीर्षक) का कवियों पर पृथक-पृथक या समवेत प्रभाव परिलक्षित होता है। दौत्य के लिये स्वेच्छा से मेघ के अतिरिक्त पवन, कपि, काक, शुक, पिक, कोक, देव, चकोर, चक्रवाक, चातक, झंझा, तुलसी, चन्द्र, वृक्ष, दात्यूह, पद्म, पदांक, पान्थ, बुद्धि, भक्ति, भ्रमर, मन, मयूख, मयूर, मित्र, मुद्गर, वक, कविता, विट, विप्र, श्येन, सुरमि, हरिण, हारीत, हृदय और चित्त आदि का चयन किया गया है। सन्देश का प्रतिपाद्य प्रणय, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और राष्ट्रप्रेम कुछ भी हो, उस के आधार पर इन काव्यों का नामकरण नहीं किया गया है। शैली का भी नामकरण पर कोई प्रभाव नहीं है। काव्यों के नामों में मेघदूत की अनुकृति दृष्टिगत होती है। सन्देश और सन्देश वाहक की सापेक्षता के कारण किसी काव्य के नाम में दूत शब्द का प्रयोग मिलता है, तो किसी में सन्देश का। अतः नाम के प्रभाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। रचना-वैशिष्टय के आधार पर यदि मेघदत की प्रभाव-परिधि में प्रगीत समस्त काव्यों का ___ अवलोकन करें तो उन के तीन स्वरूप स्पष्ट परिलक्षित होते हैं-- स्वतन्त्र दूतकाव्य, पाद पूर्त्यात्मक काव्य और केवल पादपूर्त्यात्मक काव्य । स्वतन्त्र दूतकाव्य' ये काव्य मेघदूत के आदर्श पर स्वतन्त्र रूप से रचे गये हैं। इन पर प्रायः मेघदूत की मन्दाक्रान्ताशैली, दूतकल्पना, सन्देश-प्रेषण और शीर्षक (नाम) इन चारों का पृथक्-पृथक् या समवेत प्रभाव है। कतिपय काव्यों में मन्दाक्रान्ता के स्थान पर शिखरिणी तथा शार्दूल विक्रीडित आदि वर्ण वृत्तों का भी प्रयोग दृष्टिगत होता है और कतिपय काव्य ऐसे भी हैं जो विविध छन्दों में उपनिबद्ध हैं। ऐसे काव्यों पर यद्यपि मेघदुतीय मन्दाक्रान्ता-शैली का लश मात्र भी प्रभाव नहीं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालदूतम् है तथापि उन में भी दूत कल्पना और सन्देश-प्रेषण अन्य काव्यों के समान ही है। दूत काव्यों का प्रिय रस विप्रलम्भ श्रृंगार है। परन्तु अनेक जैन और जैनेतर कवियों की कृतियों में शान्तरस और भक्ति का प्राधान्य है। जम्बू कवि का चन्द्रदूत, धोयी का पवनदृत, रूप गोस्वामी का हंसदूत, लक्ष्मीदास का शुक सन्देश, वासुदेव कवि का भुंग-सन्देश, उदण्डकवि का कोकिल सन्देश, उदय कवि का मयूर-सन्देश, विष्णुदास का मनोदूत, विष्णुवात का कोक सन्देश कृष्णसार्वभौम का पदांकदूत, भोलानाथ का पान्थ दूत, रूपनारायण त्रिपाठी का वातिदूत, गौर गोपाल का काकदत, माधव कवीन्द्र का उद्भवदत, हरिदास का कोकिलदत, 'वेल्लंकोड रामराय का गरुड़सन्देश, लम्बोदर वैद्य का गोपीदूत, वागीश झा का चकोरदूत, अज्ञात कर्तृक चातक सन्देश, वेंकट कवि का चकोर सन्देश, श्रुतिदेव शास्त्री का झंझावात, त्रिलोचन कवि का तुलसीदूत, सिद्धनाथ विद्यावागीश का पद्मदूत, गोपेन्द्र नाथ गोस्वामी का पादपदूत, प्रो. वनेश्वर पाठक का प्लवंगदूत, सुब्रह्मण्यसूरि का बुद्धिसन्देश, कालीचरण का भक्तिदूत, प्रो. रामाशीष पाण्डेय का मयूखदूत, रंगाचार्य का मयूरसन्देश, वीर राघवाचार्य का मानससन्देश, प्रो. दिनेश चन्द्र का मित्रदूत, पं. राम गोपाल शस्त्री का मुद्गगरदूत, महामहोपाध्याय अजितनाथ का वकदूत, वीरेश्वर का वाङ्मण्डनगुणदूत, अज्ञातकर्तृक विदूत, नारायण कवि का श्येनदूत, वीरवल्लि विजयराघवाचार्य का सुरभिसन्देश, वरदाचार्य का हरिण सन्देश, अज्ञात कर्तक हारीतदूत, भट्टहरिहर का हृदयदूत आदि स्वतन्त्र दूत काव्य हैं, जिन के नामों से ही दूतों के कल्पना-वैविध्य का परिचय मिलता है। पादपूात्मक दूतकाव्य पादपूर्ति या समस्यापूर्ति काव्य रचना की एक अति प्राचीन विधा है। राजसभाओं और विद्गगोष्ठियों में इस का अत्यधिक प्रचार था। तत्क्षण समस्यापूर्ति कर देना प्रखर वैदूष्य का निकष माना जाता था। अनेक विदुषी कन्यायें अपने वर का चयन पादपूर्ति के माध्यम से करती थीं और स्वयं भी उस कला में पूर्ण पदु होती थीं। पंचम शती की प्राकृत कथा वसुदेवहिण्डी में विमला और सुप्रभा नामक दो कन्याओं के द्वारा 'ण दुल्लहं दुल्लहं तेसिं।' इस समस्या की पूर्तियां दी गई हैं-- आठवीं शती की रचना कुवलयमाला में राजकुमारी के द्वारा 'पंच वि पउमे विमाणम्मि।' इस समस्या की पूर्ति करने वाले राजकुमार कुवलय चन्द्र से विवाह करने का उल्लेख है। भोज प्रबन्ध में अनेक चमत्कारपूर्ण समस्यापूर्तियां सुरक्षित हैं। एक अनुश्रुति के अनुसार महाकवि कालिदास ने भी 'कमले कमलोत्पत्तिः श्रूयते न च दृश्यते।' इस श्लोकार्ध की पूर्ति 'बाले ते मुखाम्भोजे कथमिन्दीवरव्यम्' कहकर की थी। अनेक कवियों ने मेघदूत के श्लोकों या श्लोक-पादों को समस्या के स्प में रख कर भी दूत काव्यों का प्रणयन किया है। आठवीं शती में विद्यमान जैनाचार्य जिनसेन ने सर्वप्रथम मेघदूत की पादपूर्ति के रूप में पार्वाभ्युदय नामक प्रबन्ध काव्य लिखा। इस के पश्चात् मेघदूत की पादपूर्ति में ऐसे दूत काव्यों का प्रणयन प्रारम्भ हो गया जिन में प्रत्येक पद्य के चतुर्थपाद को समस्या मान Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वनाथ पाठक कर शेष तीनों पादों की पूर्तियां उसी छन्द में की गईं। ऐसे सभी काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में हैं, क्योंकि मेघदूत की पादपूर्ति उसी छन्द में संभव है। दूतकल्पना और सन्देश-प्रेपण मेघदूत के समान इन में भी है। पादपूर्ति काव्यों के प्रणेता अग्धिकतर जैन कवि हैं। उन की रचनाओं में वैराग्य और निर्वेद को महत्त्व दिया गया है। विमलकीर्ति का चन्द्रदूत, उपाध्याय मेघविजय का मेघदूत समस्यालेख, अज्ञात कर्तृक चेतोदूत, अवधूतराम योगी का सिद्धदूत और नित्यानन्द शास्त्री का हनुमदूत इसी कोटि की कृतियां हैं। इन में अन्तिम दो जनेतर कवियों की रचनायें हैं। केवल पादपूर्त्यात्मक काव्य मेघदूत की पादपूर्ति के रूप में रचित जिन काव्यों में दौत्य या सन्देश-प्रेषण का सर्वथा अभाव है वे केवल पादपूर्त्यात्मक काव्य हैं। पावाभ्युदय, नेमिदूत और शीलदूत ऐसे ही काव्य है। मेघदत की मन्दाक्रान्ता-शैली से प्रभावित इन काव्यों में दूतकाळ्य का कोई भी लक्षण दृष्टिगत नहीं होता है। परन्तु विद्वानों की परम्परा इन्हें भी दूतकाव्य या सन्देशकाव्य मानती रही है। पार्वाभ्युदय तो नाम से भी दूतकाव्य नहीं प्रतीत होता। नेमिदूत और शीलदूत के नामों में दूत शब्द अवश्य जुड़ा है, परन्तु केवल नाम में दूत शब्द की उपस्थिति मात्र से कोई दूतकाव्य नहीं हो जाता है। उसके लिये दूत के द्वारा सन्देश-प्रेषण अनिवार्य है। वस्तुतः इन काव्यों का नामकरण दौत्य के आधार पर हुआ ही नहीं है। उक्त काव्यों की रचना मेघदूत की शैली में हुई है और पादपूर्ति के कारण उनके कलेवर का चतुर्थांश मेघदूत की ही पंक्तियों से निर्मित है। अत: उदारचेता कवियों ने उस ऋण को इंगित करने के लिये काव्यों के नामों में दूत शब्द जोड़ दिये है। केवल पादपात्मक काव्यों में जैनाचार्य जिनसेन (आठवीं शती) का पाश्र्वाभ्युदय सर्वाधिक प्राचीन है। पूर्वोक्त पादपूर्त्यात्मक दूतकाव्यों का भी मार्गदर्शक यही काव्य है। इसमें मेघदूत के समस्त श्लोकों के समस्त पादों की क्रमानुसार प्रौढ़ पूर्तियां की गई हैं। इस प्रकार का यह अकेला काव्य है। 364 मन्दाक्रान्ता वृत्तों में ग्रथित पार्वाभ्युदय को कवि ने स्वयम् 'परिवेष्टित-मेघदूत' की संज्ञा दी है। पूर्वजन्म का शत्रु कमठ नामक असुर नानासांसारिक भोगों के प्रलोभनों से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की तपश्चर्या में उपसर्ग उपस्थित करता है किन्तु वे अपने अंगीकत व्रत से लेश मात्र भी विचलित नहीं होते। यही इस काव्य की संक्षिप्त कथा वस्तु है। श्लोकों में मेघदूत के श्लोक-पादों को निम्नलिखित नौ स्थानों पर प्रयुक्त किया गया है -- १. केवल प्रथम पाद में २. केवल द्वितीय पाद में ३. केवल तृतीय पाद में ४. केवल चतुर्थ पाद में ५. प्रथम और तृतीय दोनों पादों में ६. द्वितीय और तृतीय दोनों पादों में Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. प्रथम और चतुर्थ दोनों पादों में ८. द्वितीय और चतुर्थ दोनों पादों में ६. तृतीय और चतुर्थ दोनों पादों में समग्र मेघदूत की पादपूर्ति होने के कारण पार्श्वाभ्युदय में किसी भी पूरणीय पाद का कोई नियत स्थान नहीं है । अतः श्लोकों के अन्त में (चतुर्थपाद में) मेघदूत के श्लोकों के चतुर्थ पाद के साथ-साथ अन्य पाद भी क्रमानुसार आते रहते हैं। इस के विपरीत उत्तरवर्ती पूर्तिकाव्यों में मेघदूत के श्लोकों के चतुर्थ पाद को अनिवार्य रूप से श्लोकों के चतुर्थ पाद के रूप में ही रखने की पद्धति दिखाई देती है। इन परवर्ती पूर्ति काव्यों में रचनासरणि के आधार पर तीन विशेषतायें समान रूप से प्राप्त होती हैं। - -1 शीलदूतम् १. मेघदूत के सभी पादों की पूर्ति नहीं की गई है। २. श्लोकों के चतुर्थ पाद की ही पूर्ति की गई है। ३. मेघदूत के श्लोकों के चतुर्थ पाद को श्लोकों के अन्त में ही रखा गया है। इस प्रकार केवल पादपूर्त्यात्मक काव्यों की दो शैलियां हैं। प्रथम शैली में मेघदूत के समस्त श्लोक- पादों की पूर्तियां की गई हैं और द्वितीय शैली में केवल प्रत्येक श्लोक के चतुर्थ पाद की पूर्ति है। पूर्वोक्त पाश्वभ्युदय प्रथम शैली का उत्कृष्ट निदर्शन है और अपनी पद्धति का एक मात्र उपलब्ध ग्रन्थ है। द्वितीय शैली में रचित दो काव्य उपलब्ध हैं -- नेमिदूत और शीलदूत । नेमिदूत की कथा वस्तु तीर्थंकर नेमिनाथ से सम्बन्धित है । नेमिनाथ अपनी भावी पत्नी राजीमती को विवाह मण्डप में ही छोड़कर रैवतकपर्वत पर योगाभ्यास और तप करने लगते हैं। राजीमती पाणिग्रहण के पूर्व परित्यक्त होने पर भी नेमिनाथ को अपना पति मानती हैं। वह अपनी सखी के साथ रैवतकपर्वत पर जाती हैं और उनसे गृहस्थाश्रम में लौट कर सुखमय दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने के लिये प्रार्थना करती हैं। राजीमती के द्वारा विषय-भोग के लिये विविध प्रकार से प्रेरित किये जाने पर भी जब नेमिनाथ द्रवीभूत नहीं होते तब उसकी सखी उनसे विनम्र निवेदन करती है। वह राजीमती की असह्य विरह-वेदना का हृदयद्रावक वर्णन करती हुई नेमिनाथ के मन में दया भाव उत्पन्न करने का प्रयास करती है । अन्त में नेमिनाथ धर्मोपदेश देकर राजीमती को मोक्षमार्ग पर चलने के लिये अपनी सहचरी बना लेते हैं। इस काव्य में दौत्य और सन्देश प्रेषण का अभाव है। प्रस्तुत काव्य शीलदूत इस श्रृंखला का तृतीय काव्य है इसमें मेघदूत के श्लोकों के चतुर्थ पादों की पूर्तियां की गई है। दूत कल्पना और सन्देश - प्रेषण का नितान्त अभाव होने के कारण इसका स्वरूप भी केवल पादपूर्त्यात्मक है । इस कमनीय काव्य के रचयिता चारित्र सुन्दर गणि हैं । कवि ने काव्य के अन्त में ग्रन्थ का रचनाकाल इस प्रकार दिया है द्रड्गे-रङ्गैरतिकलतरे स्तम्भतीर्थाभिधाने वर्षे हर्पाज्जलधि' भुजगाम्योधि चन्द्र' प्रमाणे । -- Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वनाथ पाठक चक्रे काव्यं वरमिह मया स्तम्भनेशप्रसादात सभिः शोध्यं परहित परैरस्तदोपैरसादात्।। 131 ।। इस उल्लेख से विदित होता है कि कवि ने विक्रम संवत् 1484 में गुजरात के स्तम्भन तीर्थ (खंभात) में इस ग्रन्थ की रचना की थी। अनेक विद्वान जलधि शब्द से सात की संख्या का ग्रहण कर काव्य-रचना का काल संवत् 1487 मानते हैं। किन्तु यह उचित नहीं है क्योंकि यदि जलधि का अर्थ सात है तो अम्भोधि का भी वही होना चाहिये। इस प्रकार रचनाकाल संवत् 1787 आता है जो कथमपि समीचीन नहीं है। परम्परानुसार जलधि अम्भोधि या समुद्रवाचक किसी भी शब्द का अर्थ चार ही होता है। अतः ग्रन्थ की रचना संवत् 1484 में हुई थी -- यही मानना संगत है। ___शीलदूत के निम्नलिखित वर्णन से ज्ञात होता है कि चारित्र सुन्दर गणि सत्तपोगच्छ के नेता श्री रत्नसिंह सूरि के शिष्य थे -- सोऽयं श्रीमानवनिविदितो रत्नसिंहाख्यसूरि --- जर्जीयाद् नित्यं नृपतिमहितः सत्तपोगच्छनेता।। 129 ।। शिष्योऽमष्याखिलबुधमुदे दक्षमुख्यस्य सूरे - श्चारित्रादिधरणिवलये सुन्दराख्यापसिद्धः । चक्रे काव्यं सुललितमहो शीलदूताभिधानं नन्धात् सार्धं जगतितदिदं स्थूलभद्रस्य कीर्त्या।। 130 ।। कवि ने शीलदूत के अतिरिक्त श्री कुमारपाल महाकाव्य, श्रीमहीपालवरित । और आचारोपदेशादि अनेक ग्रन्थों की रचना की है। शीलदूत की कथावस्तु __ पाटलीपुत्र का निवासी मन्त्रिपुत्र स्थूलभद्र अपने पिता के निधन का समाचार सुन कर विषयोपभोग से विरत हो जाता है और रामगिरि के आश्रमों में निवास करने लगता है। भद्रबाहु से जैनधर्म की दीक्षा ग्रहण कर वह उन्हीं की आज्ञा से चातुर्मास व्यतीत करने के लिये अपने घर जाता है। उस की प्रियतमा कोशा देखते ही प्रमुदित हो उठती है और पुनः गृहस्थ-जीवन व्यतीत करने का आग्रह करती है। वह कहती है, स्वामिन् यदि पुण्यार्जन ही आप का उद्देश्य है तो वह गृह में रहकर कूप, वापी, तडाग आदि के निर्माण से भी संभव है। अतः आप घर में रहकर दानादि के द्वारा पुष्कल पुण्योपार्जन करें। वृद्धावस्था में स्वेच्छा से तपश्चर्या के लिये वनवास ग्रहण करें। यही उचित है। जिनेन्द्र ने दया को सर्वश्रेष्ठ धर्म बताया है। आप निर्दयता पूर्वक अपने आश्रितों और बन्धुओं को त्याग रहे हैं, यह कौन सा धर्म है ? अपने परिजनों के परित्राण के लिये आप को मन्त्री का सम्मान्य पद स्वीकार कर लेना चाहिये। इससे ऐश्वर्य-भोग, प्रतिष्ठा और सुयश की प्राप्ति होगी। इस के पश्चात् वह अनेक पूर्वविहित विलास लीलाओं की उत्कट स्मृतियों को उबुद्ध करती हुई क्रीडाशैल पर बिहार करने के लिये PERHET aldt i Jarut Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 शीलदूतम् कोशा के साश्रु वचनों को सुनने के पश्चात् स्थूलभद्र कहता है सुन्दरि ! मैं जैन धर्म स्वीकार कर चुका हूँ । मेरा मन विपयों से विरक्त है। युवावस्था का सौन्दर्य वृद्धावस्था में नहीं रह जाता। यह जगत् अनित्य है । अतः मैं धर्म में ही अपना कल्याण समझता हूँ । नारी मेरे लिये विष तुल्य है। मैं वीतराग हूँ । हे सुभग ! स्थूलभद्र का कथन सुन कर कोशा की सखी चतुरा इस प्रकार करती है क्या आप का हृदय इतना निर्दय हो गया है ? मेरी सखी पर आप को लेशमात्र भी दया नहीं आ रही है। इस ने कल्प के समान इतने दिन वियोग में रो-रो कर बिताये हैं और श्रृंगार का परित्याग कर दिया है। इसे सम्पूर्ण जगत् शून्य दिखाई देता है । दिवस तो व्यस्तता में किसी प्रकार कट जाते हैं परन्तु रात्रि की निस्तब्धता असह्य हो जाती है। यदि आप मेरा अनुरोध मान कर इस पर कृपा नहीं करेंगे और इस की अतृप्त आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं करेंगे तो यह अवश्य मर जायेगी। -- चतुरा के वचन सुन कर स्थूलभद्र कोशा से पुनः कहता है आर्ये ! तुम जैन धर्म स्वीकार कर लो। मेरी दृष्टि में तृण समूह और नारी- दोनों तुल्य हैं । जैन धर्म स्वीकार कर लेने पर तुम्हारे मन में कोई दुःख नहीं रह जायेगा। तुम शील का पालन करो, सत्पात्रों को दान दो और तप से आत्मशुद्धि करो । प्रिय के इन उपदेशों से कोशा का अज्ञान विनष्ट हो जाता है। उस की भोगतृष्णा विगलित हो जाती है । वह भक्ति से स्थूलभद्र के चरणों में गिर कर कामवासना को दग्ध करने वाली दिव्यौषधि की याचना करती है। स्थूलभद्र कोशा को जैन धर्मोपदेश के साथ-साथ भवभयहारी नमस्कार-मन्त्र प्रदान करता है और स्वयं गुरु के निकट चला जाता है। वह सूरीश का पद प्राप्त कर आजीवन जैन धर्म का प्रचार करता है । अन्त में उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। कोशा घर में ही रह जाती है। जैन-धर्म की शिक्षाओं का पालन करती हुई वह भी स्वर्ग में प्रिय के पास पहुँच जाती है। उपर्युक्त कथा में कहीं भी न तो दूत की कल्पना की गई है और न सन्देश ही भेजा गया है । नायक और नायिका का साक्षात् संवाद वर्णित है । शीलदूत और नेमिदूत 1 शीलदूत और नेमिदूत के वस्तुविन्यास और वर्णनों में पर्याप्त साम्य है । सखी की कल्पना दोनों काव्यों में है । नायिका का कथन समाप्त होने पर दोनों में समान रूप से सखी के द्वारा निवेदन कराया गया है। अलंकार योजना दृश्यविधान, पादपूर्ति पद्धति और वस्तु व्यापार वर्णन में साम्य होने पर भी दोनों का पार्थक्य स्पष्ट है । नेमिदूत में प्रणयोद्वेलित राजीमती स्वयं नेमिनाथ के निकट जाती है । शीलदूत का नायक निर्लिप्त एवं वीतराग स्थूलभद्र गुरु के आदेश से कोशा के निकट जाता है। नेमिदूत में नायक और नायिका का संवाद रैवतकपर्वत पर होता है । शीलदूत में दोनों अपने घर में मिलते हैं । नेमिदूत में नेमिनाथ राजीमती को मोक्ष मार्ग में Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलदूतम् अपनी सहचरी बना लेते हैं। इसके विपरीत शीलदत में स्थलभद्र कोशा को साथ नहीं ले जाता है, उसे घर पर ही छोड़ देता है। नेमिदत में नेमिनाथ मोक्ष प्राप्त करते हैं और राजीमती भी उन के उपदेशों पर चलकर भव-बन्धनों से मुक्त हो जाती है। शीलदूत में स्थूल भद्र और कोशा दोनों स्वर्ग प्राप्त करते हैं। इस प्रकार दोनों काव्यों में फलागम की दृष्टि से प्रभूत अन्तर है। समीक्षा शीलदूत केवल पादपूर्त्यात्मक काव्य है। मेघदूत की पादपूर्ति होने पर भी इसमें पूर्व और उत्तर खण्डों का विभाजन नहीं है। पादपूर्ति में कवि स्वतन्त्र नहीं होता है। निर्दिष्ट पाद की पूर्ति कर देना ही उसका प्रमुख उद्देश्य रहता है। इससे प्रायः पूर्ति काव्यों में दुरुहता आ जाने की सम्भावना रहती है। शीलदूत इस दोष से सर्वथा मुक्त है। इस की उदाल प्रासादिक शैली की सहजता से आभास ही नहीं होता कि यह एक पूर्ति काव्य है। वर्णनों की सरसता कल्पना की पेशलता, भावों का तारल्य, अलंकारों का समुचित विन्यास, रसानुकूल पदयोजना और छन्दों का उन्मुक्त प्रवाह देखते ही बनता है। पूर्तियों की सटीकता और स्वाभाविकता इसे मौलिक काव्य के स्तर पर पहुंचा देती है। कवि ने मेघदूत के विभिन्न प्रसंगों में प्रतिबद्ध श्लोकों की पादपूर्ति के निमित्त अलका के स्थान पर पाटलीपुत्र नगरी, गम्भीरा, निर्विन्ध्या और शिप्रा के स्थान पर गंगा और कैलास के स्थान पर क्रीडा-शैल की उद्भावना की है। उसने कोशा के विरह और प्रणय के वर्णन में रसानुकूल अनेक प्रसंगों की अवतारणा के द्वारा मौलिक प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है। काव्य में अनेक स्थलों पर तो मेघदूत के श्लोकों के समान ही वर्णन-भंगिमा दिखाई देती है। अनेक पूर्तियों में कवि ने मेघदूतीय श्लोक-पादों में अर्थ परिवर्तन कर अद्भुत चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। पच्चीसवें श्लोक में दशार्ण का दसजनों का ऋणी, ग्यारहवें में राजहंस का श्रेष्ठ राजा और एक सौ तेरहवें श्लोक में कृतान्त शब्द का सिद्धान्त के अर्थ में प्रयोग कवि के वैचक्षण्य का द्योतक है। कहीं-कहीं पूर्ति की प्रासंगिकता के लिये पूरणीय पाद में ईषत परिवर्तन कर दिया गया है। उदाहरण के लिये इस श्लोक में गणपति के स्थान पर गुणपद का प्रयोग द्रष्टव्य है -- मा जानीष्व त्वमिति मतिमन् ! यद व्रतेनैव मुक्ति लेंभे श्वनं व्रतमपि चिरं कण्डरीकः प्रपाल्य। गार्हस्थ्येऽपि प्रिय भरतवारीत रागदिदोषाः संकल्पन्ते स्थिर गुणपदप्राप्तये श्रद्धधानाः ।। 59 ।। इस प्रवृत्ति से पूर्तिकर्ता की अक्षमता सूचित होती है। श्लोक संख्या दो में भद्रबाहु के लिये 'वप्रक्रीड़ा परिणत गजप्रेक्षणीयं का प्रयोग मनोज्ञ नहीं है क्योंकि दोनों में साम्य का आधार नितान्त क्षीण है। इसी प्रकार एक सौ तीसवें श्लोक में उत्तमपुरुष में चक्रे क्रिया का प्रयोग भी खटकता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वनाथ पाठक शीलदूत खण्ड काव्य है। इसकी कथा वस्तु अत्यन्त संक्षिप्त है। स्थूलभद्र और कोशा प्रमुख पात्र हैं। चतुरा का उपयोग संवाद को गतिशील बनाने के लिये किया गया है। संवादात्मक होने के कारण इसमें घटना-वैचित्र्य के लिये कोई स्थान नहीं है। काव्य की भाषा सरल और अकृत्रिम है। दीर्घ समासों और जटिल शब्दों का प्रयोग प्रायः नहीं है। एक स्थल पर अरिरे सम्बोधन अप्रचलित होने के कारण चित्र में वैरस्य अवश्य उत्पन्न कर देता है। काव्य की प्रासादिक शैली और प्रांजलता मन को मुग्ध कर लेती है। छन्दों का प्रवाह दर्शनीय है। अलंकारों का रसानुकूल प्रयोग किया गया है। बलात् अलंकार ठूसने की प्रवृत्ति नहीं है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, श्लेषादि अलंकार नितान्त सहज भाव से आ जाते हैं। अधिकतर पूर्तियों में मेघदूत के ही अलंकार दिखाई देते हैं। एकहत्तरवें श्लोक में • सरोग शब्द का श्लेष अति स्वाभाविक और अप्रयत्न-साध्य प्रतीत होता है। ___ काव्य में विप्रलंभ श्रृंगार का पूर्ण परिपाक दिखाई देता है। नायिका कोशा की विरहावस्था का मर्मस्पर्शी वर्णन प्रत्येक भावुक मन को द्रवीभूत कर देता है। चिन्ता, दैन्य वितर्क, स्मृति अभिलाष वितर्क आदि भाव विप्रलम्भ के अंग के रूप में आकर उसे परिपुष्ट करते हैं। शीलदूत की कथा वस्तु शान्तरस के सर्वथा अनकल है। नायिका का विषयोपभोग के लिये निरतिशय लालायित एवं चपल मन अन्त में नायक के विरक्तिपूर्ण उपदेशों से उपशान्त हो जाता है। इतनी अनुकूल कथावस्तु ग्रहण करके भी कवि काव्य को शान्तरस-प्रधान नहीं बना सका। उसने विप्रलम्भ श्रृंगार का जिस तत्परता से विस्तृत वर्णन किया है उतनी तत्परता शान्तरस के वर्णन में नहीं दिखाई है। 131 श्लोकों के काव्य में लगभग 96 श्लोकों में विप्रलम्भ का परिपुष्ट वर्णन है। उस की अपेक्षा शान्त रस का संक्षिप्त वर्णन प्रभावहीन और निष्प्राण है। वह कतिपय श्लोकों में ही सीमित रहकर पंगु हो गया है। शीलदत का नायक वीतराग योगी है और नायिका है सांसारिक भोगों के लिये निरन्तर ललकती अतप्त तरुणी। दोनों की चित्तवृत्तियों में आकाश और पाताल का अन्तर है। कवि ने नायिका के भाव परिवर्तन के पूर्व उसके हृदय के सूक्ष्म आन्तरिक द्वन्द्व के मनोवैज्ञानिक चित्रण का लेशमात्र भी प्रयास नहीं किया है जिस से काव्य की स्वाभाविकता और रसात्मकता को पर्याप्त क्षति पहुंची है। साथ ही उसने नायक निष्ठ निर्वेद का ऐसा बिम्बग्राही एवं प्रभावशाली वर्णन भी नहीं किया है जिससे कोशा विषय-विरक्त हो जाती। काव्य के अधिकांश भाग में विप्रलम्भ श्रृंगार छाया हुआ है। अन्त में कतिपय श्लोकों में शान्तरस (निर्वेद) की सचना दी गई है। "मैं ने जैनधर्म ग्रहण कर लिया है। मैं वीतराग हूँ। नारी मेरे लिये विष के समान है, तुम जैन धर्म स्वीकार कर लो।" इत्यादि वर्णनों से किसी विरह-दग्ध विलासिनी तरूणी के विचारों में परिवर्तन नहीं होता है और न यह शान्तरस का वर्णन है। यह तो एक प्रकार की सूचना मात्र है। कवि भावक होता है, सूचक नहीं। उसके कृतित्व का साफल्य श्रोता या पाठक को प्रतिपाद्य भाव की अनुभति में तल्लीन कर देने में है, सूचना देने में नहीं। सूचना में बोध मात्र होता है, तल्लीनता नहीं होती है। रस का सम्बन्ध इसी तल्लीनता से है। शीलदत के अन्तिम वर्णनों से Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 मन उपशम या निर्वेद की अनुभूति में तल्लीन नहीं होता है अतः अनेक विद्वानों के द्वारा उसे शान्तरस प्रधान काव्य घोषित करना उचित नहीं लगता । प्रस्तुत काव्य में स्थूलभद्र और कोशा विचारों के दो प्रतिकूल धरातलों पर स्थित हैं। दोनों के वैचारिक संघर्ष में स्थूलभद्र की विजय और कोशा की उपशान्ति ही काव्य के प्रतिपाद्य विषय है । अतः कवि को स्थूलभद्र के निर्वेद को अधिक महत्व देना था, किन्तु उसने कोशा के रति - भाव को ही भूरिशः पल्लवित किया है। इस से शान्तरस की अंगीरस के रूप में प्रतिष्ठा नहीं हो पाई, जो कि काव्य शास्त्रीय दृष्टि से अपेक्षित थी । शान्त और श्रृंगार दोनों विरोधी रस है । परन्तु उनकी भिन्नाश्रयता और अंगांगिभाव में विरोध नहीं है। आचार्य आनन्दवर्धन ने लिखा है कि किसी भी विरोधी रस का अंगीरस ( प्रधान रस) की अपेक्षा अधिक परिपोष करना अनुचित है। अंगभूतरस (अप्रधान रस ) के परिपोष में न्यूनता होनी चाहिये । यदि शान्त रस अंगी हो तो श्रृंगार का और श्रृंगार अंगी हो तो शान्त का परिपोष न्यून कर देना चाहिये । परन्तु कवि ने अप्रधान रस विप्रलम्भ श्रृंगार का परिपोष अधिक कर दिया है। इस स्खलन का प्रमुख कारण पादपूर्ति की विवशता है। घोर श्रृंगार में डूबे मेघदूत के श्लोकों की पादपूर्ति में शान्तरस के लिये कहीं भी स्थान नहीं था । कवि ने अपनी प्रतिभा से उसके लिये भी कुछ स्थल खोज लिये हैं। यही क्या कम है ? शीलदूतम् विप्रलम्भ श्रृंगार के परिपाक और पादपूर्ति की सफलता की दृष्टि से शीलदूत का संस्कृत साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। - आचार्य विश्वनाथ पाठक Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ-ग्रन्थ १. भव भूति (आठवीं शताब्दी ) मेघदूत की शैली से प्रभावित होने वाले प्रथम कवि है। उन्होंने किसी स्वतन्त्र दूतकाव्य की रचना तो नहीं की है, परन्तु मालतीमाधव में मेघदूत की कल्पना का पूर्ण रूपेण अनुकरण किया है। उक्त प्रकरण का नायक माधव मेघ के झरा मालती को मेघदूतीय-शैली में इस प्रकार सन्देश देता हुआ चित्रित किया गया है। कचित् सौम्य ! प्रिय सहघरी विद्युदालिंगतित्वामाविभूत प्रणयसुमुखाश्चातका वा भजन्ते। पौरस्त्योवा सूखयति मरुत्साधुसंवाहनाभिर्विष्वग्विभ्रत्सुरपतिधनुर्लक्ष्म लक्ष्मीवदेतत्।।9/25 दैवात् पश्येजगति विधरन् मत्प्रियां मालतीं घे दाश्‍वास्यादौ तदनुकथयेमधिवीयामवस्थाम। आशातन्तुर्न च कथयतात्यन्तमुच्छेदनीयः प्राणत्राणं कथमपि करोत्यायताक्ष्याः स एकः ।19/25।। इस वर्णन को हम लघु मेघदूत की संज्ञा दे सकते हैं। २. डॉ. रविशंकर मिश्र ने जैन मेघदूत की भूमिका में दूतवाक्यम्, दूतघटोत्कचम् और नल चम्पू को भी दत काव्यों की श्रेणी में रखा है। मेरे विचार से उक्त तीनों रचनायें दतकाव्य की कोटि में नहीं आती हैं। सन्देश-प्रेपण अनादिकाल से मानव-प्रकृति का नैसर्गिक व्यापार रहा है। वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक प्रान्तीय भाषाओं के साहित्यों और लोकगीतों में भी सर्वत्र उसके दर्शन होते हैं। अतः सन्देश-प्रेषण मात्र से किसी रचना को मेघदूत से प्रभावित दूतकाव्य या सन्देशकाव्य की श्रेणी में रखना अनुचित है। शैली की दृष्टि से दूतवाक्यम् और दूतघटोत्कचम् रूपक हैं और मेघदूत से प्राचीन भी है। नल चम्पू की रचना गद्य-पद्य मिश्रित चम्पू शैली में हुई है। 3. विमलाभा -- मोक्खसुहं च विसालं, सव्वट्ठ सुहं अणुत्तरंजं च। ले सुचरिय सामण्णा, ण दुल्लहं दुल्लहं तेसिं ।। पृ. 288 ।। सुप्रभा -- सल्ले समुद्धरित्ता, अभयं दाऊण सव्वजीवाणं। जे सुठ्ठिया दमपहे, ण दुल्लहं दुल्लहं तेसिं ।। पृ. 288 ।। ___4. नेमिदूत सांगण-पुत्र विक्रम कवि की कृति है। कवि का अनुमानित सगटा 14वीं शती है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलदूतम् 5-क. संस्कृत के सन्देश काव्य -- डॉ. राम कुमार आचार्य। ख. वाराणसी से प्रकाशित मूल शीलदूत में श्री हर गोविन्द दास और श्री बेचरदास की ___ संस्कृत भूमिका। ग. जैन मेघदूत की भूमिका -- डॉ. रविशंकर मिश्र 6. विरोधिनस्तु रसस्याङ्गिरसापेक्षया कस्यचिन्न्यूनता सम्पादनीया। यथा-शान्तेऽङ्गिनि श्रृंगारस्य श्रृंगारे वा शान्तस्य। - ध्वन्यालोक तृतीयोद्योत 80वीं कारिका की वृत्ति Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलदूतम् हिन्दी अनुवाद सहित भुक्त्वा भोगान् सूभगतिलक: कोशया सामिद्धान् धन्यो मान्यो निखिलविदुषां भद्रया स्थूलभद्रः । घके श्रुत्वा जनकनिधनं जातसंवेगरंगः स्निग्धच्छायातरुषु वसति रामगिर्याश्रमेषु ।।१।। १. समस्त विद्वत्समुदाय में सम्माननीय, ऐश्वर्यशालियों में श्रेष्ठ एवं उत्तम स्थल भद्र ने प्रियतमा कोशा के साथ उत्कृष्ट भोगों को भोग लेने पर जब पिता के निधन का समाचार सुना तब उन्हें वैराग्य हो गया और रामगिरि नामक पर्वत पर सघन छाया वाले वृक्षों से युक्त आश्रमों में निवास किया। चित्ते मत्वा विषयनिचयं सत्वरं गत्वरं वै गच्छन्नेषोऽध्वनि धनजिनध्यान संलीनचित्तः । शान्तं कान्तं रसमिव गिरौ श्रीगुरूं भद्रबाहुँ वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।२।। २. मन में विषयों की क्षणभंगुरता को जान कर मार्ग में चलते-चलते भगवान जिन के ध्यान में वे (स्थूलभद्र) डूब गये। उस समय उन्होंने पर्वत पर कमनीय शान्तरस के समान उन सद्गुरु भद्रबाहु को देखा जो टीले को उखाड़ने के लिये पर्वत पर तिरछे दाँतों का प्रहार करने वाले गज के समान दर्शनीय थे। शिक्षाकामं कृतनतिममुं ध्वस्तकामं निरीक्ष्या घख्यावेवं गुरुहरूगिरा वत्स ! मोहं जयैतम् । संयोगेऽपि प्रभवति यतः प्राणिनामत्र दुःखं कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनरसंस्थे?।।३।। ३. जिस का काम विकार ध्वस्त हो चुका था, उस शिक्षा की इच्छा वाले प्रणत स्थूलभद्र को देख कर गुरू ने श्रेष्ठ वाणी में इस प्रकार कहा -- 'वत्स ! यह मोह छोड़ दो। यहाँ संयोग में .भी प्राणियों को दुःख होता है, अतः गले लगने की चाह सँजो कर जो दूर स्थित है उस प्रेमी के दुःख का क्या कहना है ? धन्यं मन्ये मुनिपरिवृतात्मानमेनं किलाधानिन्द्यं सद्यः परमसुखदं यन्नतं वः पदाब्जम। पीत्वा हृद्यां विशदहृदयो देशनां सोऽपि सूरेः प्रीतः प्रीतिप्रमुखवधनं स्वागतं व्याजहार।।४।। ForF Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. वे स्थूलभद्र भी सूरि ( भद्रबाहु ) के मनोहर उपदेशामृत का पान कर निर्मल हृदय हो गये उन्होंने स्वयं आये हुये उन गुरु से प्रसन्न होकर प्रीतिपूर्वक यों कहा आप के निर्दोष एवं सद्यः सुखद चरणकमलों में प्रणत हुआ धन्य मानता हूँ । मुनिश्रेष्ठ ! मैं जो इस से निश्चय ही अपने को -- कामान्धोऽहं तदिह बहुधा कर्म मोहादकांर्ष जानात्यन्यो न हि जिनपतेर्यद्विपाकं मुनीश ! । यावज्जैनीं वचनरचनां वा न विन्दन्ति तावत् कामार्त्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाऽ घेतनेषु ।। ५ ।। ५. हे मुनिराज ! काम से अन्धा हो कर मैंने मोहवश वे अनेक कुकर्म किये हैं जिन के विपाक को जिन देव के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं जानता है। जब तक काम से पीड़ित जन जिन-वाणी को नहीं जानते हैं तब तक वे चेतन और अचेतन के स्वरूप के विषय में अनभिज्ञ रहते हैं । जाने युष्मान् जिनपतिसमान् ज्ञानदानप्रवीणान् रणोऽमुष्मादनणुभवतो भावविद्वेषिजेतृन् । याचे तस्माच्चरणशरणं क शरण्याः ! रणघ यात्रा मोघा वरमधिगुणे नाऽधमे लब्धकामा । । ६ ॥ ६. हे आश्रय देने वाले ! चेतन और अचेतन के ज्ञान से वंचित मै आप को भी जिन-देव के समान ज्ञान देने में दक्ष, महान् एवं राग-द्वेपादि मनोभावों का विजेता मानता हूँ । अतः संसार रूपी कर्म-रण को जीतने वाले श्री चरणों की शरण चाहता हूँ, क्योंकि गुणी से निष्फल याचना भी नीच से सफल याचना की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है। कृत्वा लोचं शिरसि सहसा पंचभिर्मुष्टिभिः स्वैलत्वा दीक्षां गुरुवचनतः सैष शिक्षामवेत्य । गुवदिशादथ निजपुरीमागमत्तां यतिर्या बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या ।। ७।। 13 ७. अपनी पंचमुष्टियों से शीघ्र ही शिरके के केशों का लोच कर गुरू- मुख से दीक्षा और शिक्षा प्राप्त कर, गुरू (भद्रबाहु ) के आदेश से वे यति अपने उस नगर में गये जिसके बाह्योद्यान में स्थित प्रासाद शिव के मस्तक पर स्थित चन्द्रमा की चन्द्रिका से घुले थे। कोशा शस्यप्रकृतिरथ सा स्वप्रियं चनुयान्ती दध्यावेवं विविधवचनैरम्बया संनिषिद्धा ! तिष्ठेत् को हा! स्वगृह इह हि प्रोषिते प्राणनाथे न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यः पराधीनवृत्तिः ।। ८ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ८. सुन्दर स्वभाव वाली, अपने प्रिय का अनुगमन करने वाली तथा अपनी माँ के द्वारा विविध वचनों से रोकी गई उस कोशा ने इस प्रकार विचार किया हाय मेरे समान पराधीन न रहने वाली ऐसी कौन (स्त्री) होगी जो अपने प्रिय के दूर चले जाने पर भी घर में रुक सके। प्राप्तं द्वारि प्रियतममथो वीक्ष्य सोचे प्रमोदादेवोत्तुंगं भज निजगृहस्यैनमग्रयं गदाक्षम् । स्त्रिग्धच्छायं धनमिव जनानन्दनं यत्र संस्थं सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः ।। ६ ।। ८. इसके पश्चात् वह कोशा प्रियतम को अपने द्वार पर आया देख कर हर्ष से बोली हे देव! आप अपने गृह के श्रेष्ठ एवं उन्नत गवाक्ष को ग्रहण करें, जहाँ आकाश में घनी छाया वाले मेघ के समान मनुष्यों को आनन्दित करने वाले और नेत्रों को सुन्दर लगने वाले आप की सेवा बलाकायें करेंगी । अद्य श्वो वा सखि ! तव वरः स्थूलभद्रः समेता स्वस्थं तस्मात् कुरु निजमनो मुंच मुग्धे ! विषादम् । दधे प्राणानमिति सखीभाषितैर्नाथ ! वाssशा सद्यः पाति प्रणयिहृदयं विप्रयोगे रुणद्धि ।। १० ।। शीलदूतम् १०. " हे सखिः तुम्हारे पति स्थूलभद्र आज या कल तक आ जायेंगे। अतः हे बावरी ! अपने मन को स्वस्थ रखो, खिन्नता का त्याग करो" हे नाथ सखियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर मैंने प्राणों को धारण किया है क्योंकि प्रिय के विरह में तुरन्त टूट जाने वाले अबलाओं के हृदय को आशा ही रोके रहती है। स्वामिनंगीकुरु परिचितं स्वाधिकारं पुनस्तं भोगान् भुङ्क्ष्व प्रिय ! सह मया साधुवेषं विहाय । दोलाकेलिं किल कलयतः कौतुकात् काननान्तः संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः ।। ११ । । ११. हे स्वामी ! आप अपने उस चिर परिचित अधिकार को पुनः स्वीकार करें। हे प्रिय ! आप साधुवेश का परित्याग कर मेरे साथ विषयभोगों का सेवन करें। जब श्रावण मास में उद्यान के मध्य उल्लासपूर्वक हिंडोले पर क्रीडा करेंगे तब श्रेष्ठ भूपतिगण आप के सहायक होंगे। पश्य स्वामिन्निजपरिजनं त्वद्वियोगात्तिंदीनं हीनं स्थाने जलविरहिते मीनवत्पीनदुःखम् । त्वत्संयोगे मुदितमनसो वीक्षिता यस्य शस्याः स्नेहव्यक्तिश्विरविरहजं मुंचतो वाष्पमुष्णम् ।। १२ ।। १२. हे स्वामी ! अपने वियोग की व्यथा से दीन-हीन उस अपने परिजन को देखिये जिस का जल - रहित स्थान में स्थित मीन के समान अत्यधिक बढ़ गया है। आज आप के पुनर्मिलन दुख Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से उस का मन मुदित हो उठा है और दीर्घकालीन विरह- जनित उष्ण अश्रु गिरा कर उस के उत्कृष्ट स्नेह की अभिव्यक्ति हो रही है। मा जानीष्व त्वमिति मतिमन् ! संयमं मुंचतो में नाशं यास्यत्यवनिविदिता कीर्तितविस्फूर्तिर्तरेषा । सिद्धिं याता पुनरपि यथा सिन्धुपूरः प्रदानैः क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः स्त्रोतसां थोपयुज्यू ।। १३ ।। १३. हे बुद्धिमान् ! आप यह मत समझिये कि संयम को छोड़ देने से आप का यह विश्व-विख्यात यश-रूपी तेज नष्ट हो जायेगा। जिस प्रकार नदी का प्रवाह जल प्रदान करने के कारण क्षीण हो जाता है परन्तु सोतों के थोड़े-थोड़े जल को जोड़कर पुनः पूर्ण हो जाता है उसी प्रकार आप भी अभी संयम का त्याग करके कुछ समय के पश्चात् पुनः उस का पालन करें तो मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। जग्मुर्मुक्ति कति न भरताद्याः समाराध्य दानं ? भुंजन् भोगान् सुभग ! भव तद् दानधर्मोद्यतस्त्वम् । कीर्त्या मूर्तीस्त्वमपि सितयन् स्वः श्रियां सिद्धिमेता दिङ्दिङ् नागानां पथि परिहरन् स्थूलहस्तावलेपान् । । १४ । । १४. क्या दानधर्म की सम्यक् आराधना करके भरतादि कितने व्यक्ति मोक्ष नहीं प्राप्त कर चुके हैं ? अतः हे सुभग ! आप भी भोगो को भोगते हुये दानधर्म में उद्यत हो जाएँ। इस प्रकार कीर्ति से दिग्गजों की आकृतियों को शुभ्रतर बनाते हुये और मार्ग में स्वर्ग की सुन्दरियों के हाथों का प्रचुर भोजन त्यागते हुये आप भी मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। स्वामिन् ! सिंहासनमनुपमं त्वं प्रसद्याश्रयेदं नानारतद्युतिततिकृतस्फारधित्रं पवित्रम् । येन स्त्रिग्धं वपुरुपचितां कान्तिमापत्स्यते ते बर्हेणेव स्फुरिरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः ।। १५ ।। 15 १५. हे स्वामी ! आप विभिन्न प्रकार के रत्नों के प्रकाश से विस्तृत शोभा वाले पवित्र और अद्वितीय सिंहासन पर प्रसन्न होकर बैठिये, जिस से आप का मोहक शरीर मोर के पंख से विस्तृत शोभा वाले गोपवेशधारी भगवान् विष्णु के शरीर के समान कान्ति-पुंज को धारण कर लेगा । मन्ये जज्ञे कुलिशकठिनं तावकीनं हृदेत द्यस्मादस्मानपि नहि दृशा स्त्रिग्धया पश्यसि त्वम् । पश्येयं त्वां वदति सरसं सारिका देव ! मा मा किंचित्पश्चाद् व्रज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण ।। १६ ।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलदूतम् १६. ऐसा मानती हूँ कि आप का हृदय वज के समान कठोर हो गया है। इसीलिये आप मुझे अनुरक्त दृष्टि से नहीं देख रहे हैं। हे देव ! उत्तर की ओर किंचित् पीछे हटकर थोड़ी दूर पर देखें, यह सारिका भी आप से 'नहीं नहीं कह रही है। आलापैस्त्वां मृगय मुदितः कोमलैः कोकिलायाः क्रीडारामो भवदुपधितः स्वागतं पृच्छतीव। नो नीचोऽपि प्रणयनिभृते भाग्यलभ्ये घिरात प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः ? ।।१७।। १७. आप के आगमन से प्रमुदित यह क्रीडोद्यान कोकिलों की मधुर ध्वनि के द्वरा मानों स्वागत प्रश्न कर रहा है। नीच व्यक्ति भी दीर्घ काल के पश्चात् सौभाग्य से अपने प्रेमी मित्र के मिलने पर विमुख नहीं होता है तो फिर जो ( उद्यान) उतना उन्नत (वृक्षों के कारण ) है उस का क्या कहना है। द्र मासान्नव किल यया मध्यमध्ये सुधीमन् ! वृद्धिं नीतः सरसमधुराहारयोगाद् भवान् वा। गेहस्थोऽपि प्रिय ! गुरुगुणां मातरं मानयनां सद्भावाः फलति न चिरेणोपकारो महत्सु।।१८।। १८. हे बुद्धिमान जिस ने आप को नौ मासों तक गर्भ में धारण किया और जिसने सरस एवं मधुर आहार के संयोग से आप को बड़ा बनाया उस श्रेष्ठ गुणों वाली माता की आज्ञा का पालन गृहस्थ होकर भी आप कीजिये क्योंकि महान् लोगों पर किया हुआ उपकार बहुत समय बीत जाने पर भी समाप्त नहीं होता है। त्वय्यायाते धरणिरमणीसारश्रृंगाररूपे प्रासादोऽयं प्रिय ! निजरूघा जेष्यति स्वर्गलोकम् । विष्वक्शुद्धस्फटिकरधितस्त्विन्द्रनीलाग्रभागो मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डुः ।। १ ।। १६. हे प्रिय ! भूतल की रमणियों में श्रेष्ठ सुन्दरी (अर्थात् कोशा) के श्रृंगाररुप आपके (स्थूलभद्र के) आ जाने पर चारों ओर से शुद्ध स्फटिक से जटित एवं अग्रभाग में नीलम से युक्त यह भवन पृथ्वी (रूपी रमणी) के अग्रभाग में नीले और शेष भाग में पीले वक्षस्थल के समान शोभित होकर सुन्दरता से स्वर्ग को भी जीत लेगा। क्रीडाशैले कलय विपुले निर्झराली किलतां यत्रावाभ्यां श्रमहतिकृते क्रीडितं नाथ ! पूर्वम् । यामालोक्याकलयति कलं चित्रमत्रत्यलोको भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमंगे गजस्य ।। २०।। २०. नाथ ! विस्तृत क्रीडा-पर्वत पर इस निर्झर-श्रेणी को देखिये जहाँ पहले हम दोनो श्रम दूर करने के लिये क्रीडा करते थे और जिस को यहाँ के लोग हाथी के शरीर पर रेखाओं से रचित Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा मुञ्चेदं धनमनिधनं नाथ ! सम्पूरिताशं सर्व चैनं निजपरिजनं त्वय्यतिस्नेहयुक्तम् । नीतिशोऽपि प्रथितमहिमन् ! येत्सि नैतत्कथं यत् ? रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय ।। २१ ।। २१. हे नाथ ! आशाओं को पूर्ण करने वाले स्थायी धन और आप में अतिशय अनुरक्त इस परिजन को मत छोडिये। हे विख्यात-महिम ! आप नीतिज्ञ हो कर भी यह क्यों नहीं समझते कि सभी पदार्थ रिक्त होने पर लघु हो जाते हैं और पूर्ण होने पर भारी (गुरु) हो जाते हैं। व्यापार मा परिहर वर ! त्वं नृपधीशमं तं प्राप्य क्लेशोपममिममहो। संयमं मन्त्रिपत्र ! मुञ्चेच्चिन्तामणिमिह हि कः काचमादाय यस्मिन् ? सारंगास्ते जललवमुचः सूचयिष्यन्ति मार्गम् ।। २२।। २२. हे श्रेष्ठ मन्त्रिपुत्र ! राजलक्ष्मी का शमन करने वाले क्लेशतुल्य इस संयम को प्राप्त कर उस व्यापार (ऐश्वर्य- भोग) का परित्याग मत कीजिये जिसमें जल-सीकरों को गिराते हुये गजेन्द्र तुम्हारे मार्ग की सूचना देंगे। अरे ! कौन यहाँ ऐसा है जो काच को लेकर चिन्तामणि का परित्याग कर दे। तीनं यत्त्वं तपसि सतपो देवलोकाशयेह स्त्रीसम्भोगादपरमरिरे । नास्ति तत्रापि सौख्यम् । गेहस्वस्तद्रधय सुधिरं स्वर्गसौख्याधिकानि सोत्कण्ठानि प्रियसहघरी संभ्रमालिंगितानि ।। २३ ।। २३. हे2 अरिरे ! (काम क्रोधादि शत्रुओं को जीतने वाले) यहाँ आप स्वर्ग की आशा से श्रेष्ठ और उग्र तप कर रहे है तो उस (स्वर्ग) में भी स्त्रीसंभोग से बढ़ कर कोई सुख नहीं है, अतः गृहस्थ रह कर अपनी प्रिय सहचरी का उत्सुकता-पूर्वक हाव-भाव से युक्त स्वर्गसुखातिशायी आलिंगन कीजिये। नीत्वा नीत्या कतिपयदिनं यौवनं गेहवासे भुक्त्वा भोगानवनिवलये नाथ ! तत्वा स्वकीत्तिम्। वाक्येडव प्रिय ! निजजनैः साश्रुदृग्भिवताय प्रत्युद्यातः कथमपि भवान् गन्तुमाशु व्यवस्येत्।। २४।। २४. हे नाथ ! हे प्रिय ! कुछ दिनों तक गृहस्थाश्रम में रहकर नीतिपूर्वक यौवन व्यतीत कर भोगों को भोग कर और भूमंडल में कीर्ति का विस्तार कर पुनः वृद्धावस्था में जब आत्मीयजन साश्रु नेत्रों से स्वागत करें तब आप किसी प्रकार शीघ्र सन्यास के लिये जाने की चेष्टा करें। ताते याते त्रिदशभवनं युष्मदाशानिबद्धा ये जीवन्ति प्रिय ! परिहरंस्तान्न किं लज्जसे त्वम् ? Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलदूतम् आयाभावात् त्वयि सति गते बान्धवास्तेऽस्तवित्ताः संपत्स्यन्ते कतिपयदिनस्थायिहंसा दशार्णाः ।। २५।। २५. हे प्रिय ! पिता के स्वर्ग चले जाने पर जो आप की आशा में बैंध कर जी रहे हैं उन्हें छोड़ते हुये क्यों लज्जित नहीं हो रहे हैं ? आप के चले जाने पर आय के अभाव में जिन का धन नष्ट हो जायेगा उन दस व्यक्तियों के ऋणी बान्धवों के प्राण कतिपय दिनों तक ही ठहर पायेंगे। भंडक्ते भोगान किमिह न भवान नन्दिषेणोऽपि तस्थौ ? वेश्याSSवासे चिरविरचितं प्रोज्य चारित्रमुच्चैः । मुहयेत् को नो शुचि सुललितं वीक्ष्य वा वारनार्याः सभ्रूभंगं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्कलोमि ? ।। २६॥ २६. आप भोगों का उपभोग क्यों नहीं करते हैं ? नन्दिपेण भी दीर्घकाल से रचित चारित्र्य का त्याग कर वेश्या के घर में ठहर गये थे। बेतवा के चंचल तरंगयुक्त जल के समान वारवनिता के भ्रूभंगयुक्त स्वच्छ और सुललित मुख को देख कर कौन मोहित नहीं हो जाता है? क्रीडाशैलो वर ! गुरूरयं राजते ते पुरस्ताचक्रे केलिः किल सह मया या चित्रा त्वया प्राक। स्त्रिग्धच्छायैर्विमलसलिलैः सत्फलैर्यो जनाना मुद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभिविनानि ।। २७।। २७. हे पतिदेव ! यह विशाल क्रीडा- पर्वत आप के समक्ष शोभित है जहाँ पहले आप ने मेरे साथ विचित्र क्रीडायें की थीं और जो स्निग्ध छाया विशुद्ध जल और सुन्दर फलों वाले शिलागृहों के द्वारा मनुष्यों के उत्कट यौवन को उद्दीप्त कर देता है। अस्मिन् सान्द्रद्रुमचर्याचते पर्वत वतत ते क्रीडोद्यानं सुरवनसम नाथ! सर्वतुकाख्यम् । स्वेदं शीतो हरति सुरभिः संमतो यत्र वायु श्छायाSSदानात् क्षणपरिचितः पुष्पलावीमुखानाम् ।। २८ ।। २८. हे नाथ सघन वनों से व्याप्त इस पर्वत पर नन्दन वन के समान सर्वतुक नामक आप का क्रीडोद्यान है जहाँ वृक्षों की छाया ग्रहण करने के कारण क्षण भर में परिचित हो जाने वाला सुगन्धित, प्रिय और शीतल वायु पुष्प चुनने वाली कामिनियों के मुखों का स्वेद हर लेता है। स्वामिन्नस्मिन् स्मरगृहसमे कानने तावकीने कामक्रीडां विदधति समं निर्जराः सुन्दरीभिः। स्नेहस्निग्धस्त्वमिह रतिदैवीक्षितोऽपि प्रियाणां लोलापांगैयदि न रमसे लोचनैर्वञ्चितोऽसि ।।२६।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. हे स्वामी ! कामदेव के गृह के समान आप के इस उद्यान में देवगण सुन्दरियों के साथ क्रीडा करते रहते हैं। यदि यहाँ आप प्रियाओं के स्नेह-स्निग्ध, कामोद्दीपक, एवं चंचल कटाक्षों वाले लोचनों के द्वारा देखे जाने पर भी रमण नहीं करते हैं तो वंचित है। लोलच्छाखाशयविलसितैस्त्वामिवाकारयन्ती भुंगालापैरिव तव तपः साम्प्रतं वारयन्ती। वृक्षालीयं कुसुमपुलकं दर्शयन्तीव पश्य स्त्रीणामाचं प्रणयि वचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ।। ३०।। ३०. देखिये, यह वृक्ष-श्रेणी मानों शाखा-रूपी हाथों से आप को बुला रही है, मानों भ्रमरों के शब्दों में तुम्हें तप करने से रोक रही है और मानों पुष्पों के रूप में रोमांच का प्रदर्शन कर रही है। प्रिय के प्रति महिलाओं के हाव-भाव ही प्रारम्भिक वचन होते हैं। हीनं दीनं सुभग ! विरहात ते धुताSSहारनीरं पश्येदं मे वपुरुपचितिं याति नान्यैः प्रयोगैः। जाने नाहं बहु निगदितुं त्वद्रियोगतिजातं कार्य येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः ।। ३१ ।। ३१. हे सुभग ! देखिये आप के वियोग के कारण भोजन और जल का परित्याग कर देने से दुर्बल मेरा शरीर अन्य युक्तियों से वृद्धि को नहीं प्राप्त हो रहा है। मैं अधिक बोलना नहीं जानती हूँ। आप के वियोग-दुःख से उत्पन्न कृशता जिस विधि से दूर हो जाये उसे आप को ही करना चाहिये। गेहं देहं श्रिय इव भवत्कारितं भत्तरतद् भाग्यैर्लभ्यं नय सफलतां स्वोपभोगेनं नाथ । स्वल्पीभूते स्वकृतसुकृते नाकिनां भूगतानां शेषैः पुण्यैहृतभिव दिवः कान्तिमत् खण्डमेकम् ।। ३२।। ३२. हे स्वामी लक्ष्मी के शरीर के समान यह गृह आप के द्वारा निर्मित है तथा भाग्य से प्राप्त हुआ है, इसे अपने उपभोग से सफल बनाइये। यह स्वकृत पुण्यों के स्वल्प हो जाने पर भूलोक में आये स्वर्गवासियों के शेष पुण्य से आहत स्वर्ग के कान्तिमान् खण्ड के समान है। अंगीकृत्य प्रिय ! गुरुतरां मन्त्रिमुद्रां समुद्रां दानैरस्यां पुरि हर विरं लोकदारिद्यमुद्राम्।। यत्रावन्त्यामिव सुरसरिदन्ति तापं च शीतः सिपा-वातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः।। ३३ ।। ३३. हे प्रियतम ! मुद्रा (सिक्कों या रूपयों) से युक्त, महत्त्वपूर्ण मंत्री की मुद्रा ( नामांकित अंगूठी या मोहर) को स्वीकार कर इस पाटलीपुत्र नगरी में चिर-काल तक लोगों की दरिद्रता का चिहन् ( मुद्रा) दूर करें। जैसे अवन्ती में रति के लिये प्रिय वचन कहने वाले प्रियतम के Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 शीलदूतम् समान शिप्रा का शीतल वायु संताप दूर कर देता है वैसे ही यहाँ देवनदी संताप दूर कर देती पश्य स्वामिन् ! सुविपुलमिदं पाटलीपुत्रद्रडगं गंगोत्संगे नृपतितिलकः कोणिकोऽस्थापयद् यत् । यस्याऽग्रेऽहो ! विविधमणिभिः पूरितस्य क्षमायां संलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस्तोयमात्रावशेषाः ।।३४।। ३४. हे स्वामी ! इस विस्तत पाटलीपत्र नगर को देखें। नपति-श्रेष्ठ कोणिक ने गंगा की गोद में इस की स्थापना की थी। अहा ! विविध मणियों से पूर्ण इस नगर के आगे पृथ्वी पर समस्त समुद्र ऐसे लगते है जैसे उनमें अब केवल जल रह गया है ( रत्न निकाल लिये गये हैं।) आधं नन्दं नृपतिमवधीदा वैरोचनः प्रागत्रारामः सततफलदोऽवाभवत् तस्य राशः। अत्रोदायिप्रभुरपि हतः पापिना तेन दम्भा दित्यागन्तून रमयति जनो यत्रबन्धूनभिज्ञः ।। ३५॥ ३५. "पहले यहाँ वैरोचन नामक मन्त्री ने प्रथम नन्द नप का वध किया था। उसी राजा का निरन्तर फल देने वाला उपवन था। यहीं उस पापी वैरोचन के द्वारा दम्भपूर्वक राजा उदायी भी मार दिया गया था" -- इस प्रकार वृतान्त को जानने वाला व्यक्ति नवागन्तुक बन्धुओं का मन बहलाता है। खिन्नोऽसि त्वं धिरविघरणाद् दृश्यतेऽनीदृशस्ते देहस्तन्नो निजपरिजनेनाऽमुना जल्पसि त्वम्। हर्येष्वेषु प्रिय ! निवसनात सज्जयास्मिस्तनुं स्वां नीत्वा खेदं ललितवनितापादरागांकितेषु ।। ३६।। ३६. हे स्वामी ! आप चिर विचरण से क्लान्त हो गये हैं। आप का शरीर पहले जैसा नहीं दिखाई दे रहा है। इसी से अपने उस परिजन से बात नहीं कर रहे हैं। हे प्रिय ! ललित कामिनियों के अलक्त से रंजित इन प्रासादों में रह कर अपना शरीर स्वस्थ कर लें। दंगोत्संगे सगरतनयाssनीतवाहां वहन्ती गंगामेतां सुभग ! मृगयालोलकल्लोलमालाम्। धर्मस्वेदं हरति कुरुते या रतिं दाग नराणां तोयक्रीडानिरतयुवतिस्नानतिक्तैर्मरूमरुद्भिः ।। ३७।। ३७. हे सुभग ! इस नगर के निकट बहती हुई, चंचल तरंग-मालाओं वाली इस गंगा को देखें, जिस की धारा भगीरथ के द्वारा लायी गई थी। वह धुप और स्वेद हर लेती है और जल-विहार करती हुई तरुणियों के स्नान से सुवासित पवन से मनुष्यों में कामवासना उत्पन्न कर देती है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 वासं कुर्वन्नवनिविदिते नित्यरंगेऽत्र दंगे गांगैनीरैरनिशममृतस्वादमावेत्स्यसि त्वम् । गंगाधोपैः श्रुतिसुखकरैरन्वहं घाब्दजाना मामन्द्राणां फलमविकलं लप्स्यसे गर्जितानाम् ।। ३८॥ ३८. आप जगद्-विख्यात एवं नित्य सुखद इस नगर में गंगा के जल में सदैव अमत का स्वाद अनुभव करेंगे और प्रतिदिन कानों को सुख देने वाले गंगा के कलनिनाद के द्वारा मेघों से उत्पन्न गम्भीर गर्जन का अखंड लाभ पायेंगे। नो मुञ्चन्ति प्रिय ! निजकुलाघारभारं महान्तो व्यापारं तत कुरू गुरुममुं पूर्वजाचाररूपम्। स्नेहाद्यस्मिन् सति हि समुदः पौरनार्योऽतिवर्या नामोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकर श्रेणिदीर्घान् कटाक्षान् ।। ३६।। ३६. हे प्रिय ! महान लोग अपना कुलाचार नहीं छोड़ते हैं। अतः पूर्वजों का परम्परागत महत्वपूर्ण व्यवसाय स्वीकार कर लें। इस को स्वीकार कर लेने पर स्नेह से हर्षित नगरनारियां भ्रमर- पंक्ति की तरह दीर्घ एवं वरणीय कटाक्ष तुम पर छोड़ेंगी। पायं पायं शुचि सुललितं बन्धुवाक्यं पयो वा स्वादं स्वादं सरसमधुराहारमेयाः प्रमोदम्। स्वामिन ! नित्यं शिव इव मया सस्पृहं वीक्ष्यमाणः शान्तोदेगः स्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्याः ।। ४०।। ४०. हे नाथ ! जिन्होंने पार्वती की दृढ भक्ति देख ली हो, उन शिव के समान लालसा-पूर्वक एकटक दृष्टि से मेरे द्वारा देखे जाते हुये आप निश्चिन्त होकर बान्धवों के मनोहर वचनों अथवा जल को ग्रहण करके और स्वादिष्ठ एवं मधुर आहार का आस्वादन करके आनन्द प्राप्त करें। कार्या शश्वद् भृतिरिह मया वः पुरेत्युक्तिपूर्व पाणी प्रादात् प्रिय ! किल भवान् यत्पयो मत्सखीनाम् । गृह्णन् दीक्षां निजपरिजनं त्वं विमुञ्चन् क्षणात् तत् तोयोत्सर्गस्तनितमुखरो मा स्म भूर्विक्लावास्ताः ।। ४१।। ४१. हे प्रिय ! पूर्व समय में "मुझे सदैव तुम लोगों का भरण-पोषण करना है।" इस प्रकार कहकर आप ने मेरी सखियों के हाथ में जो जल दिया था आज क्षण भर में प्रियजनों को छोड़ कर दीक्षा ग्रहण करते हुये, उस जल को गिरा कर मेघगर्जन सा शब्द मत करें क्योंकि वे भीरु हैं। व्यापारस्ते यदि न हृदये संमतो शाततत्त्वे वाणिज्येनार्जय धनधयं त्यागभोगक्षमं तत्। अंके क्षिप्तानव तव पुराऽनेन पित्रा स्वबन्धून मन्दायन्ते न शलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः ।। ४२।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 शीलदूतम् ४२. हे तत्त्वज्ञ-हृदय ! यदि आप को मन्त्रिपद प्रिय नहीं लगता है, तो वाणिज्य के द्वारा दान और भोग सम्पादन में समर्थ धन का अर्जन कीजिये। इस से पिता के बरा गोद में सौपे गये स्वजनों की रक्षा कीजिये क्योंकि जो अच्छे मित्र होते हैं उनके द्वारा अंगीकृत उपकार के कार्य कभी शिथिल नहीं होते हैं। पूर्वः पूर्वे मम खलु समे मानिता यस्य पूर्व तन्मान्योऽसौ सचिवतनयो मे जिघृक्षुस्तपस्याम् । मत्वा नन्दो नृप इति चिरं त्वाऽनुनेतुं प्रमोदात् प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पाभ्यसूयः ।। ४ ।। ४३. "मेरे पूर्वजों के द्वारा इस (स्थूलभद्र) के पूर्वज सम्मानित थे इसलिये तपस्या ग्रहण करने का इच्छक यह मेरे मन्त्री का पुत्र सम्मान्य है।" यह मान कर राजा नन्द ने प्रसन्नता-पूर्वक तुम से मन्त्रिपद ग्रहण करने के लिये चिरकाल तक आग्रह किया किन्तु वह पद अस्वीकार कर देने पर वह ( नन्द) विमुख होकर तुम से रुष्ट है। दीक्षामेषा तव सुरनदी वारयत्यूमिरावैः पश्य स्वामिन् ! बहुपरिचिता प्रेयसीवेयमुच्चैः । अस्याः शस्याशयरयकृतान्यहसि त्वं न विदन ! मोघीकर्तु घटुलशफरोक्तनप्रेक्षितानि ।। ४४।। ४४. हे स्वामी । देखिये, बहु-परिचिता प्रेयसी के समान यह गंगा अपनी ऊंची तरंग-ध्वनियों से आप को दीक्षा लेने से विरत कर रही है। पवित्र मन की उत्कंठा से किये गये इस के चंचल शफरों (मत्स्य-विशेष ) के उच्छलन (उछलना) रूपी दृष्टिपात को व्यर्थ न कीजिये। कान्तावाचा विरकृतमहो ! प्रोज्य चारित्ररत्नं भेजे भोगान् सुभग ! विततानाद्रपूर्वः कुमारः। सोऽस्थाद गेहे प्रिय ! जिनमितान वत्सरान स्नेहतो वा ज्ञातास्वादो विपुलजघनां को विहातुं समर्थः ? ॥४५॥ ४५. हे सुभग ! हे प्रिय ! प्रियतमा के कहने से आद्र कुमार ने चिर-काल से पालन किये गये बहुमूल्य चारित्र्य को छोड़कर विपुल भोगों का सेवन किया था। वह प्रेम से चौबीस वर्षों तक .. घर में रह गया। कौन रसिक पुरुष विपुलजघना विलासिनी रमणी का त्याग कर सकता है ? सूदक ततिपय ! मम वचो मानयित्वा गृहे स्वे तारुण्यं त्वं नय विनयतः प्रार्थ्यमानः प्रियाभिः । वर्षाकाले तव विहरतः शर्मकर्ता वनान्तः शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम् ।।४।। ४६. अतः शुभ परिणाम वाले मेरे वचन को मान कर विनय- पूर्वक प्रियाओं से प्रार्थित होते हुये आप युवावस्था व्यतीत करें। वर्षाकाल में जब वन में विहार करेंगे तब वन्य उदुम्बरों (गूलरों) को पकाने वाला शीतल पवन आप को सुख देगा। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगीकृत्य प्रियतम ! महामात्यमुद्रां सुभद्रां सान्द्रानन्दं कुरु निजपतिं नन्दनामानमेनम् । भूयाद् भूयस्तव जनकवत् शत्रुतृण्यावलीनामत्यादित्यं हुतवह! मुखे संभृतं तद्धि तेजः ।। ४७ ।। ४७. हे प्रियतम ! कल्याण - जनक महामन्त्री के पद को अंगीकार करके अपने नन्द नामक स्वामी को अत्यधिक आनन्दित कर दें । हे शत्रु- रूपी तृण- समूह को भस्म करने वाले अग्नि ! आप के मुख पर सूर्य को भी तिरस्कृत करने वाला पिता के समान तेज पुनः संचित हो जाये । क्षामं कामं तव वपुरभूत तत्र तीव्रस्तपोभि भक्त्या क्लृप्तं प्रियतम ! मया भोजनं तत् कुरु प्राक् । दक्षा नाट्ये जितसुरबधूर्नर्तकीर्मर्दलानां पश्वादद्रिग्रहण गुरुभिर्गर्जितैर्नत्त्यथाः ।। ४८ ।। ४८. प्रिय ! वहाँ तीव्र तपों से आप का शरीर क्षीण हो गया है अतः पहले भक्ति-पूर्वक मेरे द्वारा रचित भोजन ग्रहण करें। उसके पश्चात् पर्वतों में प्रतिध्वनित होने के कारण गम्भीर मृदंग ध्वनियों के द्वारा देवांगनाओं को जीतने वाली नाट्य कला में प्रवीण नर्तकियों को नचाऐं । पुण्याय त्वं स्पृहयसितरां तत् परं नोपकारात् स स्यात्प्रायः प्रियवर ! सरः कूपवापीविधानैः ? कुर्याः श्रेयः प्रतिदिनमिदं तद् गृहस्थोऽपि लुम्पन् । स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम् । 149 ।। 23 ४६. हे प्रियवर ! आप अत्यन्त पुण्य के लिये इच्छा कर रहे है। वह पुण्य परोपकार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है और वह उपकार सरोवर, कूप और वापी के निर्माण से होता है। अतः गृह में रह कर भी पृथ्वी पर स्रोत के रूप में परिणत रन्ति देव की कीर्ति को लुप्त करते हुये इस कल्याणकारी कार्य को करें। यं तातस्ते पुरहितकृतेऽकारयच्छिल्पिसारैः प्राकारं तं स्फटिकघटितं नाथ ! पश्याभ्रलग्नम् यं वीक्षन्ते दिवि दिविषदो नीलवेषायुतं श्रा गेकं मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम् ।। ५० ।। ५०. नाथ ! नगर की रक्षा के लिये आप के पिता ने कुशल शिल्पियों के द्वारा जिसे बनवाया था। उस आकाश को छूने वाले स्फटिक-रचित प्राचीर को देखिये । उस प्राचीर को आकाशस्थ देवता पृथ्वी की उस मौक्तिक माला के समान देखते हैं जिस के मध्य में स्थूल (बड़ा) इन्द्रनील मणि सुशोभित हो । कामो वामं रचयतितरां यौवने नाथ ! चित्तं योगाभ्यासोद्यतमतिभूतां योगिनामप्यवश्यम् । अंगीकुर्या वयसि घरमे धर्मभेदानतः स्वं Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलदूतम् पात्रीकुर्वन् दशपुरवधूनेत्रकौतुहलानाम्।। १।। ५१. हे नाथ ! युवावस्था में योगाभ्यास में प्रवृत्त बुद्धि वाले योगियों के भी चित्त को काम विपरीत बना देता है। अतः आप दशपुर की बधुओं के नेत्रों की उत्कण्ठा के विषय बन कर वृद्धावस्था में धर्म को स्वीकार करें। औदासीन्यं परिहर ततः साम्प्रतं कातराई निश्चिन्तं तं कुरु निजपति वैरिवारं विजित्य। युद्धे किं न स्मरसि धनवद् वैरिणां ते पिता य द्वारापातैस्त्वमिव कमलान्यभ्यवर्षद् मुखानि ? ।। ५२।। ५२. तो अब कायरों के लिये उचित उदासीनता को छोड़ दें। शत्रु-समुदाय को जीत कर अपने उस स्वामी (राजा) को निश्चिन्त कर दें। क्या आप को स्मरण नहीं है कि जैसे मेघ धारारूप में आपके ऊपर जल की वृष्टि करता है उसी प्रकार आप के पिता ने युद्ध में शत्रुओं के (छिन्न) मुखों (शिरों) की वर्षा की थी। सीदन्तं किं सदयहृदयोपेक्षसे बन्धुवर्ग वाञ्छन् शुद्धिं त्वमिह विविधैर्दुस्तपैस्तैस्तपोभिः ? दत्तैः पात्रे सततममले गेहिधर्मे स्ववित्तै रन्तः शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः ।। ५३।। ५३. हे दयालु-हृदय ! आप इस संसार में विविध दुष्कर तपों से शुद्धि चाहते हुये, अपने दुखी कुटुम्बियों की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं। गृहस्थ-धर्म में निरन्तर सुपात्र को दान देकर भी आप का अन्तःकरण पवित्र हो जायेगा। आप केवल वर्ण से श्याम रह जायेंगे। रत्वाSSवाभ्यां घिरमुपवने जातगात्रश्रमाभ्यां सस्ने यत्र प्रिय ! कलजला स्वधुनी भाति सेयम् । मुक्त्वा मां किं भ्रमसि भुवि येतीव फेनैर्हसन्ती शम्भोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्रोमिहस्ता।। ५४॥ ५४. उपवन में चिरकाल तक रमण करने के पश्चात् थक कर जहाँ हम दोनों ने स्नान किया था यह वही रम्यसलिला गंगा शोभित हो रही है, जिसने "मुझे त्याग कर भूतल पर क्यों भ्रमण . करते रहते हो।" मानों इस प्रकार कह कर फेनों के द्वरा हँसते हुये, तरंगरूपी हाथों को चन्द्रमा पर लगा कर शिव का केश पकड़ लिया था। अस्यां शस्याशय ! यदि भवान् नीरकेलिं प्रकुर्याद युक्तस्ताभिः प्रिय ! सह मया मद्यस्याभिराभिः। धौतैरासां मृगमदभरैः कज्जलैर्वा तदेषा स्यादस्थानोपगतयमुनासंगमेवाभिरामा।। ५५॥ ५५. हे सुन्दर अभिप्राय वाले प्रिय ! यदि इस में उन लहरियों से युत होकर आप मेरी संखियों Jain Educaton International ww.jainelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मेरे साथ जल-क्रीडा करेगे तो उन के घुले हुये प्रचुर मगमद (कस्तुरी) और काजलों से इस, की ऐसी शोभा होगी जैसे बिना स्थान (प्रयाग) के ही वह यमुना से मिल गई है। क्रीडां तत्र त्वयि रचयति प्रीतचित्ते नितान्तं स्वर्णोच्छंगीनिहित सलिलक्षेपणाद्यौर्विनोदैः । रोधः क्षुण्णं तव जयखुरैलप्स्यते नाथ । तस्याः शोभा शुभत्रिनयनवृषोत्खातपंकोपमेयाम् ।। ५६ ।। ५६. हे नाथ ! वहाँ जब आप प्रसन्न- चित्त होकर स्वर्णिम पिचकारी में निहित जल के क्षेपण (फेकने) आदि विनोदों के द्वारा क्रीडा करेंगे तब आप के अश्वों के खुरों से भग्र उस (गंगा) का तट, शिव के श्वेत बैल से विदारित पंक के समान शोभा को प्राप्त कर लेगा। धर्मेष्वाद्यामिह खलु दयामादिदेवो जगाद प्रोज्झन्नेतां निजपरिजने वेत्सि धर्म न सम्यक। सीदन्तं तन्निजजनममुं पालय स्वार्जितैः स्वै रापन्नातिप्रशमनफलाः संपदो युत्तमानाम् ।। ५७।। ५७. आदिदेव (ऋषभदेव) ने दया को आदि धर्म बताया है। क्या आप अपने परिजन को छोड़ते हुये उस दया को सम्यक् नहीं समझते हैं ? अतः अपने द्वारा अर्जित धन से अपने दुःखी लोगों का पालन कीजिये, क्योंकि महान लोगों की सम्पत्ति दुःखी लोगों का दुःख शान्त करने के लिये ही होती है। आसाद्येदं निजपितृपदं पालयिष्यत्यसौ नो नूनं चित्ते सचिवसुहृदो ये विचार्येति तस्थुः । प्राप्ते दीक्षा भवति बत ! तानाक्रमिष्यन्त्यमित्राः के वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः ?।।८।। ५८. "अपने पिता के पद को प्राप्त कर वह निश्चय ही हमारा पालन करेगा।" इस प्रकार विचार करके मित्र-मन्त्री बैठे थे, खेद है, वे सभी आप के दीक्षा ले लेने पर शत्रुओं के द्वारा आक्रान्त हो जायेंगे, क्योंकि निष्फल कार्य को प्रारम्भ करने वाले कौन (लोग) तिरस्कार के पात्र नहीं बन जाते। मा जानीष्व त्वमिति मतिमन् ! यद् व्रतेनैव मुक्तिलेंभे श्वभ्रं व्रतमपि विरं कण्डरीकः प्रपाल्य। गार्हस्थ्येऽपि प्रिय ! भरतवद्वीतरागादिदोषाः संकल्पन्ते स्थिरगुणपदप्राप्तये श्रद्दधानाः ।। ५६ ।। ५६. हे बुद्धिमान् ! आप ऐसा मत समझिये कि व्रत से मुक्ति मिलती है। चिरकाल तक व्रत करने पर भी कण्डरीक पतन के गर्त में गिर गया था। हे प्रिय ! गृहस्थाश्रम में भी भरत चक्रवर्ती के समान वीतराग एवं दोषरहित श्रद्धावान् लोग समत्व पद की प्राप्ति में समर्थ होते हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 शीलदूतम् क्रीडाशैलं प्रिय ! भज निजं तं विनोदाय यस्मिन् शब्दायन्ते मधुरमनिशं कीघका वायुयोगात्। नादशस्याऽलामिव तव सत्किन्नरीगीतनृत्यैः संगीतार्थो ननु पशुपतेस्तत्र भावी समयः ।।६।। ६०. हे नाथ ! विनोद के लिये अपने उस क्रीडा- पर्वत का सेवन कीजिये जहाँ वायु के संयोग से कीचक नामक छिद्रयुक्त बाँस सतत ध्वनित होते रहते हैं। (वहाँ) शिव के समान नाद के विशेषज्ञ आप के संगीत के सभी अंग किन्नरियों के सुन्दर गीतों और नृत्यों से पूर्ण हो जायेंगे। हित्वा स्वादिं जिनपतिमहाचैत्यपूते प्रभूते स्त्रीभिः सा विबुधनिधया यत्र खेलन्ति नाथ ! तिर्यग्व्याप्यजनगिरिरिवानं गतो माजते यः श्यामः पादो बलिनियमनाऽभ्युद्यतस्येव विष्णों ।। ६१।। ६१. हे नाथ ! बहुत से जिन-मन्दिरों से पवित्र जिस क्रीडा- पर्वत पर देवगण सुमेरू पर्वत को छोड़ कर स्त्रियों के साथ विहार करते है और जो अंजन-गिरि के समान तिर्यक् (तिरछा ) फैल कर आकाश में पहुँच गया है वह (क्रीडापर्वत) बलि को नियन्त्रित करने के लिये उद्यत विष्णु के श्यामल चरण के समान दीप्त हो रहा है। शैले लीलागृहमिह महत् कारितं तेऽस्ति पित्रा तस्मिन् वासं कुरु वर ! विरं घेद्रति! तवाऽत्र। श्वेतज्योतिः स्फटिकमणिभिनिर्मितं भ्राजते य द्राशीभूतः प्रतिदिनमिव त्र्यम्बकस्याट्टहासः ।। ६२।। ६२. हे पतिदेव ! यदि यहाँ आप का मन नहीं लगता है तो इस शैल पर आपके पिता के द्वारा बनवाया हुआ महान् लीला-गृह है, उस में निवास कीजिये। वह स्फटिक मणि से निर्मित श्वेतकान्ति भवन ऐसा लगता है जैसे शिव के प्रत्येक दिन के अट्टाहास का देर लग गया हो। त्वय्यास्टे रजतरचितं सारमुच्चैर्गवाक्षं देहच्छायाजितहरिरुचा घारु कृत्वा विनोदान्। पश्यत्वेष प्रिय ! परिजनः साध सोधस्य शोभा मंसन्यस्ते सति हलभृतो मेचके वाससीव ।। ६३ ।। ६३. नाथ ! देह की कान्ति से विष्णु की छवि को जीतने वाले आप जब सुन्दर विनोद करके रजतरचित श्रेष्ठ गवाक्ष (खिड़की) पर आरुढ होंगे तब ये परिजन बलराम के कन्धे पर न्यस्त नीलाम्बर के समान प्रासाद की उत्तम शोभा देखेंगे। तस्मिन्नद्रौ भवभयहरं नाभिजन्मानमीशं नत्वा देवं तदनु सुभगाSSलोकयेः कौतुकानि। आयान्त्या मे भवदनु पुनर्वर्त्म कुर्वन् सुगम्यं Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 सोपानत्वं कुरु मणितटारोहणायाग्रयायी।। ६४।। ६४. हे सुभग ! इस पर्वत पर संसार का भय दूर करने वाले ब्रह्मा (अथवा ऋषभदेव) को नमस्कार करने के पश्चात् कौतुक देखियेगा। मणि-शिखर पर चढ़ने के लिये जब आप आगे-आगे चलेंगे तब आप का अनुकरण करते समय मेरा मार्ग सुगम करते हुये सोपान (सीढ़ी) बन जाइयेगा। श्रृंगे तस्मिन् नयनसुभगं धारुरुया यदि त्वां विद्याधर्यः स्मरविधुरिताः प्रार्थययुर्निरीक्ष्य। अक्षोभ्यस्त्वं सुरयुवतिभिनथि ! धिक्कारवाचा क्रीडालोलाः श्रवणपरूपैर्गजितैयियेस्ताः ।। ६५।। ६५. हे नाथ ! आप देवताओं की तरुणियों के द्वारा भी क्षुब्ध नहीं हो सकते। उस पर्वत पर नयनों को सुन्दर लगने वाले आप को देख कर यदि काम पीडित विद्याधारिया क्रीडा के लिये चंचल होकर प्रार्थना करें तो धिक्कार के स्वर में कर्णकठोर गर्जना से उन्हें डरा दीजियेगा। आरामेषु प्रिय ! विरघयंस्तत्र पुष्पावचायं श्रान्तो भ्रान्त्या सुभग ! विदधद् दीर्घिकास्वम्बुकेलिम्। वादित्राणां मधुरनिनदैर्नर्तयन् केकिवृन्दं नानाचेष्टैजैलदललितैर्निर्विशेस्तं नगेन्द्रम् ।।६६ ।। ६६. हे प्रिय ! हे सुभग ! वहाँ उद्यानों में पुष्प-चयन करते हुये चलते चलते जब आप थक जायें तब जलाशयों में जल-क्रीडा करते हुये वाद्यों के मधुर निनाद से मयूर-वृन्द को नचाते हुये मेघ के समान नाना सुन्दर चेष्टाओं वाली क्रीडाओं से उस पर्वत पर विहार करें। आगच्छे स्वां पुनरपि पुरे नाथ ! नीत्वा दिनानि क्रीडाशैले कतिधिदसमां दर्शयन् स्वश्रियं ताम्। यत्राभ्राप्तैर्वहति बहुलैधूपधूमैः सदा धौ मुक्ताजालग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम् ।।७।। ६७. हे नाथ क्रीडापर्वत पर कुछ दिन व्यतीत कर अपनी अतुलनीय शोभा को दिखाते हुये पुनः अपने उस नगर को लौट आयें, जहाँ आकाश वायुमंडल में पहुँचे धूप के प्रचुर धूओं के मेघ-पुंज को यों धारण करता है जैसे कामिनी मुक्ताओं से ग्रथित कुंचित-केश को धारण करती है। स्निग्धच्छायं बहुल विमलच्छायया शालमाना नित्यामोदाः प्रविततमुदं भूरिवित्ताः सुवित्तम्। रत्नज्योतिर्विधुततमसो नाथ ! निधूतापापं प्रासादास्त्वां तुलयितुमलं यत्र तैस्तैर्विशेषैः ।।६।। ६८. हे स्वामी ! जहाँ समान विशेषताओं के द्वारा प्रचुर निर्मल छाया (छाह ) से परिपूर्ण, नित्य Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 शीलदूतम् सुगन्धित, प्रभूत धनयुक्त एवं रत्नों की ज्योति से अन्धकार को दूर करने वाले प्रासाद, स्निग्ध कान्ति वाले, सतत प्रसन्न, शक्ति-सम्पन्न और पाप-हीन आप की तुलना करने में समर्थ है। अर्हद्भक्तिर्वसति हृदये तारहारेण साकं मूतौ कान्तिः स्फुरति घसदा शीलधर्मेण सार्द्धम्। चित्ते सातं घनसमयजं विधते साम्प्रतं सत् सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम् ।।६।। ६६. जहाँ वधुओं के हृदय में मौक्तिक-हार के साथ जिन-भक्ति बसती है, आकृति में शील-धर्म के साथ कान्ति स्फुरित होती है तथा मन में आप के आगमन के कारण उत्पन्न सुख है और सीमन्त (माँग) में कदम्बपुष्प । गंगागौराः सितकरहयाकारचौरास्तुरंगाः श्रृंगोत्तुंगा ललितगतयो दानवन्तो गजेन्द्राः। लीलावत्योऽखिलयुक्तयो यत्र वीरावतंसाः प्रत्यादिष्टाभरणरूघयश्चन्द्रहासवणाकैः ।। ७०॥ ७०. वहाँ गंगा के समान उज्ज्वल, चन्द्रमा के रथ के घोड़ों की आकृति वाले अश्व है. पर्वत के शिखर के समान ऊंचे, मतवाले और सुन्दर चाल चलने वाले हाथी है। वहाँ की समस्त युवतियाँ चंचल है और वहाँ के वीरों के शरीर पर अंकित तलवार (चन्द्रहास) के घाव, सुन्दर आभूषणों की शोभा को निराकृत करते हैं। स्नेहादन्यद न भवति परं बन्धनं यत्र विधिचिन्ता काधिन्न भवति परा यत्र धर्म विहाय। कश्चिद् यस्मिन् न भवति परो राजहंसात् सरोगो वित्तेशानां न चखल वयो यौवनादन्यदस्ति ।।१।। ७१. जहाँ स्नेह के अतिरिक्त दूसरा कोई बन्धन नहीं है, धर्म के अतिरिक्त दूसरी कोई चिन्ता नहीं है, राज-हंस के अतिरिक्त कोई दूसरा सरोग (सरोवर में जाने वाला और रोगी) नहीं है, और धनियों की यौवन के अतिरिक्त कोई दूसरी अवस्था नहीं है। वेणीदण्डो जयति भुजगान् मध्यदेशो मृगेन्द्रान् यासामास्यं प्रिय ! परिभवत्युच्चकैश्चन्द्रबिम्बम् । चैत्ये नसत्यतुलमसकृद् यत्र वारांगनास्ता स्त्वद्गम्भीरध्वनिपु शनकैः पुष्करेष्वाहतेषु ।। ७२।। ७२. जिन की वेणी भुजंगों को जीत लेती है, जिन की कटि सिंहों को जीत लेती है और जिन का मुख चन्द्रविम्ब को तिरस्कृत कर देता है वे वारांगनायें जहाँ धीरे-धीरे आपके समान गम्भीर-ध्वनि वाले पुष्करों (ढोल) के बजने पर बार-बार अनुपम नृत्य करती रहती है। ___ मालासस्तैर्विविधकुसुमैः कुकुमाक्तांनिधिह Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्ताम्बूलेन शितितलगतेनार्द्धजग्धेन यत्र। हेमाम्भोजैः श्रवणपतितभूषितैभरिवासै शो मार्गः सवितुरुदये सूध्यते कामिनीनाम् ।।७।। ७३. जहाँ सूर्योदय होने पर मालाओं से विच्युत विविध पुष्पों, कुङकुम-रंजित चरणों के चिह्नों, पृथ्वी पर पड़े अर्द्ध-चर्वित ताम्बूलों और कानों से गिरे एवं प्रचुर सुगन्ध से भरे स्वर्ण-कमलों से कामिनियों ( अभिसारिकाओं) का रात्रि-मार्ग सूचित होता है। यत्र स्त्रीणां प्रणयिषु हठादाक्षिपत्सु क्षपायां सौमं साक्षाद् मनसिजपराधीनतामागतेषु। नित्योद्योतानपि मणिमयान् प्राप्य दीप्रान् प्रदीपान् हीमूढानां भवति विफलप्रेरितश्पूर्णमुष्टिः ।। ७४।। ७४. जहाँ रात्रि में साक्षात् काम के वश में पड़े हुये प्रियों के द्वारा हठात् वस्त्र खींच लिये जाने पर लज्जा से मन स्त्रियाँ जब चन्दनादि का सुगन्धित चूर्ण फेंकती है तब यह नित्य प्रकाश करने वाले मणिमय प्रदीपों पर पहुँच कर व्यर्थ हो जाता है। यस्यां लोका विमलमनसः पूर्णकामाभिरामा रामाः कामं ललितगमनाः कामनारीसमानाः । वृक्षाः साक्षादतुलफलदाः कल्पवृक्षोपमेया नित्यज्योत्स्नाप्रतिहततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाः ।। ७५॥ ७५. जहाँ मनुष्य पूर्णमनोरथ, सुन्दर और शुद्धचित्त है, जहाँ ललित गमन करने वाली स्त्रियाँ रति के समान है, जहाँ साक्षात् कल्प-वृक्ष के समान वृक्ष अतुल फल देते है और जहाँ रातों के अन्धकार को नित्य चाँदनी दूर करती रहती है। यस्यामन्तः सुकृतरसिकाः पात्रदानप्रवीणा एनोहीना विततविलसत्कीर्तयः सन्ति सन्तः । वारस्त्रीभिः सह सुमुदिताः काममग्नाश्च कामं बद्ध्या यानं बहिरूपवनं कामिनो निर्विशन्ति ।। ६ ।। ७६. जहाँ सुपात्र को दान देने में पटु पुण्यवान् रसिक है, जहाँ सतत कीर्तिशाली निष्पाप सज्जन हैं और जहाँ कामवासना में मान, मुदित कामीजन यानों पर चढ़ कर वारांगनाओं के साथ बाहयोद्यान में विहार करते हैं। गच्छंस्तूर्ण नभसि तरणिः शंकते नित्यमेवं सौधेष्वेषु स्खलतु मम मा स्यन्दनोऽभ्रलिहेषु। मेघा यस्यामतिगुरुगृहः प्राप्य संघट्टमाराद् धूमोदारानुकृतिनिपुणा जर्जरा निष्पतन्ति ।।७।। ७७. जहाँ आकाश में शीघ्र चलता हुआ सूर्य नित्य शंका करता है कि कहीं इन गगनचुम्बी सौधों Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. जहाँ आकाश में शीघ्र चलता हुआ सूर्य नित्य शंका करता है कि कहीं इन गगनचुम्बी सौधों पर मेरा रथ स्खलित न हो जाये और जहाँ धूऐं की आकृति धारण करने में कुशल मेघ अत्युन्नत भवनों से टकरा कर टुकड़े-टुकड़ें होकर दूर निकल जाते हैं। यान्त्यो व्योम्नि त्रिदशललना वीक्ष्य यासां स्वरूपं सर्व गर्व मनसि रचितं चारुतायास्त्यजन्ति । मुग्धा दुग्धोपचितवपुषः कुटिटमेष्वस्तखेदं संक्रीडन्ते मणिभिरमरप्रार्थिता यत्र कन्याः ।। ७८ ।। ७८. जहाँ दुग्ध के समान गौर और पुष्ट शरीर वाली देवताओं के द्वारा प्रार्थित वे मुग्धाकन्यायें फर्शो पर बिना थके, मणियों से खेलती रहती हैं, जिन का रूप देख कर आकाश में जाती हुई देवांगनायें मन में स्थित, सुन्दरता का सम्पूर्ण गर्व त्याग देती हैं। धर्मस्वेदं सुरतजनितं योषितां यत्र रात्रौ जालायातैः स्वगृहवलभीमध्यष द्धस्थितीनाम् । सारैस्ताराधिपतिकिरणैश्च्योतिता द्योतिताशै र्ष्यालुम्पन्ति स्फुटजललवस्यन्दिनश्चन्द्रकान्ताः । ।७८ ।। ७६. जहाँ रात्रि में झरोखों से आई हुई दिशाओं को उद्योतित करने वाली, मनोरम चन्द्रकिरणों के द्वारा पिघल कर प्रत्यक्ष जल-बिन्दु टपकाने वाली चन्द्रकान्त मणियाँ, अपने भवन के छत पर स्थित कामिनियों का सुरत-जन्य प्रस्वेद दूर कर देती हैं। काले वर्षन्नवनिवलयं सस्यपूर्ण वितन्वन् वास्तुल्यं दिशति सलिलं यत्र धाराधरोऽपि । त्यागो यस्यां धनिभिरनिशं दीयमानोऽर्थिनां द्रा गेकं सूते सकलमबलाssमण्डनं कल्पवृक्षः ।। ८०. जहाँ मेघ भी समय पर बरसते हुये एवं धरा को शस्यों से परिपूर्ण करते हुये इच्छानुकूल जल देता है। जहाँ सदा धनियों के द्वारा दिया जाता हुआ दान- रूपी कल्प- वृक्ष शीघ्र याचकों की स्त्रियों के अनुपम आभूषण उत्पन्न कर देता है। ' तिष्ठन्नस्यां पुरि विजयजं नाथ ! सौख्यं भज त्वं कुर्वन् धर्म भवति सफलं येन जन्मद्वयं ते । हित्वा चापं युवतिषु चिरं यत्र कामोऽपि तस्थौ तस्यारम्भश्चतुरवनितालोचनैरेव सिद्धः ।। ८१ ।। ८१. हे नाथ ! इस नगरी में रहते हुये एवं धर्म करते हुये विजय के द्वारा उत्पन्न सुख का सेवन करें जिस से आप के दोनों जन्म (ऐहिक और आमुष्मिक ) सार्थक होंगे। यहाँ कामदेव भी धनुष छोड़ कर तरुणियों में ठहर गया है, क्योंकि उस का कार्य चतुर वनिताओं के लोचनों से ही पूर्ण हो जाता है। • Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यद्वाष्पं वच इति घिरं प्रोच्य तस्यां स्थितायां सोsवोधत तामभजममलं तन्व्यहं जैनधर्मम् । स्वर्गोऽप्यस्माद् मम स न मतश्चिन्तितं यत्र दत्ते हस्तप्राप्यस्तबकनमितो बालमन्दारवृक्षः । । ८२ ।। -- कहा ८२. जब इस प्रकार अश्रुसहित कहती हुई कोशा चुप हो गई तब उस (स्थूल- भद्र ) ने उस से कृशांगि! मैंने निर्मल जैन धर्म स्वीकार कर लिया है। इस धर्म के अतिरिक्त उस स्वर्ग की भी मैं कल्पना नहीं करता जहाँ हाथ से मिलने वाले गुच्छों से झुका हुआ लघु कल्पवृक्ष मनोवांछित मनोरथ प्रदान करता है। कृत्याकृत्यं गणयति भवान् हन्त ! येषां कृते नो दृष्ट्वा हृष्यत्यनुदिनमलं खिद्यते यान दृष्ट्वा । प्रान्तं प्राप्तं स्वजननिचयास्तेऽप्यहो ! सत्सरोवद् न ध्यास्यन्ति व्यपगतशुचस्त्वामपि प्रेक्ष्य हंसाः || ८३॥ ८३. ( कोशोक्ति ) आप जिनके लिये कृत्य और अकृत्य की गणना नहीं करते थे, जिनको देख कर प्रसन्न हो जाते थे और जिन्हें न देखकर अत्यधिक दुःखी हो जाते थे वे ही स्वजन-समूह निकट पहुँचा हुआ देख कर भी शोक- रहित होकर आप पर उस प्रकार ध्यान नहीं देंगे जिस प्रकार हंस सुन्दर सरोवर पर ध्यान देते है | निःसंगानां गुणफणभृतां यो मया श्रीगुरूणामेवं मुग्धे ! भवभयहरोऽश्राविपुण्योपदेशः । हारेणेव द्युतिततिभृताऽप्यत्र शश्वद् मनोऽन्तः प्रेक्ष्योपान्तस्फुरिततडितं त्वां तमेव स्मरामि।।८४।। 31 ८४. ( स्थूल भद्रोक्ति) मुग्धे ! मैं अनेक श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले अनासक्त गुरूदेव का भवभयहारी उपदेश सुन चुका हूँ। ( अतः) प्रकाश-रेखा को धारण करने वाले हार के कारण यहाँ निकट स्फुरित बिजली के समान तुम्हें देख कर भी मैं उसी उपदेश का स्मरण कर रहा जिग्ये कामः सुतनु ! स मया शीलमासाद्य यस्मात् संज्ञाहीनी रसकुरुवकावप्यहो ! स्तः सरागौ । नार्या एकोsभिलषति भृशं दर्शनं मण्डिताया वाञ्छत्यन्यो वदनमदिरां दोहदा छद्मनाऽस्याः । । ८५ ।। ८५. हे सुतनु ! शील ( ब्रह्मचर्य ) को प्राप्त कर मैंने उस काम को जीत लिया है। अतः वासना - युक्त रस (प्रेम) और रक्ताभ कुरबक - दोनों निष्प्राण हो चुके हैं। उन दोनों में एक (रस) विभूषित नारी का अति दर्शन चाहता है तो दूसरा ( कुरवक) दोहद ( पुष्पोद्गम के समय की इच्छा ) के व्याज से उस (नारी) के मुख से गिराई हुई मदिरा । नीरागं मे समजनि मनो ज्ञाततत्त्वस्वरूपं Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलदूतम् तेनेदानीं न विषयरसो बाधते कुत्रचिन्माम्। पश्याम्येनामपि वनसमां चित्रशालां खलूच्चै यमिध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृद् वः । । ८६. तत्वों का यथार्थ बोध हो जाने के कारण मेरे मन में राग (वासना या आसक्ति) नहीं रह गया है। इसी से मुझे संसार के विषय-भोग आकर्षित नहीं करते हैं। तुम्हारा मित्र मयूर जिस में रहता है उस चित्रशाला को भी मैं बन के समान देखता हूँ। यत्तारूण्ये सति वपुरहो । विभ्रमं भूरिधत्ते पुष्टं मुग्धे! सरसमधुराहारयोगेण शश्वत। अन्यादृक् स्यात् तदपि च गते यौवने देहभाजां सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम् ।।७।। अहो ! प्राणियों का जो शरीर युवावस्था रहने पर सदा विविध आहारों के संयोग से पुष्ट होने के कारण प्रचुर विभ्रम (विलास, हाव-भाव) को धारण करता है वह भी युवावस्था चली जाने पर अन्य प्रकार का हो जाता है। सूर्य के अभाव में निश्चय ही कमल अपनी पूर्ण शोभा को नहीं धारण करता है। मत्वाऽनित्यं जगदिति मनो मे विलग्न जिनोक्ते धर्मे शर्माभिलपति परं शाश्वतं शुद्धचिते ! मुग्धे ! स्निग्धां रघयसि मुधा मामुदीक्ष्य स्वकीयां खद्योतालीविलसितनिभां विधुदुन्मेषदृष्टिम् ।।८।। ८८. हे शुद्ध-चित्ते ! जगत् को अनित्य मान कर जिनोक्त धर्म में लगा मेरा मन श्रेष्ठ एवं शाश्वत् आनन्द की इच्छा करता है। मुझे देखकर तुम व्यर्थ ही अपनी विद्युत् की कौध के समान दृष्टि को जुगनू की पंक्ति के समान चमकने वाली क्यों बना रही हो। नारी यस्मिन्नमृतसदृशी मे बभूवाद्य यावद् रागग्रस्ते मनसि मदनव्यालविध्वस्तसंज्ञे। ध्वस्ते रागे गुरुभिरभवत् क्ष्वेडवत् साऽप्यनिष्टा या तत्र स्याद् युवतिविषये सृष्टिरायेव धातुः ।।४।। ८६. कामरूपी सर्प के ब्ररा नष्ट संज्ञा ( बोध, ज्ञान) वाले मेरे जिस प्रेमी मन में आज तक नारी अमृत के समान थी, अब गुरु के द्वारा प्रेमशून्य कर दिये जाने पर उसी मन में वह स्त्री भी विष के समान लगती है जो संभवतः विधाता की प्रथम रचना के समान सुन्दर है। अज्ञानं मे सपदि गलितं मोहमूच्र्छाऽप्यनेशज्जातं चित्तं सुतनु ! मम तन्निर्विकारं आणेन। स्वसा मृत्योरिव हि जरसा ग्रस्यमानां तनुं स्वां मन्ये जातां तुहिनमथितां पधिनी वाऽन्यरूपाम् ।।601 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EO, हे सुन्दर शरीर वाली ! मेरा अज्ञान शीघ्र गलित हो गया, मोह की भूर्च्छा भी नष्ट हो गई है, मेरा वह चित्त क्षणभर में निर्विकार हो गया है। अतः मृत्यु की बहन वृद्धावस्था के द्वारा ग्रस्त किया जाता हुआ अपना शरीर तुषार से ध्वस्त कगलिनी के समान रूपान्तर को प्राप्त मानता हूँ । तस्मिन्नेवं वदति चतुरोवाच तस्या वयस्या जातं किं तं सुभग ! हृदयं निर्दयं बाढमेतत् ? पश्याऽस्यास्त्वं तव विरहतो वक्त्रमभ्रास्तदीप्तेरिन्दोर्दैन्यं त्वदनुसरणक्लिष्टकान्तेर्बिभति । । ६१ ।। हे ६१. स्थूलभद्र के इस प्रकार कहने पर कोशा की चतुरा नामक सखी ने कहा सौभाग्यशाली ! आप का हृदय दया-विहीन हो गया है, क्या यह उचित है ? देखें, आप के अनुसरण से क्षीण कान्ति वाली इस कोशा का मुख उस चन्द्रमा के समान दयनीय दशा को प्राप्त हो गया है जिस की दीप्ति मेघों ने समाप्त कर दी है। ६३. सुभग ! यह मुझ से कहती थी जब यह तुम्हारा गीत भूल जाती थी । एषाऽनैषीत् सुभग ! दिवसान् कल्पतुल्यानियन्तं कालं बाला बहुलसलिलं लोचनाभ्यां सवन्ती । अस्थाद्दुस्था तव हि विरहे गामियं वार्त्तयन्ती कथ्विद्भर्तुः स्मरसि रसिके ! त्वं हि तस्य प्रियेति ।।२।। ८२. हे सुभग ! लोचनों से अत्यधिक आँसू बहाती हुई इस कोशा ने कल्प के समान दिनों को इतने समय तक बिताया है। आप के विरह में "रसिके ! क्या तू स्वामी का स्मरण करती है ? तू तो उन्हें बहुत प्रिय थी।" इस प्रकार मुझ से कहती हुई यह कठिनाई से (जीवित) रह सकी है। I -- मूर्च्छन्ति सा सुभग ! रुदती वारिता दीननादं प्रातः सायं सखि ! वद कदाऽसौ समेतेत्यवग् माम् । 332 लातुं वेलां तव सुललितं गीतमुद्गातुकामा भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्च्छनां विस्मरन्ती ।। ८३ ।। प्रातः - सायं मूर्च्छा के अन्त में आर्त-स्वर में रोने लगती थी और रोकने पर "सखि ! बताओ, वे कब आयेंगे ।" ( दुःख में) अवकाश पाने के लिये गाना चाहती थी तब बार-बार किये हुये आरोह और अवरोह को स्वयं पृष्टा पृष्टा गणकनिचयं जीवितं धारयन्ती नीत्वा नीत्वां कथमपि दिनान्यंगुलीभिर्लिखन्ती । गत्वा गत्वा पुनरपि पुनद्वारि तस्थौ व गेहे प्रायेणैते रमणविरहेष्वंगनानां विनोदाः । । ६४ ।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ६४. यह ज्योतिषियों से पूछ कर जीवन धारण करती थी, अंगुलियों से रेखायें खींच खींच कर किसी प्रकार दिन बिताती थी और द्वार पर जा जा कर पुनः गृह में चली जाती थी । प्रायः प्रिय के वियोग में रमणियों के ये ही मनोविनोद हैं। श्रृंगारं स्वं सुभग ! विरहेंऽङ्गारवत् संत्यजन्ती दुःखेनाऽलं निजपरिजनं दुः खदिग्धं सृजन्ती । प्रेम्णा बद्धां निपुण ! भवता तां मुहुः संस्पृशन्ती गण्डाभोगात् कठिनविषमामेकवेणीं करेण । ६५ ।। शीलदूतम् ६५. हे सुभग ! इस ने अपना श्रृंगार अंगार के समान त्याग दिया है, और दुःख में डूबे अपने परिजनों को और भी दुःखी बना दिया है। हे निपुण ! (कुशल) जिसे आप ने प्रेमपूर्वक बाँधा था, जो कपोलों पर आ जाने के कारण कठोर और विषम (निम्न्नोन्नत) हो गई थी उस वेणी को बार-बार हाथों से स्पर्श करती रहती है। नीता रात्रिः क्षण इव पुरा या त्वयेद्धाऽपि सार्द्ध क्रीडायोगैः सुरतजनितैश्चारुभोगोपभोगैः । निःश्वासौघैर्निजतनुगतं चन्दनं शोषयन्ती तामेवोष्णैर्विरहजनितैरश्रुभिर्व्यापयन्ती । । ६६ ।। ६६. पहले अपने शरीर पर स्थित चन्दन को उच्छ्वासों के प्रवाह से सुखाते हुये जो प्रकाश-पूर्ण रात्रि आप के साथ क्रीडाओं एवं सुरतजनित सुन्दर भोगों और उपभोगों से क्षण के समान बीत जाती थी उसी को विरह जनित उष्ण अशुओं से व्याप्त करती रहती है। दत्तवा दुःखं मम किमु सुखं हा ! विधातस्त्वयाऽstतं ? जानात्यन्यो न हि परगतां वेदनां वाऽत्र कश्चित् । निन्दित्वाऽलं विविधवचनैर्देवमेवं प्रमीलामाकांक्षन्ती नयनसलिलोत्पीडरुद्धावकाशाम् ।।६७ ६७. "हे विधाता ! हाय, मुझे दुःख देकर तुम ने कौन सा सुख पा लिया है ? यहाँ दूसरे की व्यथा को अन्य कोई नहीं जानता है।" इस प्रकार विविध वचनों से दैव की पर्याप्त निन्दा कर के अश्रु-भार के कारण स्थान न पाने वाली निद्रा की आकांक्षा करती रहती है। संमृज्याश्रुप्लुतमथ निजं दिक्षु वक्षुः क्षिपन्ती श्रीमान्तेन स्वमनसि जगज्जानती शून्यमेतत् । स्मृत्वा स्मृत्वा तव गुणगणं भूमिपीठे लुठन्ती साभ्रेऽनीव स्थलकमलिनी न प्रबुद्धा न सुप्ता । 198 ।। अपने मन में इस जगत को ६८. फिर रेशमी आंचल के छोर से पोंछ कर, अश्रु-पूर्ण नयनों को दिशाओं में डालती हुई, शून्य समझती हुई आपके गुण-गणों को बार-बार स्मरण करके Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघ-यु - युक्त दिन में अधखिली स्थल कमलिनी के समान भू-पृष्ठ पर लुंठित पड़ी रहती है। आलोक्याsस्यास्तव विरहजं श्रेष्टितं यन्न भिन्नं तज्जानीमो वयमिति निजं वज्रसारं हृदेतत् । arvi तत्सदयहृदयात्रोचितं ते विधातुं प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिराद्रान्तरात्मा । । ६६ ।। ६६. आप के विरह से उत्पन्न इस की चेष्टा को देखकर जो विदीर्ण नहीं हो गया उस अपने हृदय को मैं वज्र के समान कठोर मानती हूँ । अतः हे दयालु हृदय ! आप को इस पर दया करना उचित है क्योंकि प्रत्येक कोमल हृदय वाला मनुष्य दयालु होता है । अस्मद्वाक्यं चदि न हि भवान् मानयिष्यत्यदोऽपि प्राणत्यागं तदियमचिरात् सा विधास्यत्यवश्यम् । भूयो भूयः किमिह बहुना जलितेनाऽत्र भावि प्रत्यक्षं ते निखिलमचिराद् भ्रातरुक्तं मया यत् । ।१०० ।। १००. यदि आप मेरे इस वाक्य को भी नहीं मानेंगे तो यह शीघ्र अवश्य प्राण त्याग देगी । पुनः पुनः कहने से क्या लाभ है? हे बन्धु ! मैंने जो कहा है वह शीघ्र आप को प्रत्यक्ष ज्ञात हो जायेगा । वार्त्ताव्यग्रां तुदति न तथा त्वद्वियोगोऽहूनीमां यद्वात्रौ कृतबहुशुचं चन्द्ररोचिश्चितायाम् । पश्यत्वेनां स्वयमपि भवानद्य भूमीशयानां तामुन्निद्रामवनिशयनासन्नवातायनस्थः । । १०१ । । 35 १०१. बहुत चिंतित रहने वाली कोशा को चाँदनी से भरी रात्रि में आप का वियोग जितना पीडित करता है। उतना दिन में नहीं, क्योंकि उस समय यह बात-चीन में फंसी रहती है। 1 अतः आज आप स्वयं ही भूमि पर बिछी शय्या के ऊपर जो खिड़की है उस में स्थित होकर भूमि पर लेटी और जगती कोशा को देख लें । विज्ञप्ति मे सफलय कुरु स्वं मनः सुप्रसन्नं सख्या साकं मम भज पुनर्देव ! भोगान् विचित्रान् । वामाक्ष्यस्यास्त्वयि सति मुहुः स्पन्दमेत्य प्रसन्ने मीनक्षोभाच्चलकुवलयश्रीतुलागेष्यतीव । । १०२ । । १०२. हे देव ! मेरी बिनती सफल करें, अपना मन प्रसन्न करें और मेरी सखी के साथ विचित्र भोग भोगें । आप के प्रसन्न हो जाने पर इस की बायीं आँख बार-बार फड़क कर मछलियों के चलने से कम्पित नील कमल के समान शोभा प्राप्त कर लेगी। जेष्यत्याssस्यं प्रमुदितमलं मेघमुक्तस्य शस्यां शोभामिन्दोर्विकसितरुचेश्चारुरोचिश्चितं स्राक प्राप्ते प्रीतिं भवति सुभगाSSनन्दितायाः किलाऽस्था Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 शीलदूतम् यास्यत्यूरुः सरसकदलीस्तम्भगौरश्चलत्यम् ।।१०३ ।। १०३. हे सुभग ! आप के प्रसन्न हो जाने पर आनन्दित हो जाने वाली इस कोशा का सुन्दर छवि से पूर्ण एवं पर्याप्त मुदित मुख शीघ्र विकसित किरणों वाले मेघमुक्त चन्द्रमा की प्रशंसनीय शोभा को जीत लेगा, और नवीन कदली-स्तम्भ के समान गौर वर्ण इस की जाँघ फड़क उठेगी। दुःखक्षामा न खलु सहते बाढमाश्लेषमेषा माहुभ्यां सदय ! मनसीदं स्वकीये विचार्य। कार्षीदस्या। प्रथममलिने मा भवान् स्नेहवत्याः सद्यः कण्ठच्युतभुजलताग्रन्थि गाढोपगूढम् ।।१०४।। १०४. हे दयालु ! "यह दुःख से क्षीण कोशा मेरी भुजाओं का सुदृढ़ आलिंगन नहीं सह सकती है।" यह अपने मन में पहले विचार कर इस स्नेहवती का ऐसा प्रगाढ़ आलिंगन न करें, जिससे आप के गले में पड़ी हुई इस की बाहुलता की ग्रन्थि तुरन्त छूट जाये। त्वामायातं शयनसदने वीक्ष्य लज्जाऽन्वितांगी नो कुच्चेित तव सुहृदय ! स्वागतं सा सखी नः । स्नेहस्निग्धैर्मधुरवचनैराधिमुग्भिस्तदानीं वक्तुं धीरः स्तनितवचनैर्मानिनी प्रक्रमेयाः ।१०५।। १०५. हे शोभन- हृदय ! आप को शयन-कक्ष में आया देखकर वह लज्जा से युक्त अंगोवाली हमारी सखी यदि स्वागत न कर सके तो उस समय धैर्य धारण कीजियेगा और मानसिक सन्ताप को दूर करने वाली, प्रेम-भरी एवं मेघ-गर्जना के समान मधुर वाणी में उस मानिनी से संभाषण प्रारम्भ कीजियेगा। किं काठिन्यं त्यजति न भवानागतोऽपि स्वगेहे स्वीयां जायां न हि निजदशा स्नेहतो वीक्षतेऽपि? प्रावटकालो रचयति मनांस्यध्वगानामयं द्राग मन्द्रस्निग्धनिभिरबलावेणिमोक्षोत्सुकानि ।। १०६ ।। १०६. आप अपने घर में आकर भी कठोरता को क्यों नहीं त्यागते हैं और अपनी स्त्री को भी स्नेह-भरी आखों से नहीं देखते हैं ? यह वर्षाकाल गम्भीर मधुर गर्जना से शीघ्र ही पथिकों के मन को स्त्रियों के केशपाश खोलने के लिये उत्सुक बनाता है। मान्या तेऽहं सुभग ! सततं वच्मि तेनैव बाट वाक्यं मे तत परिणतिशुभं मानयेदं वदान्य ! मत्तो ज्ञात्वा व्यतिकरममुं लप्स्यते निर्वृति सा कान्तोदन्तः सुहृदुपहृतः संगमात् किंघिदूनः ॥१०७।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 १०७. हे सुभग ! मैं सतत आप के द्वारा मान्य थी निःसन्देह इसी से मैं कह रही हैं। तो मेरा परिणाम में शुभ फल देने वाला यह वचन मान लीजिये। हे वदान्य ! (उदार ) उस वृत्तान्त को जान कर वह आनन्द प्राप्त करेगी क्योंकि मित्र से सुना हुआ प्रिय का वृत्तान्त संगम (संभोग) से थोड़ा ही कम होता है। स्वामिन् ! जानन्नपि नयविधि प्रोक्तवानन्यदन्यत् क्षेमप्रश्न किमिति न भवानेकवारं धकार ? विश्वेऽप्यस्मिन् खलु सुखभृतामप्यहो ! दैववश्ये पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव ।।१०।। १०८. हे स्वामी ! यह आश्चर्य है कि नीतिशास्त्र को जानते हुये भी आप दूसरी-दूसरी बातें ही कह रहे हैं। एक बार भी कुशल-क्षेम का प्रश्न नहीं किया। इस दैवाधीन जगत् में सुखी जीवों के लिये भी सर्व-प्रथम कुशल-क्षेम ही प्रष्टव्य है, फिर विपदापन्न व्यक्तियों की तो बात ही क्या गेहस्याऽन्तव्रजति न भवान भाषते नाऽपि पत्नी सौधेऽपि स्वे वसति परवद् नो भजत्युग्रभोगान्। लप्स्ये स्वर्गे सुखमिति वृथा चिन्तितैस्तीवकृष्ठः संकल्पैस्तैर्विशति विधिना वैरिणा रुद्धमार्गः ।।१०।। १०६. वैरी विधाता के द्वारा मार्ग अवरुद्ध हो जाने के कारण आप न तो घर के भीतर जाते हैं, न पत्नी से बात करते हैं और न श्रेष्ठ भोगों का उपभोग करते हैं। अपने प्रासाद में भी दूसरे की तरह रहते हैं। "सोचे गये उन शारीरिक तपों से स्वर्ग में सुख प्राप्त करूँगा।" इस प्रकार के संकल्पों के द्वारा व्यर्थ स्वर्ग में प्रवेश कर रहे हैं। प्राता नस्त्वं सुभग ! शरणं जीवितव्यं त्वमेव त्वं नः प्राणा हृदयमसि नस्त्वं पतिस्त्वं गतिर्नः । ज्ञात्वाऽपीत्वं प्रिय ! परिहरन् नो न किं लज्जसे सा? त्वामुत्कण्ठातरलितपदं मन्मुखेनेदमाह ।।११०।। ११०. उस (कोशा) ने उत्कंठा से कम्पित शब्दों में मेरे मुख से इस प्रकार आप से कहा है -- "हे सुभग ! आप ही हमारे रक्षक है, आप ही शरण हैं, आप ही हमारे जीवन हैं, आप ही हमारे प्राण हैं, आप ही हमारे हृदय हैं, आप ही हमारे पति है और आप ही हमारी गति है, इस प्रकार जान कर भी क्या प्रियतम ! तुम्हें लज्जा नहीं आती ?" श्रुत्वा साधुस्तदुदितमयोवाच कोशां स भूयो धर्म श्रीमज्जिननिगदितं घे भजेथास्त्वमार्ये ! चातुर्येणाऽखिलयुवतिषु मातले तद्विशाले हन्तैकस्थं क्वचिदपि न ते सुभ्र ! सादृश्यमस्ति ।।११।। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 शीलदूतम् १११. चतुरा का उपर्युक्त वचन सुन कर स्थूल-भद्र ने फिर कोशा से कहा -- हे सुन्दर भौहो वाली आर्ये ! यदि तुम तीर्थकर- द्वारा उपदिष्ट धर्म को स्वीकार कर लो तो इस विशाल भू-तल पर सम्पूर्ण युवतियों में किसी एक में भी तुम्हारी सुन्दरता की समानता नहीं रहेगी। तुल्यं स्त्रैणं तृणमपि च मे शुद्धशीलप्रभावात् प्रागासीना भवति भवती येषु येष्वासनेषु। नेहे ब्रहमवतकृतरतिस्तन्वि ! तत्रासितुं तत पूर्व स्पृष्टं चदि किल भवेदंगमेभिस्तवेति ।।११।। ११२. शुद्ध चारित्र्य के प्रभाव से मेरे लिये स्त्रियों का समूह और तण (दोनों) तुल्य हैं। (अतः ) "इनके (आसनों) द्वारा तुम्हारे (स्थूल भद्र के) अंग का स्पर्श हो चुका है।" यह सोच कर पहले तुम जिन-जिन आसनों पर बैठ चुकी हो उन पर ब्रह्मचर्य--व्रत में अनुराग रखने वाला मैं बैठ नहीं सकता हूँ। चातुर्मास्यं समजनि शुभे ! पूमितत्सुखेन त्वद्गेहे मे समभवदहो ! शीलहानिर्न काचित्। यायां पादानथ निजगुरोर्वन्दितुं कर्मनाशे फरस्तस्मिन्नपि न सहते संगमं नौ कृतान्तः ।।११३ ।। ११३. हे श्रेष्ठे ! तुम्हारे घर में यह चातुर्मास बड़े सुख से व्यतीत हो गया। हर्ष है, मेरी कोई भी शील-हानि नहीं हुई। अब मैं अपने गुरु- चरणों की वन्दना करने के लिये जाऊंगा। कर्म-क्षय होने पर भी यह कठोर सिद्धान्त हम दोनों का मिलन नहीं सहन करता। धर्म तावद् भजतु भवती वीतरागप्रणीतं दानं शीलं तप इह शुभो भाव एवं प्रकारम्। गन्तव्यं वै सतन । मयका प्रावषोऽहानि नीत्वा दिक्संसक्तप्रविरलधनव्यस्तसूर्यातपानि ।।११४।। ११४. हे सुन्दर शरीर वाली ! इस संसार में वीत-राग तीर्थकर द्वारा प्रापित दान, शील, तप और भाव- रूप धर्म को स्वीकार करो। जिनमें दिशाओं में संलग्न घने मेघों के द्वारा सूर्य का आतप तिरोहित हो जाता है, उन वर्षा के दिनों को बिता कर मुझे चला जाना है। ज्ञाते धर्मे जिननिगदिते तेऽपि नो भावि दुःखं मुग्धे। तस्मादिह परभवे लप्स्यसे त्वं च सौख्यम्। अस्मध्वेतो जिनमतगतं नाSभजत् क्वापि दुःखं गाढोष्माभिः कृतमशरणं त्वद्वियोगव्यथाभिः ।।११५।। ११५. मुग्धे ! तीर्थकर-द्वारा उपदिष्ट धर्म को जान लेने पर तुम्हें भी दुःख नहीं होगा। जिनधर्म के आचरण से तुम इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त करोगी। प्रगाढ़ ऊष्मा वाली Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी वियोगव्यथाओं से असहाय हो जाने पर भी जिनमत में स्थित मेरा मन कभी दुःखी नहीं हुआ। जैने धर्मे कुरु निजमतिं निश्चला तन्धि । नित्यं शीले घेहीहितसुखकरं देहि दानं गुणिभ्यः । पापव्यापव्यतिकरजुषां धर्मभाजांघ पुंसां नीर्गच्छत्युपरि घ दशा धक्रनेमिक्रमेण ।।११६ ।। ११६. हे कृशांगि ! जैन धर्म में अपनी बुद्धि को स्थिर करो। मनोवांछित सुख देने वाले शील में मन लगाओ और गणियों को दान दो। पापियों और धर्मात्मा पुरुषों की दशा गाड़ी के पहिये की तरह ऊपर और नीचे आती जाती रहती है। शुद्धिं भद्रे ! रघय तपसा स्वस्य तेनात्मनस्त्वं दृष्टा क्लुप्तं मुनिभिरतुलं यद् वनस्थैस्त्रिशुद्धया। हर्षेणोच्चैर्दिवि दिविषदां पुष्पवृष्टया समं साग मुक्तास्थूलास्तरकिशलयेष्वश्रुलेशाः पतन्ति ।।११७।। ११७. भद्रे उस तप से तुम अपने आत्मा की शुद्धि करो। वन में रहने वाले मुनियों ने मन, वाणी और शरीर की शुद्धि के द्वारा जो अतुल तप किया है उसे देख कर हर्प से आकाश में स्थित देवताओं की पुष्प-वृष्टि के साथ-साथ सहसा वृक्षों के नवपल्लवों पर बड़े-बड़े मोती जैसे अश्रु-बिन्दु टपक पड़ते हैं। कोशा प्रोचे प्रिय । विगलिता साऽध मे भोगतृष्णा वाक्यैरेभिस्तव हदि निजे या गयेत्यं धृताऽभूत्। आवां भूयो विरहविगमे भोगभंगी विचित्रां निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु।।११।। ११८. कोशा ने कहा -- हे प्रिय ! मैने अपने हृदय में जिस भोग-तृष्णा को इस प्रकार धारण कर रखा था कि विरह की समाप्ति पर हम दोनों शरत्काल की पूर्ण चन्द्रिकाओं वाली रातों में पुनः विचित्र भोग-भंगिमाओं का आनन्द लेंगे, वह आज आप के इन वचनों से नष्ट हो गई। स्वामिन् ! धर्माऽमृतरसमयं देहि दिव्यौषधं तद् येनायं मे तुदति न मनो मन्मथाख्यो विकारः। त्वद्वाक्येनोज्झितविषयया यदशादद्य रात्री दृष्टः स्वप्रेऽकितव ! रमयन कामपि त्वं मयेति ।।११।। ११६. हे स्वामी ! धर्मामतमय वह दिव्यौषध दें जिससे वह काम नामक विकार मेरे मन को पीडित न करें, जिसके वश में होने के कारण हे निश्छल! तुम्हारे कहने से विषयों को त्याग देने वाली मैंने आज स्वप्न में तुम्हें किसी रमणी से रमण करते देखा है। इत्युक्तोऽसौ घरणनतया कोशया भक्तिपूर्व Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 शीलदूतम् तवृत्तेन प्रमुदितमनाः सादरं साधुराजः। प्रादादस्यै भवभयहरं स्वं नमस्कारमन्त्रं प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव ।।१२०।। १२०. जब चरणों पर विनत कोशा ने भक्तिपूर्वक इस प्रकार कहा तब उसके व्यवहार से प्रसन्न उस साधुराज (स्थूलभद्र) ने उसे आदर-सहित सांसारिक भय दूर कर देने वाला अपना नमस्कार मन्त्र दे दिया, क्योकि प्रेमियों को वांछित वस्तु प्राप्त करा देना ही सज्जनों का प्रत्युत्तर है। तामूघेऽसौ मनसि सततं मन्त्रमेनं स्मर त्वं नित्यं भक्त्या त्रिभुवनगुरोर्जन्म सार्थं सृज स्वम्। शीलेनाऽलं विमलममले ! जैनधर्म भजेथाः प्रातः कुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेथाः ।।१२१ ।। .१२१. हे कोशे ! तुम अपने मन में निरन्तर इस नमस्कार मन्त्र का स्मरण करो और त्रिलोक के गुरू (तीर्थकर) की भक्ति से अपना जन्म सफल बनाओ। हे निर्मलशील से युक्त सुन्दरी! जैन धर्म का पालन करो और प्रातः-काल के कुन्द-पुष्प के समान दुर्बल जीवन को धारण करो। धन्यमन्या मुनिवचनतोऽगीचकाराSखिलं तत् प्रीतिं भेजे मनसि परमां साSSप्तसम्यक्त्वलाभा। दुष्टे देवं गुरुनिगदिता यान्ति धर्मोपदेशा इष्टे वस्तुन्युपधितरसाः प्रेमराशीभवन्ति ।।१२२ ।। १२२. उस कोशा ने सम्यक्त्व प्राप्त कर अपने को धन्य समझते हुये, मुनि-वचन से सम्पूर्ण धर्म को स्वीकार कर लिया और मन में श्रेष्ठ प्रेम की अनुभूति की, क्योंकि गुरु के द्वारा कथित धर्मोपदेश दुर्जनों में देर और सज्जनों में आनन्दवर्धक प्रेम की राशि बन जाते हैं। भद्रे ! भद्रं भवतु सततं ते जिनेन्द्रप्रसादाद नन्तुं पादानथ निजगुरोरेष यास्यामि शस्यान्। ध्यायन्त्यै श्रीजिनपरिवृद्धं शीलरवेन शश्वद् मा भूदेवं क्षणमपि ध ते विद्युता विप्रयोगः ।।१३।। १२३. हे भद्रे ! तीर्थ-कर की कृपा से तुम्हारा सदा कल्याण हो । अब मैं अपने गुरु के श्रेष्ठ चरणों का वन्दन करने के लिये जाऊँगा। तुम जिनेन्द्र का ध्यान करो एक क्षण भी इस प्रकाशमान शील-रुपी रत्न से तुम्हारा वियोग न हो। नीत्वा मासानय स धतुरस्तत्र सध्छीलशाली गत्या सूरीन् समयधतुरो भूरिभक्त्या ववन्दे । तस्थौ गेहे मनसि दधती सा सुखं जैनधर्म Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना युत्तमेषु ? ।।१२४ ।। १२४. इस के अनन्तर वे चतुर सदाचारी वहाँ (कोशा के घर में) चातुर्मास व्यतीत कर गुरू के पास गये और प्रचुर भक्ति से उनका वन्दन किया। कोशा भी कल्याणकारी जैन धर्म को स्वीकार कर घर में रही। श्रेष्ठ जनों से की गई किस की प्रार्थना सफल नहीं होती ? यात्वा पारं समयजलधेः स्थूलभद्रः स भेजे सूरीशत्वं भुवि जनमनो रजयामास कामम्। हित्वा तत्त्वामततररसैः साऽपि चित्तं स्वमिद्धा निष्टान् भोगानविरतसुखं भोजयामास शश्वत् ।।१२५।। १२५. स्थूल-भद्र ने समय- रूपी समुद्र के पार पहुँच कर श्रेष्ठ सूरि के पद को प्राप्त किया और भूतल पर लोगों के मनों को अत्यधिक आनन्दित किया। वह कोशा भी इष्ट भोगों को त्याग कर अपने चित्त को तत्त्वामृत-रूपी रसों के द्वारा सदैव शाश्वत् सुख का आस्वादन कराती रही। कुर्वन्नुर्वीवलयमखिलं जैनधर्माऽनुरक्तं व्यक्तं चित्रं विदधदतुलं शीलशक्त्या त्रिलोक्याम्। भूमीपीठे स्मरहठहरो दीर्घकालं विहारं धके वक्रेतरमतिरसौ स्थूलभद्रो मुनीन्द्रः ।।१२६ ।। १२६. सम्पूर्ण धरातल को जैन धर्म में अनुरक्त करते हुये और शील की शक्ति से त्रिलोकी में स्फुट एवं अतुलनीय आश्चर्य उत्पन्न करते हुये उस काम के हठ को हरने वाले, ऋजुबुद्धि, मुनीन्द्र स्थूल- भद्र ने पृथ्वी पर दीर्घ काल तक बिहार किया। सच्चारित्रं यतिपतिरसौ कर्मवल्लीलवित्रं दीर्घ कालं कलितविमलज्ञानदानः प्रपाल्य। भेजे स्वर्ग त्रिदशललनालोचनाब्जाकतुल्यो निःशल्यान्तनिरुपमसुखं वीतनिःशेषदुःखम् ।।१२७।। १२७. जिनके हृदय में शोक नहीं रह गया था, जो देवकामिनियों के लोचल-कमल के लिये सूर्य के समान थे और जो विमल ज्ञान का दान देते रहते थे उन मुनीद्र स्थूल-भद्र ने कामरूपी लतापाश को काटने वाले लवित्र ( हसिया) के समान सदाचार का दीर्घ काल तक पालन कर उस स्वर्ग को प्राप्त किया जहाँ अनुपम सुख है और जहाँ समस्त दुःख समाप्त हो जाते हैं। कोशाSपि श्रीजिनमतरता शीलामाराध्य सम्यक पत्युः स्नेहादिव दिविषदां धाम सा याग जगाम। आपद् व्यापद्रहितमतुलं तत्र सातं विशेषा दवाऽमुत्र प्रदिशति सुखं प्राणिनां जैनधर्मः ।।१२८ ।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलदूतम् १२८. जिन- मत में अनुरक्त वह कोशा भी सम्यक् शील की आराधना कर मानो पति के विशेष स्नेह के कारण शीघ्र स्वर्ग गई और वहाँ उस ने आपत्ति और संकट से शून्य सुख प्राप्त किया । वास्तव में जैन धर्म प्राणियों को इस लोक और परलोक के सुख का उपदेश देता है। तारायन्ते ततमतिभृतोऽप्यन्यतीर्थ्या इदानीं विश्वे विश्वे खलु यदमलज्ञानभानुप्रभायाम्। सोऽयं श्रीमानवनिविदितो रत्नसिंहाख्यसरि जर्जीयाद् नित्यं नृपतिमहितः सत्तपोगच्छनेता ।।१२६ ।। १२६. इस समय सम्पूर्ण विश्व में जिन के विमल ज्ञान- सूर्य के प्रकाश में ज्ञान का विस्तार करने वाले भी अन्य तीर्थ (मत, सम्प्रदाय) तारों जैसे लगते हैं, वे नरपति-पजित. भमण्डल में विख्यात सत्तपोगच्छ के नेता ( संचालक ) श्री रत्नसिंह नामक सूरि सदा जीवित रहे। शिष्योऽमुष्याऽखिलबुधमुदे दक्षमुख्यस्य सूरेश्चारित्रादिर्धरणिवलये सुन्दराख्याप्रसिद्धः। धके काव्यं सुललितमहो ! शीलदूताभिधानं नन्द्यात् सार्ध जगति तदिदं स्थूलभद्रस्य कीया॑ ।।१०।। १३०. हर्ष है, उन विद्वद्वरेण्य सूरि के चारित्र सुन्दर नाम से पृथ्वी में प्रसिद्ध शिष्य ने सभी विद्वानों के मोद के लिये शील- दूत नामक ललित काव्य की रचना की। यह स्थूल- भद्र की कीर्ति के साथ जगत् में सबको आनन्दित करे। दंगे रंगैरतिकलतरे स्तम्भतीर्थाऽभिधाने वर्षे हर्षाज्जलधिभुजगाऽम्भोधिचन्द्रे प्रमाणे। चक्रे काव्यं वरमिह मया स्तम्भनेशप्रसादात् सभिः शोध्यं परहितपरैरस्तदोषैरसादात् ।।१३१ ।। १३१. मैने आमोद-प्रमोद के कारण अति मनोहर स्तम्भन तीर्थ नामक नगर में स्तम्भनेश्वर की कृपा से १४८४ संवत् में सहर्ष इस श्रेष्ठ काव्य की रचना की। यह दोष-रहित परोपकारी सज्जनों के द्वारा सरलता-पूर्वक (थकावट के बिना) शोध्य है। - विश्वनाथ पाठक, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रमण foto to gato 33 2018-faatat 8887 17:38888? transform plastic ideas into beautiful shape NUCHEM MOULDS & DIES Our high-precision moulds and dies are designed to give your noulded product clean, flawless lines. 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