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डॉ. सागरमल जैन
अभ्यासवश अपनेपन का बोध होता है, वैसे ही दूसरे प्राणियों के शरीरों में अभ्यास से ममत्वभाव अवश्य ही उत्पन्न होगा, क्योंकि जैसे हाथ आदि अंग अपने शरीर के अवयव होने के कारण प्रिय होते हैं, वैसे ही सभी प्राणी उसी जगत् के, जिसका मैं अवयव हूं, अवयव होने के कारण प्रिय होंगे, उनमें भी आत्मभाव होगा और यदि सब में प्रियता एवं आत्मभाव उत्पन्न हो गया तो फिर दूसरों के दुःख दूर किये बिना नहीं रहा जा सकेगा, क्योंकि जिसका जो दुःख हो वह उससे अपने को बचाने का प्रयत्न तो करता है। यदि दूसरे प्राणियों को दुःख होता है, तो हमको उससे क्या? ऐसा मानों तो हाथ को पैर का दःख नहीं होता, फिर क्यों हाथ से पैर का कंटक निकालकर दुःख से उसकी रक्षा करते हो । जैसे हाथ पैर का दुःख दूर किये बिना नहीं रह सकता, वैसे ही समाज का कोई भी प्रज्ञायुक्त सदस्य दूसरे प्राणी का दुःख दूर किये बिना नहीं रह सकता। इस प्रकार आचार्य समाज की सावयवता को सिद्ध कर उसके आधार पर लोकमंगल का सन्देश देते हुए आगे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि इस लोकमंगल की साधना में निष्कामता होनी चाहिए। वे लिखते हैं -- "जिस प्रकार अपने आपको भोजन कराकर फल की आशा नहीं होती है, उसी प्रकार परार्थ करके भी फल की आशा, गर्व याविषय नहीं होता है।"2 क्योंकि परार्थ द्वारा हमें अपने ही समाजरूपी शरीर की या उसक अवयवों की सन्तुष्टि करते हैं इसलिए एकमात्र परोपकार के लिए ही परोपकार करके, न गर्व करना और न विस्मय और न विपाकफल की इच्छा ही।" महायान में बोधिसत्त्व और गीता में स्थितप्रज्ञ के जो आदर्श हैं वे व्यक्ति के स्थान पर समाज को महत्त्व देते हैं। उन्होंने वैयक्तिक कल्याण या स्वहित के स्थान पर सामाजिक कल्याण को महत्त्व दिया है और इस प्रकार व्यक्ति के ऊपर समाज को प्रतिष्ठित किया है।
महायान के बोधसत्त्व का. लक्ष्य मात्र वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना नहीं। वह तो लोकमंगल के लिए अपने बन्धन और दुःख की भी कोई परवाह नहीं करता है। वह कहता
"बहुनामेकदुःखेन यदि दुःख विगच्छति, उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनो। मुच्यमानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रमोद्यसागराः, तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षणारसिकेन किम् ।।"
यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो करुणापूर्वक उनके दुःख दूर करना ही अच्छा है। प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है वही क्या कम है, फिर नीरस मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है। वैयक्तिक मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के लिए अपने संकल्प को स्पष्ट करते हुए भागवत, जिसमें गीता के चिन्तन का ही विकास देखा जाता है, के सप्तम स्कन्ध में प्रहलाद ने भी स्पष्ट रूप से कहा था कि --
"प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः ।
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