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________________ महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक दृष्टि भौतिक कल्याण और समाज के दीन-दुःखियों को वास्तविक सेवा का व्यवहार्य पक्ष उनमें स्पष्ट रूप से परिलक्षित नहीं होता है। भिक्षु-जीवन में संघीय चेतना का विकास तो हुआ था, फिर भी वह समाज के सामान्य सदस्यों के भौतिक कल्याण के साथ जुड़ नहीं पाया। जैनधर्म का भिक्षु संघ तो आज तक भी समाज के वास्तविक भौतिक कल्याण तथा रोगी और दुःखियों की सेवा को अपनी जीवन चर्या का आवश्यक अंग नहीं मानता है। मात्र सेवा का उपदेश देता है, करता नहीं है। श्रमण परम्पराओं ने सामाजिक जीवन में सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयत्न किया और उन तथ्यों का निराकरण भी किया जो सामाजिक जीवन को दूषित करते थे। फिर भी वे अपनी निवृत्तिमार्गी दृष्टि के कारण विधायक सामाजिकता का सृजन नहीं कर सके। निवृत्तिमागी परम्परा में सामाजिक-चेतना का सर्वाधिक विकास यदि कहीं हुआ है तो वह महायान परम्परा में। महायान परम्परा में सामाजिक चेतना का जो विकास है उसे बोधिचर्यावतार में बहुत स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। समाज की आंगिकता का सिद्धान्त, जो आज बहुत चर्चा के विषय हैं, उसका स्पष्ट उल्लेख भी उसमें प्राप्त है। बौद्धधर्म की महायान शाखा ने तो लोकमंगल के आदर्श को ही अपनी नैतिकता का प्राण माना। वहाँ तो साधक लोकमंगल के आदर्श की साधना में परममूल्य निर्वाण की भी उपेक्षा कर देता है, उसे अपने वैयक्तिक निर्वाण में कोई रुचि नहीं रहती है। महायानी साधक कहता है -- दूसरे प्राणियों को दुःख से छुड़ाने में जो आनन्द मिलता है, वही बहुत काफी है। अपने लिए मोक्ष प्राप्त करना नीरस है, उससे हमें क्या लेना देना।' साधना के साथ सेवा की भावना का कितना सुन्दर समन्वय है। लोकसेवा, लोक-कल्याण-कामना के इस महान् आदर्श को देखकर हमें बरबस ही श्री भरतसिंहजी उपाध्याय के स्वर में कहना पड़ता है, कितनी उदात्त भावना है। विश्व-चेतना के साथ अपने को आत्मसात् करने की कितनी विह्वलता है। परार्थ में आत्मार्थ को मिला देने का कितना अपार्थिव उद्योग है। आचार्य शान्तिदेव भी केवल परोपकार या लोक-कल्याण का सन्देश नहीं देते, वरन उस लोक-कल्याण के सम्पादन में भी पूर्ण निष्कामभाव पर बल देते हैं। निष्कामभाव से लोक-कल्याण कैसे किया जाये, इसके लिए शान्तिदेव ने जो विचार प्रस्तुत किये हैं, वे उनके मौलिक चिन्तन का परिणाम हैं। गीता के अनुसार व्यक्ति ईश्वरीय प्रेरणा को मानकर निष्कामभाव से कर्म करता रहे अथवा स्वयं को और सभी साथी प्राणियों को उसी पर ब्रह्म का ही अंश मानकर सभी में आत्मभाव जागत कर बिना आकांक्षा के कर्म करता रहे। लेकिन निरीश्वरवादी और अनात्मवादी बौद्ध दर्शन में तो यह सम्भव नहीं था। यह तो आचार्य की बौद्धिक प्रतिभा ही है, जिसने मनोवैज्ञानिक आधारों पर निष्कामभाव से लोकहित की अवधारणा को सम्भव बनाया। समाज के सावयवता के जिस सिद्धान्त के आधार पर ब्रेडले प्रभृति पाश्चात्य विचारक लोकहित और स्वहित में समन्वय साधते हैं और उन विचारों की मौलिकता का दावा करते हैं, वे विचार आचार्य शान्तिदेव के ग्रन्थों में बड़े स्पष्ट रूप से प्रकट हुए हैं और उनके आधार पर उन्होंने निःस्वार्थ कर्मयोग की अवधारणा को भी सफल बनाया है। वे कहते हैं कि, जिस प्रकार निरात्मक (अपनेपन के भाव रहित) निज शरीर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525015
Book TitleSramana 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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