SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 9 मन उपशम या निर्वेद की अनुभूति में तल्लीन नहीं होता है अतः अनेक विद्वानों के द्वारा उसे शान्तरस प्रधान काव्य घोषित करना उचित नहीं लगता । प्रस्तुत काव्य में स्थूलभद्र और कोशा विचारों के दो प्रतिकूल धरातलों पर स्थित हैं। दोनों के वैचारिक संघर्ष में स्थूलभद्र की विजय और कोशा की उपशान्ति ही काव्य के प्रतिपाद्य विषय है । अतः कवि को स्थूलभद्र के निर्वेद को अधिक महत्व देना था, किन्तु उसने कोशा के रति - भाव को ही भूरिशः पल्लवित किया है। इस से शान्तरस की अंगीरस के रूप में प्रतिष्ठा नहीं हो पाई, जो कि काव्य शास्त्रीय दृष्टि से अपेक्षित थी । शान्त और श्रृंगार दोनों विरोधी रस है । परन्तु उनकी भिन्नाश्रयता और अंगांगिभाव में विरोध नहीं है। आचार्य आनन्दवर्धन ने लिखा है कि किसी भी विरोधी रस का अंगीरस ( प्रधान रस) की अपेक्षा अधिक परिपोष करना अनुचित है। अंगभूतरस (अप्रधान रस ) के परिपोष में न्यूनता होनी चाहिये । यदि शान्त रस अंगी हो तो श्रृंगार का और श्रृंगार अंगी हो तो शान्त का परिपोष न्यून कर देना चाहिये । परन्तु कवि ने अप्रधान रस विप्रलम्भ श्रृंगार का परिपोष अधिक कर दिया है। इस स्खलन का प्रमुख कारण पादपूर्ति की विवशता है। घोर श्रृंगार में डूबे मेघदूत के श्लोकों की पादपूर्ति में शान्तरस के लिये कहीं भी स्थान नहीं था । कवि ने अपनी प्रतिभा से उसके लिये भी कुछ स्थल खोज लिये हैं। यही क्या कम है ? शीलदूतम् विप्रलम्भ श्रृंगार के परिपाक और पादपूर्ति की सफलता की दृष्टि से शीलदूत का संस्कृत साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। - आचार्य विश्वनाथ पाठक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525015
Book TitleSramana 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy