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________________ महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर हिमालय में बैठे हैं हम, पर कुदरत के रंग कितने तब्दील होते जा रहे हैं। कुदरत के सौ रूप दिन-भर में दिखायी देते हैं। चित्त के भी ऐसे ही खेल होते हैं। महावीर ने चित्त-वृत्तियों को समझने के लिए एक माकूल उदाहरण दरसाया है। वे कहते हैं कि छह राहगीर किसी पहाड़ी रास्ते से गुजर रहे थे। उन्हें भूख लगी। उन्होंने दूर से एक वृक्ष देखा, जो फलों से लदा हुआ था। उसमें से एक राहगीर ने सोचा कि इस पेड़ को जड़ से उखाड़ दिया जाए ताकि फल तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने की जरूरत ही नहीं रहे। भर-पेट फल खाऊंगा और आगे चलते समय अपना झोला भी भर लूंगा। दूसरे राहगीर के मन में तना काटने का विकल्प बना। तीसरे ने शाखा काटने की सोची। चौथे ने डाली और पाँचवें ने फल तोड़ने का विचार किया, परन्तु साथ चल रहे छठे राहगीर ने सोचा, पेड़ हरा-भरा है और फलों से लदा है। फल पेड़ की सम्पत्ति हैं। उसे भी जीने का अधिकार है। मुझे भूख लगी है, जरूर पेड़ के नीचे कुछ न कुछ फल पेड़ से गिरे/पड़े मिल जाएंगे। मैं उन्हें खाऊंगा और परितृप्त होकर आगे की यात्रा करूँगा। महावीर की यह कथा प्रतीकात्मक है। वे इन छह राहगीरों के माध्यम से मनुष्य की छह चित्तवृत्तियाँ समझाने की कोशिश करते हैं। उनके अनुसार जो आदमी किसी को जड़ से उखाड़ने की सोचता है, वह कलुषित है। उसकी अन्तरवृत्तियां काली-कलूटी हैं। तना काटने की सोचने वाला इन्सान जड़ वाले की अपेक्षा कुछ कम कलुषित है। यों समझिये, वह नीले रंग का है। शाखा तोड़ने की सोचने वाला नीले से कुछ ठीक है। समझने के लिए उसका रंग आकाशी या कबूतरी है। डाली के विकल्प वाला इन तीनों की अपेक्षा कुछ तेजस्वी है। उसका रंग ढलते सूरज की तरह है। फल के विकल्पों वाला होठों के मुस्कराते गुलाबी रंग जैसा है। वहीं छठा राहगीर जो वृत्तियों से स्वस्थ है, किसी को सुख देते हुए स्वयं को सुखी महसूस करता है, सत्वयोगी है। किसी के फलों को छीनना, अतिक्रमण है। अस्तित्व की पूर्ति के लिए वृक्ष स्वयं फल देता है। ऐसे वृत्ति-स्वस्थ लोगों के चित्त के आकाश में पूर्णिमा-सा चाँद खिला रहता है। जिसका अन्तःकरण साफ-सुथरा और स्वच्छ है, वह उतना ही अमल-धवल है, जितना यह हिमालय। वृत्ति का यह आरोहण और अवरोहण महावीर की भाषा में लेश्या है। वृत्ति के ये छह प्रतीक वास्तव में लेश्या के छह सोपान हैं। योग जिसे षट्चक्र कहते हैं, अर्हत उसे षट्लेश्या कहते हैं। छह लेश्याओं को षट् शरीर भी कह सकते हैं। आभाचक्र (ऑरो) की उज्ज्वलता और कलुषता इसी लेश्या-शुद्धि पर निर्भर है। वृत्ति उज्ज्वल भी क्यों न हो आखिर है तो वृत्ति ही। जिसे चिन्तकों ने निवृत्ति कहा है, वह कोई सामान्य वृत्ति से परे होना नहीं है। निवृत्ति सही अर्थों में तभी जीवन की क्रान्तिकारी चेतना बन पाती है, जब व्यक्ति अमल-धवल शुक्ल-वृत्ति से भी चार कदम आगे बढ़ जाता है। आत्म-बोध और आत्म-सर्वज्ञता वृत्ति से मुक्त होने पर ही पल्लवित होते हैं। कुछ वृत्तियाँ शुभ होती हैं और कुछ अशुभ। अशुभ से शुभ भली हैं, किन्तु शुद्धता तो अशुभ और शुभ दोनों के पार हैं। पाँवों की जंजीरें लोहे की हों, बर्दाश्त के बाहर हैं। सोने की Jain Education International For Private & grsonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525015
Book TitleSramana 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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