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________________ पारस. वाय आरनिराध का, शरीर के साथ होता है। यह चैतन्य-प्रेम नहीं है। यह तो भोग-प्रेम है और हर भोग-प्रेम में जीवन पर मन एवं वृत्तियों का प्रभुत्व है। चैतन्य-जगत् से प्यार करने वाले के लिए न करुणा है और न वात्सल्य । उसके लिए तो सिर्फ प्रेम और मैत्री ही है। करुणा हम तब करेंगे जब अपने से ज्यादा किसी को करुणाशील मानेंगे। वात्सल्य की बारिश हमारे द्वारा तब होगी जब दूसरों को अपने स्नेह का पात्र मानेंगे। क्या कभी सोचा कि महावीर जैसे बुद्ध पुरुष भी अपने शिष्यों को नमस्कार करते थे? महावीर की "णमोतित्थस्स" शब्दावली की मूल अस्मिता यही है। नमस्कार छोटे कद, बड़े कद, छोटी उम्र, बड़ी उम्र से जुड़ा नहीं होता। नमस्कार का सम्बन्ध तो चैतन्य- अस्मिता से है। जीवित को नमस्कार किया जाता है और मृत को दफनाया जाता है। जिसे हम क्षुद्र समझते हैं, चैतन्य-पुरुष की दृष्टि में उनमें भी वे ही विराट सम्भावनाएँ हैं, जो स्वयं उनमें गुलाब के फूल की पंखुड़ियों की तरह खिली हैं। उन सम्भावनाओं को मेरा भी प्रणाम है। और मैं यह कहना चाहूँगा कि वे विराट सम्भावनाएँ हम सबसे जुड़ी हैं। जब तक आत्मसात् न हो जाएँ, तब तक सिर्फ वाणी- विलास लगती है। अभिव्यक्ति बलवती तो तब होती है, जब वह अनुभूति के साँचे से ढल कर गुजरती है। अभ्यास से सब कुछ सहज होता है, अगर बाहर में राहों को तलाशती आंखें जरा भीतर मुड़ जाएँ, तो जीवन के देवदार वृक्षों पर बड़ी आसानी से चढ़ सकोगे और स्वयं की सम्भावनाओं को साकार भी कर सकोगे। जीवन के बाहरी दायरों में आनन्द को ढूँढ़ती निगाहों को थोड़ा समझाओ। आकर्षण और विकर्षण से कुछ ऊपर उठो और साधो स्वयं को प्रयत्नपूर्वक-- "अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः" चित्त की वृत्तियों का निरोध अभ्यास और वैराग्य से सम्पन्न होता है। यदि जीवन के अन्तर-विश्व का ग्लोब बडी बारीकी से पढ़ना है तो चित्त-वृत्तियों के कोहरे के धुंधलेपन को पहले साफ करना होगा। हम देखना तो चाहते हैं हिमालय के उन बर्फीले पर्वतों को, उनपर ये जो कोहरा छाया है, वातावरण में जो ओस घिरी है, तो वे कहाँ से दिखायी देंगे। अनुमान से अगर हल्की-सी झलक भी पा लो, तो बात अलग है। पते की बात तो कोहरे के हटने पर ही निर्भर है, इसलिए सबसे पहले हम समझें कोहरे को, कोहरे के कारणों को, चित्त को, चित्त की वृत्तियों को। चित्त के टीले भी हिमालय की तरह लम्बे-चौड़े और बिखरे-बसे हैं। चित्त के धरातल पर उसके अपने समाज हैं, विद्यालय है, खेत खलिहान हैं, पहाड़ी रास्ते हैं। उसका अपना आकाश है और अपना रसातल है। वहाँ वसन्त के रंग भी हैं और पतझड़ के पत्र-झरे वृक्ष-कंकाल भी। चित्त की अपनी संभावनाएँ होती हैं। आखिर सबका लेखा-जोखा दो टूक शब्दों में तो नहीं किया जा सकता। जहाँ वर्णन और विश्लेषण करते हुए आदमी थक जाता है, वहाँ सीमा पर अनन्त शब्द उभरने लगता है, इसलिए यही कहना बेहतर होगा कि चित्त की वृत्तियाँ अनन्त हैं यानी इतनी हैं जिन्हें न गिना जा सकता है और न मापा जा सकता है। पर हां, अगर ध्यान दो तो चीन्हा अवश्य जाता है। Jain Education International For Private & Penal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525015
Book TitleSramana 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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