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________________ वृत्ति : बोध और निरोध - महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर चित्त जीवन की सूक्ष्म संहिता है। यह शरीर की अन्तर-रचना है। इसका निर्माण परमाणुओं के जरिये हुआ है, इसलिए चित्त वास्तव में परमाणुओं की ढेरी है। जितने परमाणु, उतने ही चित्त के अभिव्यक्त रूप। परमाणुओं का क्या, सुई की नोंक में अनगिनत परमाणु समा सकते हैं। इस हिसाब से चित्त के परमाणु अनन्त हैं। रेगिस्तान के रेत-टीलों की तरह यह सटा-बिखरा पड़ा है। रेगिस्तान का हर कण टीले की तलहटी पर भी स्वतन्त्र है और उसके शिखर पर भी। चित्त के सारे परमाणु एक-जैसे ही हों, यह कोई अनिवार्य नहीं है। चित्त के हजार जाल हैं। समान और समानान्तर-दोनों सम्भावनाओं को यह अपने गर्भ-गृह में समेटे रख सकता है। देख नहीं रहे हो, जीवन कितने विरोधाभासों से भरा है और उन सारे विरोधाभासों का सम्मेलन स्वयं हमारा चित्त है -- हमारे हिस्से के सब ख्वाब बँटते जाते हैं। वो दिन भी कट गये, ये दिन भी कटते जाते हैं।। चित्त द्वारा की जाने वाली हर पहल नये निर्माण का संकल्प है, किन्तु उसका प्रत्येक निर्माण स्वयं उसी के लिए चुनौती है। आखिर जीवन के चौराहे पर एक ही मार्ग से यात्रा की जा सकती है, पर मनुष्य के लिए सबसे बड़ी जीवन्त समस्या यही है कि वह चौराहे के चारों मार्गों को माप लेना चाहता है। नतीजा यह होता है कि उसका हर निर्णय सन्देह के गलियारों में अभिशाप्त हो कर भटकता रहता है। मैं धर्म को जीवन की चिकित्सा और जीवन का स्वास्थ्य स्वीकार करता हूँ। जीवन की जीवन्तता मात्र शरीर की नीरोगता में नहीं, वरन् चित्त की स्वस्थता में है। जीवन कोरा शरीर नहीं है। वह शरीर और चित्त दोनों का मिलाप है। उसके पार भी है। चैतन्य-गंगोत्री ही तो वह आधार है, जहाँ से जीवन के सारे घटकों को ऊर्जा की ताजा धार मिलती है। धर्म का अर्थ किसी के सामने केवल मत्था टेकना नहीं है, वरन् जीवन की धारा को बँटने बिखरने से रोकना है। धर्म योग है और पतंजलि की भाषा में चित्त निरोध योग की पहल है -- योगश्चित्तवत्ति निरोधः । मैं धर्म की परिभाषा सिर्फ निरोध तक ही नहीं जोडूंगा, क्योंकि धर्म योग है और योग निरोध से बेहतर है। योग हमें जोड़ता है, एक धारा से, जीवन की धारा से। योग न केवल चित्त की वृत्तियों से हमें निवृत्त करता है वरन् चैतन्य-जगत् की ओर प्रवृत्त भी करता है। __ चैतन्य-प्रेम ही तो अहिंसा की अस्मिता है। चैतन्य का आह्वान हो सकता है। चैतन्य से प्रेम हो सकता है। प्रेम तो हमेशा अच्छा ही होता है। खतरा तो तब पैदा होता है जब प्रेम शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525015
Book TitleSramana 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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