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________________ महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक दृष्टि भुंजिथा" में त्याग और भोग का समन्वय किया गया है। वैदिक धारा में विकसित औपनिषदिक ' चिन्तन इस समन्वय का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। यही समन्वय की धारा आगे चलकर गीता में अधिक पुष्पित एवं पल्लवित हो जाती है। गीता की जीवन दृष्टि ईशावास्योपनिषद् की जीवन दृष्टि का ही एक विकसित रूप है। जिस प्रकार वैदिक धारा में उपनिषद् एवं गीता समन्वय की दृष्टि को लेकर आगे आते हैं उसी प्रकार श्रमण परम्परा में बौद्धधर्म समन्वय का सूत्र लेकर आगे आता है। यद्यपि प्रारम्भिक बौद्धधर्म ने प्रवृत्ति एवं निवृत्ति तथा व्यक्ति और समाज के मध्य एक समन्वय का प्रयत्न तो किया था, किन्तु उसे विकसित किया महायान परम्परा ने। वैदिक परम्परा में यदि गीता प्रवृत्ति और निवृत्ति के मध्य एक उचित समन्वय का प्रयास है तो श्रमण परम्परा में महायान सम्प्रदाय प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के मध्य एक सांग-संतुलन को प्रस्तुत करता है। इसी दृष्टि से हम कह सकते हैं कि भगवद्गीता और महायान परम्परा एक दूसरे के अधिक निकट हैं। दोनों में यदि कोई अन्तर है तो वह अन्तर उनके उद्गम स्थल या उनकी मूल धारा का है। अपने उद्गम के दो भिन्न केन्द्रों पर होने के कारण ही उनमें भिन्नता रही हुई है। वे अपनी मूलधारा से टूटना नहीं चाहते हैं अन्यथा दोनों की समन्वयात्मक जीवन-दृष्टि लगभग समान हैं। अनेक तथ्यों के सन्दर्भो में हम उनकी इस समन्वयात्मक जीवन-दृष्टि को देख सकते गृहस्थ धर्म बनाम संन्यास प्रारम्भिक वैदिक धर्म में संन्यास का तत्त्व अनुपस्थित था, गृहस्थ जीवन को ही एक मात्र जीवन का कर्मक्षेत्र माना जाता था। प्रारम्भिक वैदिक ऋषि पत्नियों से युक्त थे, जबकि श्रमण परम्परा प्रारम्भ से ही संन्यास को प्राथमिकता देती थी तथा पारिवारिक जीवन को बन्धन मानती थी। वैदिक धर्म में यद्यपि आगे चलकर निवृत्तिमार्गी श्रमणधर्म के प्रभाव के कारण वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों का प्रवेश हुआ, किन्तु फिर भी उसमें गृही जीवन को ही जीवन का उच्चतम आदर्श तथा सभी आश्रमों का आधार समझा गया और "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति" कहकर गृही जीवन के दायित्वों को निर्वाह करने हेतु बल दिया गया। जबकि प्रारम्भिक श्रमण परम्पराओं में गृहस्थ जीवन की निन्दा की गयी और संन्यास को ही निर्वाण या मुक्ति का एक मात्र उपाय माना गया। प्रारम्भिक जैन एवं बौद्धधर्म गृहस्थ जीवन की निन्दा करते हैं। जैन आगम दशवैकालिकसूत्र (चूलिका १/११-१३ ) में कहा गया है कि गृहस्थ जीवन क्लेश युक्त है, संन्यास क्लेश युक्त, गृहस्थ जीवन पापकारी है, संन्यास निष्पाप है। इसी प्रकार सुत्तनिपात (२७/२) में भी संन्यास जीवन की प्रशंसा तथा गृहस्थ की निन्दा करते हुए कहा गया है कि गृहस्थ जीवन कण्टकों से पूर्ण वासनाओं का घर है जबकि प्रव्रज्या खुले आसमान के समान Jain Education International For Private.& PeQonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525015
Book TitleSramana 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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